
“सुख का रहस्य”
“चटाक क क क क क” अनिमेष के दाहिने गाल पर मां की बाईं हथेली का तमाचा पड़ा तो दो मिनट के लिए उसको लगा कि उसके सामने तारे नाच रहे हैं।
“मां. . . . . . !!” पीड़ा से ज्यादा उसके स्वर में असमंजस था।
“तुझे किसने बोला।” मां की आंखों में क्रोध और अपनापन दोनों थे। “बहू से मुझे कोई तकलीफ है।”
रोज पड़ोस वाली चाची अनिमेष को उसकी मां और पत्नी के घरेलू झगड़े को नमक मिर्च लगाकर सुनाती। जिसके कारण आज वह अपनी पत्नी पर भड़क गया और घर से निकल जाने के लिए कह दिया।
“मां” अनिमेष ने अपनी बात रखने की कोशिश की। “मुझे रोज आप लोगों की तू तू मैं मैं की ख़बर मिलती है।”
“तो।” मां ने क्रोध पर नियंत्रण करने का प्रयास किया। “मैंने तुझे कभी बहू को लेकर कुछ बोला।”
“नहीं।” अनिमेष मां के सवाल पर अचकचा गया।
“बहू ने तुझसे कुछ कहा।” मां ने एक बार फिर प्रश्न किया।
“नहीं।” अनिमेष ने खुद को सम्हालते हुए उत्तर दिया।
“फिर तुझे क्या तकलीफ है?” मां के तेवर अभी भी नरम नहीं हुऐ थे।
“मां, रोज आस पड़ोस में यही सुनता हूं।” अनिमेष ने एक बार फिर अपनी बात रखने की कोशिश की। “यह अच्छा लगता है क्या?”
“हम पूरे दिन घर में रहते हैं।” मां की आवाज अब अपेक्षाकृत धीमी हो गई थी। “आपस में चार बातें होती है कभी कुछ पसंद आता है कभी कुछ पसंद नहीं आता है तो क्या मैं उसको लडाई झगड़ा मान लूं।”
“मां।” अनिमेष ने फिर से कहा। “फिर भी।”
“क्या फिर भी?” मां ने अब अनिमेष को समझाया। “तू क्या चाहता है मैं या मेरी बहू आपस में बात करने के बजाय बाहर वालों के पास अपनी भड़ास निकालने जाएं।”
“नहीं मां।” अनिमेष ने भी वस्तुस्थिति को समझने का प्रयास किया।
“देख बेटा।” मां ने अनिमेष को मूल बात समझाई। “जहां चार बर्तन होते हैं वहां आवाज तो आती है लेकिन उसका मतलब यह तो नहीं होता कि हम लड़ रहे हैं या हम एक दूसरे से अलग हो जाएं।”
अनिमेष चुप रह गया।
“बेटा।” मां की बात अनिमेष के समझ में आने लगी। “हम सास – बहू हों या मां – बेटी एक दूसरे की फिकर होती है तो एक दूसरे से आशा भी होती है। अगर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा तो मैं किसको बोलूंगी पड़ोसियों को, यही बहू के साथ भी है। हम दोनों सास- बहू, आपस में मित्रों की तरह एक दूसरे को कह सुन लेते हैं।”
अनिमेष ने कुछ न बोलकर अपनी पत्नी की तरफ देखा।
“बेटा, यह हमारा आपस का प्रेम और विश्वास है।” मां की बात से बहू भी सहमत नजर आई। “तुम्हारी गृहस्थी के प्रेम और मेरे बुढ़ापे के सामंजस्य का रहस्य है।”
“आप सही कह रही हो मां।” अनिमेष मां की बात समझ चुका था।
“बेटा, मेरी बहू मेरी बेटी है, मेरी सहेली है।” मां के शब्दों ने प्रेम की सूखती घास को पुनः हरा भरा कर दिया। “मेरे सुख ही दुख की साथी है। सच कहूं तो मेरे जीवन के उत्तरार्द्ध के सुख का रहस्य भी यही है।”
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