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“मानवाधिकार – जीवन का सम्मान”

 

कल्पकथा परिवार के सभी सम्मानित सदस्यों को राधे राधे,

     कल्प संवादकुंज श्रृंखला में वर्तमान विषय मानवाधिकार जीवन का सम्मान पर विचार रखने के पूर्व हम स्पष्ट करना चाहते हैं कि मानवाधिकार मानव जीवन की उन मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपल्ब्ध करवाए गए मौलिक, एवं अनिवार्य संसाधन हैं जिनके अभाव में जीवन अथवा मानवीय निजता सुरक्षित नहीं रह सकती। 

   मित्रों, 

      लगभग पांच सदी पहले तक पृथ्वी के बड़े भू भाग पर कुछ लोगों के लिए जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति यथा भोजन, जल, नींद, वस्त्र, इत्यादि प्राप्त करना भी मुश्किल था, राजमद और सत्ता के अहंकार में चूर कुछ अत्याचारी मानवों को कीड़े – मकोड़ों से अधिक नहीं समझते थे। 

   साथियों, 

       औद्योगिक क्रांति के पूर्व कुछ यूरोपियन देशों में कर के रुप में मानव रक्त तक लिया जाने लगा था। लंबे समय तक तक एशिया के कुछ भाग में बिना भुगतान किए मजदूरों से जबरन बेगार करवाना आम बात थी। अफ्रीकन देशाें में धार्मिक मान्यताओं के नाम पर सामाजिक उत्पीड़न की दास्तानें भी बहुत पुरानी नहीं है। धन के बदले स्वर्ग और नर्क जाने, पाप को क्षमा करवाने, की विकृत पद्धति भी समाज ने लंबे समय तक देखी है।

   दोस्तों,

        जिस पल स्वार्थ में अंधा होकर मानव का दानव बनना शुरू हो गया, ठीक उसी पल से सामान्य मानवीय के लिए उन न्यूनतम मानवाधिकारों की आवश्यकता ने जन्म लिया जिनके आसरे एक मानव कम से कम आत्म सम्मान का जीवन तो जी सके। वर्ष १९४७ में इसी मूलभूत बिंदु को पूरा करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग का गठन किया। भारत में मानवाधिकार आयोग 1993 में स्वतंत्र आकार ले सका। 

    बन्धुओं,

       मानवाधिकारों की सूची में, जीवन, स्वतंत्रता, और सुरक्षा का अधिकार दिया गया, तो गुलामी और अत्याचार पर रोक लगाने की वकालत भी की गई। जहां शुरुआत में निजता और पारिवारिक जीवन का अधिकार दिया गया, वहीं बाद में अभिव्यक्ति और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को भी जोड दिया गया, निष्पक्ष न्याय, आंदोलन की स्वतंत्रता, सभा और संघ संचालित करने की स्वतंत्रता, जैसे कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदु है जो सामान्य मानवीय संवेदनाओं को सम्मान देने के साथ निजत्व की रक्षा के प्रति, वैश्विक स्तर पर सरकारों, और समाज, को वचनबद्ध करती हैं। 

   भग्नियों,

         कुछ वर्ष पहले तक विचारकों ने सार्वजनिक व निजी जीवन में बढ़ते मशीनी उपयोग को तर्किक आधार पर मानव के कार्य (रोजगार) से जोड़कर आशंका जताई थी कि इससे मानव संसाधन पर मशीनी संसाधन, तकनीकी संसाधन, भारी पड़ेगा जिससे समाज बेरोजगारी, भुखमरी, समेत अपराध बढ़ेंगे। उसी दृष्टिकोण को ध्यान रखते हुए देखा जाए तो निकट भविष्य में सामान्य जन कार्य करने के अधिकार की भी आवश्यकता होगी। 

    भाइयों- बहनों, 

        आज भले ही मानवाधिकार आयोग और उसके नियमों को प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा जाए, या फिर मानवाधिकारों की उपयोगिता पर सवाल खड़े किए जाएं, अथवा मानवाधिकारों की आड़ में मानवता के रक्तरंजित होने के दावे किए जायें, किंतु सत्य तो यही है कि यही मानवाधिकार हैं जिनके कारण मानव विशेषकर महिलाओं के निजत्व की रक्षा हो रही है। 

    अपने विचारों को विश्राम देने के पूर्व यही कहूंगा कि मानवाधिकार पृथ्वी पर मानवता को संरक्षित करने का संबल हैं इसलिए मानवाधिकारों की आड़ में भेड़ियों को भेड़ बनाकर प्रस्तुत करने का प्रयास तुरंत बंद हो जाना चाहिए। 

पवनेश

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