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“रंगों की होली”

०१) फागुन आई रंग घुले, चहुं ओर गुनगान।

प्रकृति हरी मुस्कान से, हर्षित है इंसान।।

 

फागुन मास मधुर बयारी, खिल उठे फूलन की क्यारी।

कोयल कुहुक रही तरु डाली, सुरभित बगिया, हर्ष निराली।

 

वन-उपवन में रंग बिखेरे, सरसों फूली, खेत सवारे।

केसरिया पट ओढ़ी धरणी, पीत धरा ज्यों शृंगारिणी।

 

हवा में घुली गुलाल सुहानी, रस की फुहार, मचलती रानी।

रंग-बिरंगे अबीर के छींटे, मन अनुरागी, मुख पर मीठे।

 

बाल, वृद्ध, नर-नारी सारे, आनंद लहरि में होंगें प्यारे।

उल्लास भरे ये रंग सजीले, भक्ति-सुधा के पुष्प रचीले।

 

भक्ति-भाव का रंग निराला, स्मरण करें नृसिंह कृपाला।

प्रह्लाद की सजीव कहानी, धर्म विजय का गुण सब मानी।

 

०२) प्रेम पिचकारी रंग भरी, छलके मन अनुराग।

हर दर्पण में हर्ष छवि, छाया सुख का राग।।

 

समरसता का हो यह प्याला, मिटे भेद हर घर उजियाला।

मलिन हृदय से बैर हटाएं, नेह सुधा के रंग चढ़ाएं।

 

मिलकर गायें मंगल गीता, रंगोत्सव यूं सजे पुनीता।

उड़े गुलाल नभ के आंगन में, फागुन उत्सव जन कानन में।

 

ग्वाल-बाल संग श्याम पधारे, गोपिन संग रस बरसे फुहारें।

राधा संग छलकाए रंग, गूंजे प्रेम के मृदुल प्रसंगा।

 

अबीर बिखेरे हास-परिहासा, रंग में भीगे प्रेम की आशा।

कहीं ठिठोली कहीं ठिठकना, हास्य-व्यंग्य की होली रसना।

 

०३) मंगलमय यह फागुन आयो, भर दे रंग अनूप।

हर आंगन में खुशी बरसती, हर मन कान्हा रूप।।

 

धर्म-संस्कृति का अनुपम मेला, भक्ति रस शुभ मंगल बेला।

होलिका दहन सत्य का गाना, अधर्म मिटा, धर्म का ठिकाना।

 

प्रकृति सजे नव रंग समर्पण, हरियाली में खिले समर्पण।

पुष्प खिले नव चेतन जागे, सजी प्रकृति, जीवन अनुरागे।

 

वृक्ष-पुष्प सब इठलाते हैं, धरती माता मुस्काते हैं।

सुरभित वातावरण में झूमें, प्रेम सुधा के मोती चूमें।

 

मधुमास आए भर रसधारा, मन में उमगे सुख की फुहारा।

होलिका दहन से सीख यही, सत्य अमर है, विपदा बही।

 

०४) होली के ये रंग हैं, खुशियों के संवाद।

नेह गुलाल में भीगिए, बढ़ता प्रेम-प्रसाद।।

पवनेश

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