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!! “साप्ताहिक आमंत्रण : कल्प/नवम्बर/2024/द” !!

!! “कल्प साप्ताहिक आमंत्रण : कल्प/नवम्बर/2024/द” !! 

 

विशिष्ट आमंत्रण क्रमांक : !! “कल्प/नवम्बर/2024/द” !! 

 

विषय : !! “मेरे प्रिय कवि” !! 

 

विधा : !! “लेख” !! 

 

शीर्षक :- !! “मेरे प्रिय कविगण” !! 

 

मेरे प्रिय कवि….. पढने सुनने में कितना मनोहर लगता है। किन्तु असमंजस ये है कि कितने सारे कवि कितना सुन्दर लिखते हैं। उनकी कलम से निकला एक एक शब्द मानो सहज ही हृदय में प्रवेश करता चला जाता है और हम मंत्रमुग्ध से उस रौ में बहते चले जाते हैं, जहाँ कवि सोचता है, जो भाव लिखता है, जिन रसों को काव्य धारा में प्रवाहित करके हमारे मन मस्तिष्क से सोता बहाता हृदय में प्रवेश कर जाता है। कवि के भाव अनेक रूपों में, अनेक रसों के माध्यम से हमें अभिभूत कर देते हैं, हमारे प्रेरणास्रोत बन जाते हैं। उनकी कवितायें कभी अवसाद में मित्र बन जाती हैं तो कभी मझधार में नाव। ऐसे में किसी एक का चुनाव कितना कठिन है? 

 

अतः बहुत विचार करने पर हमने निर्णय लिया कि हम उन सभी कवियों के बारे में लिखेंगे, जिनसे हमने बहुत कुछ सीखा है। जैसे माखन लाल चतुर्वेदी जी की बालपन में पढी कविता “पुष्प की अभिलाषा”, बचपन से ही देशभक्ति की एक निर्मल धारा हृदय में प्रवाहित करने में पूर्ण रूप से समर्थ है। आगे बढे तो सुमित्रानंदन पंत जी की “ठुकरा दो या प्यार करो” के माध्यम से मन में भक्ति रस की पावन धारा स्वमेव ही बह निकलती है। 

 

           काका हाथरसी की वो कुंडलियां, जिनमें जीवन का सार छुपा है। कब और किस समय, किस परिस्थिति में मनुष्य को कैसा व्यवहार करना चाहिए समझाती हुई ये दो कुंडलियां 1. “नीकी पे फीकी लगे, बिन अवसर की बात।” और 2. “फीकी पे नीकी लगे अवसर परे की बात।”। लाठी के गुण काका हाथरसी ने समझाये। और भी जाने कितने अवसरों पर कितनी कुंडलियां। 

 

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की रचनाओं का तो कहना ही क्या? जब वो कहते हैं “जिसकी रज में लोट-लोट कर बडे हुए हैं। घुटनों के बल सरक-सरक कर खडे हुए हैं।” तब अपनी मातृभूमि की माटी से प्रेम हो जाता है। जब वो कहते हैं… 

 

“श्री कृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्रोध से जलने लगे। 

सब शोक अपना भूलकर करतल युगल मलने लगे॥ 

उस काल मारे क्रोध के तनु काँपने उनका लगा। 

मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा॥”

 

पढकर आवेग की ज्वालायें भड़क उठती हैं। उस समय ऐसे लगता है कि यदि इस समय हमारे समक्ष भी जयद्रथ आ जाये, तो हम भी उसका सिर धड़ से पृथक कर दें। उनमें प्रयुक्त पँक्तियाँ “सोता हुआ सागर जगा” से अर्जुन के क्रोध का विचार करके एक क्षण को स्वयं काल भी भय से थर्रा उठे होंगे। 

 

“लोहे के पेड हरे होंगे, तू गान प्रेम के गाता चल। 

नम होगी मिट्टी जरूर आँसू के कण छितराता चल॥”

 

“वह प्रदीप जो दीख रहा है, झिलमिल दूर नहीं है।

 थक कर बैठ गए क्या भाई, मंजिल दूर नहीं है॥”

 

       कविताओं का पाठ जब दिनकर जी ने किया होगा, तब निश्चित ही प्रत्येक दृग अश्रुधारा से लबालब होगा। कपोलों पर सरित प्रवाह बहुत समय तक चिन्हित रहा होगा। आज भी जब इन्हें पढते हैं मन एकदम से मन्त्रमुग्ध हो जाता है। नवचेतना से परिपूर्ण हो उल्लास से भर जाता है। अवसाद कहीं पीछे छूट जाता है। वहीं जब उन्हीं की लिखी इस विशेष वर्णो से सजी, सुन्दर अलंकारों से सज्जित वीर रस से सराबोर करती हुई…… 

 

“‘दो न्याय अगर तो आधा दो,

पर, इसमें भी यदि बाधा हो,

तो दे दो केवल पाँच ग्राम,

रक्खो अपनी धरती तमाम।

हम वहीं खुशी से खायेंगे,

परिजन पर असि न उठायेंगे!

 

दुर्योधन वह भी दे ना सका,

आशीष समाज की ले न सका,

उलटे, हरि को बाँधने चला,

जो था असाध्य, साधने चला।

जब नाश मनुज पर छाता है,

पहले विवेक मर जाता है।

 

हरि ने भीषण हुंकार किया,

अपना स्वरूप-विस्तार किया,

डगमग-डगमग दिग्गज डोले,

भगवान् कुपित होकर बोले-

‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,

हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

 

यह देख, गगन मुझमें लय है,

यह देख, पवन मुझमें लय है,

मुझमें विलीन झंकार सकल,

मुझमें लय है संसार सकल।

अमरत्व फूलता है मुझमें,

संहार झूलता है मुझमें।

 

‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,

भूमंडल वक्षस्थल विशाल,

भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,

मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।

दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,

सब हैं मेरे मुख के अन्दर।

 

‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,

मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,

चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,

नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।

शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,

शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।

 

‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,

शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,

शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,

शत कोटि दण्डधर लोकपाल।

जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,

हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।”

 

जब इन पन्क्तियों को पढते हैं तब श्री हरि के उस विस्तारित स्वरुप को देखने के लिए स्वयं ही चक्षु विस्फारित हो जाते हैं। इतना सुन्दर वर्णन मानो कई ब्रह्मांड मिलकर एक हो गये हों, इस अनुपम और अमर कृति की क्या कोई तुलना हो सकती है। सम्भव ही नहीं है। 

 

“निर्झर के निर्मल जल में ये गजरे हिला हिला धोना। 

लहर लहर कर यदि चूमें तो की किञ्चित विचलित मत होना॥” 

 

रामकुमार वर्मा जी ने जब ये पंक्तियाँ लिखी होंगी, तब क्या भाव रहे होंगे उनके हृदय में? निश्चित ही एक नई आशा जगाने की ललक रही होगी। फिर क्यों न इन्हें नमन करें? 

 

“हमने रचा आओ हमीं अब तोड़ दें इस प्यार को।

यह क्या मिलन, मिलना वही जो मोड़ दे मँझधार को।

जो साथ फूलों के चले,

जो ढाल पाते ही ढले,

वह जिन्दगी क्या जिन्दगी जो सिर्फ पानी सी बही।

सच हम नहीं, सच तुम नहीं।

 

अपने हृदय का सत्य अपने आप हमको खोजना।

अपने नयन का नीर अपने आप हमको पोंछना।

आकाश सुख देगा नहीं

धरती पसीजी है कहीं !

जिससे हृदय को बल मिले है ध्येय अपना तो वही।

सच हम नहीं, सच तुम नहीं।”

 

ऐसी शब्दावली कहाँ मिलती है जो जगदीशचंद्र गुप्त जी की रचनाओं में देखने को मिलती है। यदि इन भावों पर ध्यान दें जीवन के यथार्थ और संघर्षों को दर्शाती है कि वह कोई जीवन है जो मात्र पानी की तरह बह जाये। आकाश सुख नहीं देता, कितना ही रो लो, धरती नहीं पसीजेगी। अतः अपने हृदय को हमें स्वयं ही मजबूत करना होगा। स्पष्ट समझ आता है कितना संघर्षशील जीवन रहा होगा इनका। तभी तो ऐसे भाव प्रस्फुटित हुए। वंदन है इनके चरणों में। 

 

 

प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन करने में श्रीधर पाठक जी का हाथ कौन पकड सकता है? जब वो कहते हैं… 

 

“जेठ के दारुण आतप से तप के जगती जल जावे जला। 

नभ मंडल छाया मरूस्थल सा दल बाँध के अंधड़ आवे चला।।”

 

तब सचमुच ही गर्मी का एहसास होने लगता है। तन झुलसाती भयंकर लू से रोंगटे खडे होने लगते हैं। किन्तु वहीं जब वे भारत माता का वन्दन करते हैं तो शीश स्वयं ही माँ भारती के चरणों में नत हो जाता है। 

 

महादेवी वर्मा जी जब कहती हैं…. 

 

“जो तुम आ जाते एक बार, 

कितनी करूणा कितने संदेश

पथ में बिछ जाते बन पराग

गाता प्राणों का तार तार

अनुराग भरा उन्माद राग

आँसू लेते वे पथ पखार

जो तुम आ जाते एक बार”

 

स्वतः ही हृदय उस विरह वेदना की अनुभूति करने लगता है। मन और प्राण विरह से व्यथित हो जाते हैं। 

 

ऐसे में सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” जी, सुभद्राकुमारी चौहान जी, नागार्जुन जी, को कैसे बिसरा सकते हैं? वहीं जब नरोत्तम दास जी के सुदामा चरित्र को पढते सुनते हैं तो मन दरिद्रता की व्यथा से झुलसा हुआ प्रतीत होता है, जिस पर कृष्ण की कृपा की अमृत वर्षा होती है और दरिद्रता सहज ही भाग खडी होती है। समृद्धि, सुख और ऐश्वर्य के भंडार भर जाते हैं। 

 

ऐसे बेहाल बेवाइन सों पग, कंटक-जाल लगे पुनि जोये।

हाय! महादुख पायो सखा तुम, आये इतै न किते दिन खोये॥

देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये।

पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सौं पग धोये॥”

 

 इन मधुर, मनोहर, मंत्रमुग्ध करती पंक्तियों के साथ हम अपने शब्दों को ये कहते हुए विराम देते हैं कि हमें ये सभी कवि प्रिय हैं। सभी कवियों की श्रेष्ठ कविताओं को समर्पित हमारी ये कविता आप सबके लिए…. 

 

🌷 !! “कविता” !! 🌷 

 

कवित्त बन बहती रही, छंद नदी रसधार में ।

भाव रस से पगी हुई हिय स्पन्दन संसार में।। 

 

कवित्त मुक्तक छंद क्षणिका निर्बाध सरित बह चली। 

लयबद्ध और लयमुक्त कहीं, कहीं छंदमुक्त है पली। 

लहर लहर उछली तरंग छंदयुक्त मधुसार में। 

भाव रस से पगी हुई हिय स्पन्दन संसार में।। 

 

दोहों सम रसना सनी चौपाई चासनी चढी। 

बही मनहरण घणाक्षरी सी विधाता मनु लहर बढी। 

मत्तगयंद बह चले सभी सवैयों की बयार में। 

भाव रस से पगी हुई हिय स्पन्दन संसार में।। 

 

रोला सोरठा उल्टे मुडे, कुंडलियां ले संग में। 

प्रदीप तभी छन छन छनका नर्तक बन हर अंग में। 

श्लेष रूपक यमक उपमा अलंकरण गलहार में। 

भाव रस से पगी हुई हिय स्पन्दन संसार में।। 

 

भक्ति रस निर्झर गिरी, कल कल कल प्रेम रस बही। 

उछाल उठी विरह सी पीर रस रोम रोम रमी। 

उमडे प्रचंड आवेग ले, वीर रस रसधार में। 

भाव रस से पगी हुई हिय स्पन्दन संसार में। 

 

कवित्त बन बहती रही, छंद नदी रसधार में ।

भाव रस से पगी हुई हिय स्पन्दन संसार में।।

 

 

इसी के साथ हम आप सभी से विदा लेते हैं। मिलते हैं शीघ्र ही एक नये लेख के साथ 

राधे राधे 🙏 🌷 🙏 

 

✍🏻 राधा श्री 

 

Radha Shri Sharma

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