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औरत : खामोश व्यथा

औरत : खामोश व्यथा

एम्बुलेंस के सायरन की आवाज के सारे मोहल्ले को स्तब्ध कर दिया था । घरों के दरवाजे और झरोखे आहिस्ता आहिस्ता खुद का चीर हरण कर सनसनाती आवाज का खामोशी से पीछा कर रहे थे ।
देवदत्त कुलश्रेष्ठ के घर के सामने एम्बुलेंस रुकती है । आज पूरे चालीस दिन बात देवदत्त जी हॉस्पिटल से घर आए थे चलने में असमर्थ अपनी पत्नी के हाथों का सहारा लेकर जैसे तैसे घर के दरवाजे से अंदर प्रवेश करते हैं ।
तीन कमरों का छोटा सा आशियाना , पहले कमर में ही देवदत्त जी को पलंग पर आराम करने के लिए अस्थाई जगह मिल जाती है । तभी घर की घंटी की आवाज सुन पत्नी कौशल्या दरवाजा खोलती है । मोहल्ले के कुछ शुभचिंतक लोग देवदत्त जी कुशलक्षेम पूछने के लिए अंदर आते है । कौशल्या सभी को बैठाती है । बातचीत के साथ पानी चाय का भी दौर चलता है । देवदत्त जी स्वयं को भाग्यशाली मानते हुए कौशल्या के साथ सभी का आभार व्यक्त करते हैं । हम बहुत नसीब वाले है जो इतने सभ्य पड़ोसियों का साथ मिला है । दुख जरूरत में साथ खड़े है । देवदत्त कृतज्ञ मुस्कान के साथ कौशल्या को बोलते हैं ।
काफी समय बिताने के पश्चात सभी के चलने का वक्त आता है । जाते जाते एक महानुभाव कौशल्या को बाहर आने का इशारा करते हैं ।
दहलीज के बाहर कोई पांच छह आपस के लोग और मध्य में कौशल्या ।
देखिए भाभीजी देवदत्त जी का ख्याल रखिए अभी चलने फिरने में दो तीन महीने लग जायेगे। तभी उनको नौकरी पर भेजिए और आपके ऊपर पिछले दो माह का किराया बाकी है वह हॉस्पिटल में थे इसीलिए मैने कुछ नहीं बोला । अब थोड़ा जल्दी से जल्दी चुकाने की व्यवस्था कर लेना। वैसे हम आपकी परेशानी को समझते है। मकान मालिक के शब्द कौशल्या के कानो को भेद गए । तभी पीछे से आवाज आई गर्दन को घुमा कर देखा तो किराने वाले गौतम जी थे । बहन जी आप चिंता न करना भैया जल्दी ठीक हो जाएंगे , पिछले महीने का साढ़े चार हजार बाकी है थोड़ा जल्दी कर देना फिर इस महीने भी तो राशन लेना ही है । भाभी जी, वो आज तो मैं ला नहीं पाई कल आपको जरूर सब्जियां दे जाऊंगी एक साथ सप्ताह भर की । पिछला जोड़कर यही कोई पंद्रह सौ है बाकी, बस । सब्जी वाली केशर ने अपनापन दिखाते हुए कौशल्या को सिर्फ बताया था । सामने मालीराम चुप खड़ा था । कुछ कहता इससे पहले ही कौशल्या ने उनको बोला, भैया आपका ढाई हजार बाकी है। अभी जल्दी कर दूंगी और हां कल से दूध आधा लीटर ही कर देना । अभी कुछ तंगी से निकल जाऊं ।
एक एक कर सभी हितैषी रवाना होते जा रहे थे। कौशल्या भी अंदर आने के लिए पीछे मुड़ती है । अधखुले दरवाजे से उनकी बड़ी बेटी झांकती हुई सब देख सुन रही थी । कौशल्या ने देखा बेटी हाथ में कुछ लिए पीछे छुपा रही है । क्या है बेटा दिखाओ । नहीं मम्मी कुछ नहीं । जोर देते हुए कौशल्या कागज की पर्ची को उस से छीन लेती है । स्कूल का नोटिस बारह हजार फीस के लिए और एक सप्ताह के अंदर जमा करना है ।
हाथ में पर्ची को दबाए कौशल्या रसोई को बढ़ती है। देवदत्त के शब्द कानों तक आते है । देख कौशल्या हम कितने अच्छे लोगों के बीच रहते है जरा सी मुसीबत आई। सारे के सारे दौड़े चले आए मिलने को । पलट कर वो एक मुस्कान देवदत्त को देती हुई , हां हम बहुत खुशकिस्मत है सभी मददगार है कहती हुई रसोई में बढ़ जाती है।
बेटी रजनी रसोई में मां की मदद कर रही है सर झुकाए कुछ बर्तनों पर साबुन लगाते हुए । मां , आप कैसे रख लेती हो सब को खुश ? कैसे सब कुछ सह कर चुप मुस्कुराती रहती हो ? कैसे सब सहज सम्भाल लेती हो ? क्या जीवन ऐसा ही होता है ? एक औरत का जीवन ?
कौशल्या निरुत्तर रोटी बनाने में व्यस्त है ।
रजनी को उसके सवाल के जवाब मिल गए थे शायद ?

— सूर्यपाल नामदेव “चंचल”

Suryapal Namdev

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