प्रकृति की आहट
- Suryapal Namdev
- 15/10/2025
- काव्य
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आधुनिकता के मोहपाश में इंसान जकड़ रहा है,
दूर ग्रह को छूने की चाहत में पृथ्वी पर अकड़ रहा है ।
कुछ विध्वंसक नवसृजन की खातिर श्रृष्टि का वेश बदल रहा है,
आपदाओं के आगोश में नहीं प्रकृति का मौन संदेश समझ रहा है ।
पर्वत काटे, बहती धारा नदियों की रोक रहा है,
खनिज नीर तेल की खातिर धरती को हरदिन खोद रहा है ।
फटती धरती, हिमखंड दरकते रूप रौद्र आवेश बदल रहा है,
बेढंग विकाश की दौड़ में नहीं प्रकृति का मौन संदेश समझ रहा है ।
बादल की बारिश का रुख बेमौसम मोड़ रहा है,
बह जाता जीवन पल में सैलाब बेखौफ तटबंध तोड़ रहा है ।
पानी सा पानी का हिस्सा पानी को इंसान आज तरस रहा है,
दौलत शोहरत में डूबा है नहीं प्रकृति का मौन संदेश समझ रहा है ।
वायु प्राणों की मिली मुफ्त में क्या मोल तौल रहा है,
छद्म नशीली गंधों की मदहोशी में धुआं जहर सा घोल रहा है ।
कटते वृक्ष सिमटती सांसे जलता ताप सूरज से बरस रहा है,
लेख विनाश का लिखने वाला वाला नहीं प्रकृति का मौन संदेश समझ रहा है ।
सूर्यपाल नामदेव “चंचल”
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