
!! “कल्प सम्वाद कुंज : गाँवों का नगरीकरण : विकास या विनाश”.!!
- Radha Shri Sharma
- 06/08/2024
- लेख
- कल्प सम्वाद
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!! “गाँवों का नगरीकरण : विकास या विनाश” !!
!! “गाँवों में बसता शहर” !!
राधे राधे,
अभी कुछ दिन पहले हम एक कहानी पढ रहे थे। कहानी में गाँव का परिप्रेक्ष्य था। पढते-पढते सोचने लगे कि आजकल गाँव, गाँव जैसे कहाँ रह गये हैं। गाँवों का तो कब का शहरीकरण हो गया। सोचते-सोचते हम अपने बचपन में जा पहुँचे। जब हम कूएँ से पानी खींच कर पशुओं को पानी पिलाते और नहलाते थे। साथ में खुद भी अपने ऊपर दो बाल्टी पानी डाल ही लिया करते थे।
खेतों पर जाते हुए किसी के खेत से कभी चने का साग खाया तो किसी खेत से सरसों की डाकल तोड कर खा ली। किसी के खेत की मेड पर मूली देखी तो दो तीन मूलियां उदरस्थ हो ही जाती थीं। यदि कोई मीठे गन्ने का खेत दिख गया तो स्वाभाविक है कि रास्ते में हम गन्ने चोंखते हुए जाते दिखाई देंगे।
घरों में कोई किसी की भी रसोईघर में भोजन कर लेता था। कहीं भी किसी भी प्रकार का कोई भेद नहीं। पहनावे का देखो तो बाल वृंद अपने अलग ही मुद्रा में दिखेंगे। उनमें लडकी लडके का भेद नहीं दिखता था। जैसे ही थोडे बडे हुए सबके वस्त्रों से मर्यादा झाँकने लगती थी। वही उनके बडे होने की पहचान हुआ करती थी।
आज ये सब कहाँ है? कहीं भी तो दिखाई नहीं देता। पहनावे से लेकर रहन-सहन सब कुछ बदल गया। आँगन में लगे विशाल वृक्ष कब के परलोकवासी हो गये। अब हॉल और ड्रॉइंग रूम हैं, न तो बैठक है और न ही आँगन। अब सबके अपने-अपने बेडरूम और एसी हैं। छत पर खाट बिछा कर सोने का दौर चला गया। प्राकृतिक हवा और वृक्षों की छांव का ढब बिसर गया।
हाँ, बचे खुचे खेतों में ट्यूबवेल दिख जाते हैं। खेत भी बँट-बँट कर छोटे हो गये हैं। खेतों की भाँति उनके मन भी बँट कर छोटे हो गये हैं। पहले जहाँ खेतों में कभी बथुआ तोडने वाली स्त्रियों और लडकियों के झुंड दिख जाते थे अब नहीं दिखते। तीज त्योहारों में जो धूम मचती थी, गाँव में सभी लडकियाँ अपनी अपनी ससुराल से आकर धमा-चौकड़ी मचाती हुई सारे गाँव में मेला सा लगा कर रखती थीं, कहीं नाच गाना तो कहीं ससुराल की बातें। कहीं सास जेठानी के गीतों पर झूमती तो कहीं मल्हार राग पर झूलती और ठुमकती नयी नवेली कमनियां।
गाँवों में एक बात बहुत अच्छी हुई है। गाँवों का शिक्षा स्तर सुधर रहा है। गाँवों की स्त्रियाँ भी पुरुषों की भाँति अर्थोपार्जन कर रहीं हैं। छतों पर बडे बडे सोलर सिस्टम दिखने लगे हैं। जिससे लगता है कि गाँव भी प्रगति कर रहे हैं। विज्ञान के उपकरणों को अपना कर अपने कार्य और कार्यप्रणाली को सहज और सरल बना रहे हैं।
इतना भर पर्याप्त नहीं है, अब गाँवों में बडी-बडी और ऊँची-ऊँची बिल्डिंगे दिखाई देने लगी हैं, जिनके कारण वहां घर आँगन से परे फ्लैट व्यवस्था आ गई है। पडोस तो पराया हो ही गया, जान पहचान भी एक दूसरे से न के बराबर ही होती है। खुले के नाम पर मात्र एक बालकनी होती है। ग्रामीण बच्चियाँ भी अब शहरों की देखा देखी कम और मर्यादाहीन वस्त्र पहनने लगे हैं। ये शहरों का प्रभाव है या तथाकथित चल चित्रों का, कह नहीं सकते। किन्तु हाँ, कुलाचार और कुल मर्यादा तो नष्ट प्रायः हो चुके हैं। विकास के नाम पर दूषित भाषा, अपवित्र जिव्हा एवं आचरण, मर्यादाहीन वस्त्र एवं बोली और अशिष्टता सामान्य व्यवहार में देखने को मिलता है।
परिवर्तन और विकास के नाम पर फूहड़ता उन्नति नहीं अवनति का परिचायक है। अतः हमारे अनुसार तो विकास कम और विनाश अधिक हुआ है।
इसी के साथ अब हम आप सभी से विदा चाहेंगे। कुछ और विचारों के साथ आप सभी से पुनः भेंट होगी।
राधे राधे 🙏 🌷 🙏
!! “इति श्री” !!
✍🏻 राधा श्री
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