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घर वापसी

शीर्षक: घर वापसी

पिता सोच रहा है,
खुश हूं इस बात पर
कि बेटा लौट आया है ,
उसके पास ।
या मनाऊं मातम ,
कि सपनों का खून कर
लौटा है घर वापस ।

माटी के आंचल में रोने को,
शायद टूट कर ।
क्योंकि शहरों की सड़कों पर ,
कहां है वह गांव की मिट्टी की सी नमी ?
जहां ना रोने को कोई कंधा ही है,
और ना ही है आंसुओं की कोई कमी ।

जब गया था शहर को
नौकरी की तलाश में,
पिता बहुत रोया था छुपकर ।
जैसे खड़ी फ़सल हो गई हो तबाह,
बे मौसमी मार से ।

पर ये सोचकर कि करेगा तरक्की,
और आयेगा एक दिन
जब मिलने पिता को ।
तो जैसे गांवों का बनिया,
वसूल रहा था ब्याज कठोरता से ।
उसी कठोरता से बसूलेगा मोल वे भी,
अपनी भावनाओं का जो बह गईं ।

बेटा कहेगा वापस जाना है,
प्रगति की राह पर ।
और बाप दे देगा ,
सारी जमीन खुशी-खुशी
उसे लिखकर ।
पर बेटे का लौटना,
पिता को बिलकुल वैसा ही लगा ।
जैसा विदाई के बाद भी लौट आना हो,
बेटी का वापस मायके ।

पर फिर भी वे खुश है,
कि बेटा आ गया वापस
बिना कफन के जीवित ।
ना मानी हार और शर्माया नहीं,
हमें अपना मानकर ।
उसे लगा जैसे,
जमीन (बेटा) तो है अब भी,
उसके पास ।
फिर करेंगे मेहनत,
फिर लहलहाएगी फ़सलें,
कभी न कभी ।

—दीपक कुमार वशिष्ठ , मथुरा, उत्तरप्रदेश

Deepak Kumar Vasishtha

One Reply to “घर वापसी”

  • पवनेश

    वैचारिक स्तर पर समृद्ध सृजन, बहुत बहुत बधाई, राधे राधे 🙏🌹🙏,

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