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कल्पकथा

अप्प दीपो भव – शशि धर कुमार

आमंत्रण क्रमांक: कल्प/मई/२०२५/ब
विषय: स्वैच्छिक
शीर्षक: अप्प दीपो भव
देवपुर गाँव, कटिहार जिले के कदवा प्रखंड में बसा एक साधारण सा गाँव, जहाँ न बिजली नियमित थी, न सड़कें पक्की, और स्कूल तो जैसे सपना हो। लेकिन इसी मिट्टी में उगता था वह बीज, जिसे सींचने वाला था एक गरीब किसान — रामचरन मंडल। उसके पास कोई बड़ी डिग्री नहीं थी, न बोलने की कला और न राजनीतिक पहुँच, लेकिन उसके पास था एक सपना — अपने बेटे दीपक को पढ़ा-लिखाकर आदमी बनाना। ऐसा आदमी जो अपनी ज़िंदगी का दीपक खुद बने और दूसरों के लिए भी रोशनी का रास्ता दिखाए।

रामचरन सुबह सूरज निकलने से पहले खेतों में चला जाता। बारिश हो या लू, वह खेत में जुटा रहता ताकि घर का चूल्हा जलता रहे और दीपक को किताबें मिल सकें। गाँव में स्कूल सिर्फ आठवीं तक था, और आगे की पढ़ाई के लिए दुर्गागंज या फिर कटिहार शहर भेजना पड़ता था। पैसे नहीं थे। लेकिन हौसला था। जब दीपक आठवीं पास हुआ, तो रामचरन ने घर की एकमात्र भैंस बेच दी। लोग हँसे — “अरे रामचरन! बेटा पढ़ाकर क्या कलक्टर बनाओगे?”

रामचरन ने मुस्कुराकर कहा — “हाँ, बनेगा! और अगर न भी बने, तो भी वह अंधेरे में जीने वालों के लिए दीपक बनेगा।”

रामचरन अक्सर दीपक को रात में लालटेन के नीचे पढ़ाते हुए कहता: “बेटा, बुद्ध ने कहा था — “अप्प दीपो भव”, यानी खुद के दीपक बनो। मैं तो सिर्फ बाती हूँ, जो जलकर तुझे रोशनी दे रहा हूँ। लेकिन असली उजाला तुझमें है।” दीपक के मन में यह वाक्य जैसे पत्थर पर उकेरा गया हो। हर कठिनाई में, वह यही सोचता — “मुझे खुद दीपक बनना है।”

रामचरन ने मजदूरी की, दूसरों के खेतों में काम किया, रात में चौकीदारी की — बस इसलिये कि दीपक की पढ़ाई न रुके। गाँव में त्योहारों पर नए कपड़े सबके घर आते, लेकिन रामचरन के घर में सिर्फ किताबें आतीं। वही दीपक के लिए त्योहारों का उपहार होता।

दीपक की माँ भी साथ थी इस संघर्ष में। वह हर रात रोटी बेलते हुए कहती — “दीपक, तू अगर पढ़कर आदमी बन गया, तो ये चूल्हे की आग भी मुझे तप नहीं लगेगी।”

वर्ष २०२१ दीपक ने BPSC परीक्षा में टॉप १० में स्थान प्राप्त किया। जब उसका नाम अखबारों में छपा — “बिहार लोक सेवा आयोग का अव्वल: देवपुर का दीपक मंडल”, तो पूरा गाँव गर्व से भर गया। गाँव में जश्न था, लेकिन रामचरन शांत था। उसने बस एक बात कही: “अब दीपक सचमुच दीपक बन गया है। मेरा ‘अप्प दीपो भव’ सफल हो गया।”

दीपक ने अपने गाँव लौटकर सबसे पहले एक निर्णय लिया — गाँव में एक स्कूल खोलने का। और नाम रखा गया: “अप्प दीपो भव विद्या मंदिर”। जहाँ गाँव के बच्चे मुफ्त में पढ़ें, और ज्ञान की रोशनी हर कोने में पहुँचे। स्कूल के प्रवेश द्वार पर एक पत्थर की पट्टी लगी, जिस पर शब्द खुदे थे:
“जहाँ पिता बाती बने, वहाँ बेटा दीपक ज़रूर बनता है।” — रामचरन मंडल

अब रामचरन वृद्ध हो गया है, लेकिन सुबह स्कूल की घंटी सुनकर उसकी आँखें चमक उठती हैं। कभी-कभी वह स्कूल के आँगन में बैठकर बच्चों को देखता है और आँखें नम हो जाती हैं। दीपक अब BDO के पद पर कार्यरत है, लेकिन हर रविवार अपने स्कूल जरूर आता है, बच्चों को पढ़ाता है और हर नए छात्र को यही मंत्र देता है —
“अप्प दीपो भव — खुद दीपक बनो।”

यह उस हर पिता की कहानी है जो खुद अंधेरे में रहकर, अपने बच्चों के लिए रोशनी का इंतज़ाम करता है। जो खुद जलकर भी नहीं जलता, बल्कि बेटे को जलते हुए दीपक की तरह देख मुस्कुराता है।
©️✍️शशि धर कुमार (ISHASHIDHARKUMAR)

Shashi Dhar Kumar

One Reply to “अप्प दीपो भव – शशि धर कुमार”

  • पवनेश

    अप्प दीपों भव,
    खूब लिखा शशिधर जी, प्रेरक प्रयास 🙏🌹🙏

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