
“माखन लीलामृतम्”
ब्रजन गली गावत सदा, कान्हा लील रसाल। मटकी फोरी प्रेम में, नित हर्षे नन्दलाल॥
नटवर नागर छवि लसे, लटकि लटकै जन गात। चैन चुराए बसी गयो हंसी हंसी माखन खात।।”
प्रात सवेरै ब्रज की बानी। सुनि सुनि हर्षण मानै प्रानी।।
रुनझुन पग धरि आवत कान्हा। गोपिन मन अति अनुमाना।।
मटकी ऊपर बँधी गोसाईं। भीतर माखन बरबस छाईं।।
देखत बालक मोह बिसारैं। बाँस चढ़त जब क्रीड़ा धारैं।।
बलदाऊ हाथ बाँस सँभारैं। कृष्णा ऊपर लीला विचारैं।।
लटकि झूल मटकिन ते पावैं। माखन अँगुरी लीयै चावैं।।
गोपिन दौड़ दौड़ चित चढ़ाईं। लाठी लै रस मचरी आईं।।
कोउ कहै अरे चोर नन्दन!। कोउ कहै बिहसे मधुसूदन।।
कृष्ण हँसी दै कहैं मधुरवा।गोपिन! प्रेम की ई मुरवा।।
माखन नाहीं चुराइत होई। नेह हृदय तें लइ जावत सोई।।
कहैं बलदाऊ हम रक्षा करीं। काहे दोष मोरे पर धरि।।
कृष्णहिं मोद लागि जो भाय। ता पर मइया क्रोध न लाय।।
ललिता चितवन कड़क सुनावै। “कान्हा! सुधि तोहार मिटावै।।”
रोजै मटकी फोरै छोरी। कहौं हम अब न चलै चोरी।।
राधा चुपचाप देखि ठाढ़ी। आँखिन पानी, अधरन वाणी।। कृष्णहि निहारि कहै मृदुभावा। का चोरी मोरे उर छावा।।”
कृष्ण नयन नीच कइ कहवें। राधे! प्रेम कहाँ बोली रहिवें।।
मटकी दरारन में जो छिपरा, ओही नेह तें हौं अब बिपरा।।
गोपिन सुनि सब गात लजाईं। कोउ मुसुकाईं, कोउ मुँह छाईं।। यशोदा आई सूप उठाय। क्रोध भरे रुखु लै लपटाय।।
सूप धरि आई जसुमति, भृकुटि तानि बोलैं लाल सौं।
“माखन खात लजावत मोहि, का कहब नन्दलाल तोही।।
कृष्ण ललकि कहँ मातु सियानी, “मटकी आप पुकारै रानी।”
“जाय न मोरे मन बिनु देखे, माखन माँगे मृदु मृदु वाणी।”
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