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“!! छत्रपति संभाजी महाराज शम्भूजी राजे !!”

राधे राधे,

             कल्प संवादकुंज के वर्तमान विषय एवं महावीर बलिदानी छत्रपति संभाजी महाराज शम्भूजी राजे को उनकी पुण्यतिथि पर वंदन करते हुए कहना चाहते हैं।

“धर्मध्वजा सम पौरुषी, निडर हृदय बलवान।

छावा वीर शिवाजी का, सिखा गया स्वाभिमान॥”

 

       मित्रों,

             भारत के गौरवशाली इतिहास में छत्रपति संभाजी महाराज का जीवन स्वर्णाक्षरों में अंकित है। वे केवल मराठा साम्राज्य के उत्तराधिकारी ही नहीं थे, अपितु धर्म-संस्कृति और राष्ट्ररक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले अमर बलिदानी थे। उनका जीवन वीरता, कर्तव्यपरायणता और आत्मगौरव का अनुपम उदाहरण है।

 

       साथियों, 

                 छत्रपति शिवाजी महाराज के ज्येष्ठ पुत्र संभाजी महाराज का जन्म 14 मई, 1657 को हुआ। बचपन से ही वे बुद्धिमान, तेजस्वी और विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। मात्र 14 वर्ष की आयु में उन्होंने बुधभूषणम् (संस्कृत), नायिकाभेद, सातसतक (हिंदी), और नखशिख जैसे ग्रंथों की रचना कर अपने अद्भुत ज्ञान का परिचय दिया। वे संस्कृत, मराठी, हिंदी, फारसी, कन्नड़ एवं अंग्रेज़ी भाषा के गहन ज्ञाता थे।

“बाल्यकाल में शास्त्रधारी, लेखनी जिनकी थी प्रखर।

तेज कलम औ’ तेज तलक, दोनों उनके हुए अमर॥”

 

          दोस्तों, 

                  4 अप्रैल, 1680 को शिवाजी महाराज के निधन के पश्चात उनकी पत्नी सूर्याबाई ने अपने पुत्र राजाराम का राज्याभिषेक कर दिया, किंतु संभाजी महाराज ने साहस और पराक्रम का परिचय देते हुए 30 जुलाई, 1680 को रायगढ़ पर अधिकार कर स्वयं को छत्रपति घोषित किया। उन्होंने नीलोपंत को पेशवा नियुक्त कर राज्य की बागडोर संभाली।

 

         भाईयों, 

                   संभाजी महाराज केवल योद्धा ही नहीं, बल्कि एक दूरदर्शी शासक भी थे। उन्होंने ईसाई मिशनरियों द्वारा जबरन धर्म परिवर्तन का कठोर विरोध किया। अंग्रेजों के साथ हुए समझौते में उन्होंने यह शर्त रखी कि उनके राज्य में किसी व्यक्ति को ग़ुलाम बनाने अथवा ईसाई धर्म में परिवर्तित करने की अनुमति नहीं दी जाएगी। उन्होंने शुद्धिकरण के लिए एक विशेष विभाग स्थापित किया, जिससे जबरन मुसलमान बनाए गए हिंदुओं को पुनः उनके धर्म में शामिल किया जा सके।

 

        बहिनों,

                 संभाजी महाराज ने औरंगजेब की आठ लाख सैनिकों वाली विशाल सेना का साहसपूर्वक सामना किया। 24 से 32 वर्ष की आयु तक वे निरंतर युद्ध करते रहे और एक बार भी पराजित नहीं हुए। उनकी वीरता और रणनीतिक कुशलता के कारण औरंगजेब को दक्षिण में 27 वर्षों तक जूझना पड़ा, जिससे उत्तर भारत में हिंदू शक्तियों को संगठित होने का अवसर मिला।

“पिता समान थे दृढ़ संकल्पित, वीर संभु बलशाल।

सिंह समर में शौर्यधार, जो थे रणभेरी के लाल॥”

    बन्धुओं,

                     पुर्तग़ालियों की बढ़ती गतिविधियों को नियंत्रित करने हेतु संभाजी महाराज ने ‘मर्दनगढ़’ पर आक्रमण कर उन्हें पराजित किया। इस युद्ध में वृद्ध सेनानी येसाजी कंक एवं उनके पुत्र कृष्णाजी ने अद्भुत पराक्रम दिखाते हुए पुर्तग़ालियों को परास्त किया। कहा जाता है कि संभाजी महाराज के बहनोई गणोजी शिर्के की बेईमानी के कारण उन्हें 1 फ़रवरी 1689 को संगमेश्वर में मुग़ल सेनापति मुक़र्रब ख़ाँ ने धोखे से पकड़ लिया। इस तरह अपनों के विश्वासघात के कारण ही वह पराक्रमी योद्धा शत्रुओं के हाथ आ गया।

 संभाजी राजे पर ना चल सकी, मुगलों की कोई चाल।गणोजी के विश्वासघात से, फंस गए घातक जाल।।”

  भगिनियों,

        औरंगजेब ने शंभूराजे को बंदी बनाकर उनसे इस्लाम स्वीकार करने का प्रस्ताव रखा, किंतु धर्मनिष्ठ संभाजी महाराज ने इसे ठुकरा दिया। परिणामस्वरूप उन्हें अमानवीय यातनाएं दी गईं। उनकी आंखों में गरम सलाखें फेरी गईं, जिह्वा काटी गई, और शरीर के अंग-प्रत्यंग को क्षत-विक्षत कर दिया गया। इस हृदयविदारक यातना के पश्चात 11 मार्च, 1689 फाल्गुन अमावस्या के दिन वह सिंह शावक धर्म पर बलिदान हो गए। उनका मस्तक भाले पर लटकाकर अपमानित किया गया, किंतु उस सिंहनाद को दबाया न जा सका, जिसने मराठाओं के स्वाभिमान को जागृत कर दिया।

“जीभ कटी, लोचन जले, छेदा अंग प्रत्यंग।

झुका सके न शौर्य को, जीती हार गया औरंग॥”

    मेरे देशवासियों,

                      संभाजी महाराज का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उनके बलिदान से महाराष्ट्र में क्रांति की ज्वाला भड़क उठी। मराठाओं ने ‘घर-घर किला, पत्ते-पत्ते तलवार’ के संकल्प के साथ औरंगजेब के विरुद्ध युद्ध का बिगुल फूंका। इसी के परिणामस्वरूप 27 वर्षों के निरंतर संघर्ष के पश्चात मुग़ल साम्राज्य का अंत हुआ और हिंदवी स्वराज्य का भगवा ध्वज लहराया।

            अपने विचारों को विराम देने के साथ पुनः छत्रपति संभाजी महाराज को नमन करते हुए हम यही कहना चाहते हैं कि छत्रपति संभाजी महाराज का जीवन केवल वीरता और बलिदान की गाथा नहीं, बल्कि स्वाभिमान, धर्मनिष्ठा एवं राष्ट्रभक्ति का प्रेरणास्रोत है। उनका अदम्य साहस, त्याग और बलिदान युगों-युगों तक भारतवर्ष के हृदय में अमर रहेगा। वे एक ऐसे नायक थे, जिनके पराक्रम की गूंज आज भी भारतभूमि को गौरवांवित करती है।

“धर्मवीर संभु बलि चढ़े, हिन्दुत्व के उत्थान।

शिवपुत्र का रक्त बना, स्वराज्य की पहचान॥”

 

धर्मवीर संभाजी महाराज अमर रहें!

पवनेश

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