
प्रतीक
- Deepak Kumar Vasishtha
- 18/04/2024
- काव्य
- कविता, प्रतीक, मां, स्त्री, स्त्री विमर्श, हिन्दी
- 1 Comment
शीर्षक: प्रतीक ।
चर्चा का विषय रहा है,
औरत का विधवा होना,
टूटना चूड़ियों का, मांग का सुना होना ।
कहते है…
पुरुष ने क्या पुण्य किया,
विधुर होने पर भी ,
पत्नी को क्या दिया ?
घड़ी, ऐनक या हुक्का,
कोई प्रतीक
तो पुरुष के लिए होते,
तोड़कर जिन्हें..
विधुर होने का प्रमाण देते ।
पर टूट गया जिसका जग सारा,
और छूट गया गृहस्थी का सहारा ,
जिसके जाने से टूट गए सारे सपने
उसे क्या है जरूरत कुछ
तोड़ने की ।
स्त्री प्रतीक होती है
पिता की इज्जत की,
और होती है धरोहर माता की,
पति की वो साथी होती है,
बच्चों की होती है शिक्षक सी ।
प्रतीक होती है स्त्री,
समाज के चेहरे की,
और होती है पहचान वे अपने
माता-पिता,पति, बच्चों और
सभी की ।
कारण यही है कि वे बन जाती है
प्रतीक,
इसलिए उसके विधवा होने पर
प्रतीक स्वरूप चूड़ियों, और मांग के सिंदूर का त्याग
गलत नही, शायद उसके लिए ।
जो बंधा हो प्रतीकों से,
उसे अपने भावों को भी व्यक्त करने के लिए
होती है जरूरत प्रतीकों की ।
लेकिन पुरुष कभी नही बंधा ,
स्त्री की तरह
पुरुष रहा सैलाब सा अस्थिर ,
और…
स्त्री रही सदैव नदी-सी निर्झर,
बंधी हुई,
तट की सीमा में बहती ।
जानना है क्या है सच
तो तटस्थ रहकर कुछ सोचो,
ना बनाओ स्त्री को प्रतीक ,
जीवन भर उसे इस तरह ना नोचों।
देखो दूसरों की नजर से स्वयं को
औरों को अपनी नजर से देखो ।
जानों सभी के भावों को
समाज को स्त्री- पुरुष के खांचों में ना खींचो ।
—दीपक कुमार वशिष्ठ
One Reply to “प्रतीक”
Leave A Comment
You must be logged in to post a comment.
पवनेश
जानों सभी के भावों को, समाज को, स्त्री पुरुष के खांचों में न खींचें।
वैचारिक रूप से समृद्ध लेखन, राधे राधे 🙏🌹🙏,