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 ⚔️ कल्प संवादकुंज:- “छत्रपति संभाजी महाराज (शम्भूजी रहे)” ⚔️

🔮 “साप्ताहिक कल्प संवादकुंज – छत्रपति संभाजी महाराज विशेष” 🔮

 

 ⚔️ कल्प संवादकुंज:- “छत्रपति संभाजी महाराज (शम्भूजी रहे)” ⚔️

 

⏳ “समयावधि: दिनाँक ०५- मार्च-२०२५ बुधवार सायं ६.०० बजे से दिनाँक ११- मार्च-२०२५ मंगलवार मध्य रात्रि १२.०० बजे (भारतीय समयानुसार) तक।” ⏲️

 

🔆 “विधा – लेख (वैचारिक)” 🔆

📝 “भाषा:- हिन्दी (देवनागरी लिपि)” 📝

 

❇️ “विशेष: > छत्रपति संभाजी महाराज शम्भूजी राजे, के शौर्य, समर्पण, और बलिदान, को सम्मान देते आपके विचार।” ❇️

Kalp Samwad Kunj

2 Comments to “ ⚔️ कल्प संवादकुंज:- “छत्रपति संभाजी महाराज (शम्भूजी रहे)” ⚔️”

  • पवनेश

    राधे राधे,
    कल्प संवादकुंज के वर्तमान विषय एवं महावीर बलिदानी छत्रपति संभाजी महाराज शम्भूजी राजे को उनकी पुण्यतिथि पर वंदन करते हुए कहना चाहते हैं।
    “धर्मध्वजा सम पौरुषी, निडर हृदय बलवान।
    छावा वीर शिवाजी का, सिखा गया स्वाभिमान॥”

    मित्रों,
    भारत के गौरवशाली इतिहास में छत्रपति संभाजी महाराज का जीवन स्वर्णाक्षरों में अंकित है। वे केवल मराठा साम्राज्य के उत्तराधिकारी ही नहीं थे, अपितु धर्म-संस्कृति और राष्ट्ररक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले अमर बलिदानी थे। उनका जीवन वीरता, कर्तव्यपरायणता और आत्मगौरव का अनुपम उदाहरण है।

    साथियों,
    छत्रपति शिवाजी महाराज के ज्येष्ठ पुत्र संभाजी महाराज का जन्म 14 मई, 1657 को हुआ। बचपन से ही वे बुद्धिमान, तेजस्वी और विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। मात्र 14 वर्ष की आयु में उन्होंने बुधभूषणम् (संस्कृत), नायिकाभेद, सातसतक (हिंदी), और नखशिख जैसे ग्रंथों की रचना कर अपने अद्भुत ज्ञान का परिचय दिया। वे संस्कृत, मराठी, हिंदी, फारसी, कन्नड़ एवं अंग्रेज़ी भाषा के गहन ज्ञाता थे।
    “बाल्यकाल में शास्त्रधारी, लेखनी जिनकी थी प्रखर।
    तेज कलम औ’ तेज तलक, दोनों उनके हुए अमर॥”

    दोस्तों,
    4 अप्रैल, 1680 को शिवाजी महाराज के निधन के पश्चात उनकी पत्नी सूर्याबाई ने अपने पुत्र राजाराम का राज्याभिषेक कर दिया, किंतु संभाजी महाराज ने साहस और पराक्रम का परिचय देते हुए 30 जुलाई, 1680 को रायगढ़ पर अधिकार कर स्वयं को छत्रपति घोषित किया। उन्होंने नीलोपंत को पेशवा नियुक्त कर राज्य की बागडोर संभाली।

    भाईयों,
    संभाजी महाराज केवल योद्धा ही नहीं, बल्कि एक दूरदर्शी शासक भी थे। उन्होंने ईसाई मिशनरियों द्वारा जबरन धर्म परिवर्तन का कठोर विरोध किया। अंग्रेजों के साथ हुए समझौते में उन्होंने यह शर्त रखी कि उनके राज्य में किसी व्यक्ति को ग़ुलाम बनाने अथवा ईसाई धर्म में परिवर्तित करने की अनुमति नहीं दी जाएगी। उन्होंने शुद्धिकरण के लिए एक विशेष विभाग स्थापित किया, जिससे जबरन मुसलमान बनाए गए हिंदुओं को पुनः उनके धर्म में शामिल किया जा सके।

    बहिनों,
    संभाजी महाराज ने औरंगजेब की आठ लाख सैनिकों वाली विशाल सेना का साहसपूर्वक सामना किया। 24 से 32 वर्ष की आयु तक वे निरंतर युद्ध करते रहे और एक बार भी पराजित नहीं हुए। उनकी वीरता और रणनीतिक कुशलता के कारण औरंगजेब को दक्षिण में 27 वर्षों तक जूझना पड़ा, जिससे उत्तर भारत में हिंदू शक्तियों को संगठित होने का अवसर मिला।
    “पिता समान थे दृढ़ संकल्पित, वीर संभु बलशाल।
    सिंह समर में शौर्यधार, जो थे रणभेरी के लाल॥”

    बन्धुओं,
    पुर्तग़ालियों की बढ़ती गतिविधियों को नियंत्रित करने हेतु संभाजी महाराज ने ‘मर्दनगढ़’ पर आक्रमण कर उन्हें पराजित किया। इस युद्ध में वृद्ध सेनानी येसाजी कंक एवं उनके पुत्र कृष्णाजी ने अद्भुत पराक्रम दिखाते हुए पुर्तग़ालियों को परास्त किया। कहा जाता है कि संभाजी महाराज के बहनोई गणोजी शिर्के की बेईमानी के कारण उन्हें 1 फ़रवरी 1689 को संगमेश्वर में मुग़ल सेनापति मुक़र्रब ख़ाँ ने धोखे से पकड़ लिया। इस तरह अपनों के विश्वासघात के कारण ही वह पराक्रमी योद्धा शत्रुओं के हाथ आ गया।
    संभाजी राजे पर ना चल सकी, मुगलों की कोई चाल।
    गणोजी के विश्वासघात से, फंस गए घातक जाल।।”

    भगिनियों,
    औरंगजेब ने शंभूराजे को बंदी बनाकर उनसे इस्लाम स्वीकार करने का प्रस्ताव रखा, किंतु धर्मनिष्ठ संभाजी महाराज ने इसे ठुकरा दिया। परिणामस्वरूप उन्हें अमानवीय यातनाएं दी गईं। उनकी आंखों में गरम सलाखें फेरी गईं, जिह्वा काटी गई, और शरीर के अंग-प्रत्यंग को क्षत-विक्षत कर दिया गया। इस हृदयविदारक यातना के पश्चात 11 मार्च, 1689 फाल्गुन अमावस्या के दिन वह सिंह शावक धर्म पर बलिदान हो गए। उनका मस्तक भाले पर लटकाकर अपमानित किया गया, किंतु उस सिंहनाद को दबाया न जा सका, जिसने मराठाओं के स्वाभिमान को जागृत कर दिया।
    “जीभ कटी, लोचन जले, छेदा अंग प्रत्यंग।
    झुका सके न शौर्य को, जीती हार गया औरंग॥”

    मेरे देशवासियों,
    संभाजी महाराज का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उनके बलिदान से महाराष्ट्र में क्रांति की ज्वाला भड़क उठी। मराठाओं ने ‘घर-घर किला, पत्ते-पत्ते तलवार’ के संकल्प के साथ औरंगजेब के विरुद्ध युद्ध का बिगुल फूंका। इसी के परिणामस्वरूप 27 वर्षों के निरंतर संघर्ष के पश्चात मुग़ल साम्राज्य का अंत हुआ और हिंदवी स्वराज्य का भगवा ध्वज लहराया।

    अपने विचारों को विराम देने के साथ पुनः छत्रपति संभाजी महाराज को नमन करते हुए हम यही कहना चाहते हैं कि छत्रपति संभाजी महाराज का जीवन केवल वीरता और बलिदान की गाथा नहीं, बल्कि स्वाभिमान, धर्मनिष्ठा एवं राष्ट्रभक्ति का प्रेरणास्रोत है। उनका अदम्य साहस, त्याग और बलिदान युगों-युगों तक भारतवर्ष के हृदय में अमर रहेगा। वे एक ऐसे नायक थे, जिनके पराक्रम की गूंज आज भी भारतभूमि को गौरवांवित करती है।
    “धर्मवीर संभु बलि चढ़े, हिन्दुत्व के उत्थान।
    शिवपुत्र का रक्त बना, स्वराज्य की पहचान॥”

    धर्मवीर संभाजी महाराज अमर रहें!

  • Kalp Samwad Kunj

    कल्पकथा संवाद कुंज-” छत्रपति संभाजी महाराज (शंभू जी राजे)”
    विधा- लेख (वैचारिक)
    भाषा- हिन्दी

    ” साप्ताहिक संवाद कल्प कुंज ”
    विषय- छत्रपति संभाजी महाराज (शाहूजी राजे)

    विधा – लेख

    भाषा – हिंदी

    शीर्षक – छत्रपति संभाजी महाराज – एक महान योद्धा

    छत्रपति संभाजी महाराज वीर छत्रपति शिवाजी के बड़े पुत्र थे। सन् १६८० में शिवाजी की मृत्यु के बाद वे मराठा साम्राज्य के शासक बने। वे शिवाजी महाराज और उनकी ज्येष्ठ पत्नी सईबाई के पुत्र थे। उनका जन्म १४ मई १६५७ को भी पुरंदर के किले में हुआ था। मात्र ढाई साल की उम्र में उनकी माता का निधन हो गया था। माता की मृत्यु के बाद उनकी दादी जीजाबाई ने उनका पालन पोषण किया। संभाजी अपने दादा साहजी और दादी जीजाबाई के करीब रहते थे। उनकी दादी जीजाबाई संभाजी को भी अपने पुत्र शिवाजी की तरह ही बचपन से धर्म, राष्टप्रेम , स्वराज आदि के बारे में बताया करती थी और उनके जीवन में आदर्श मूल्यों को स्थापित किया। संभाजी ने इतिहास, भूगोल , व्याकरण ,गणित , तर्कशास्त्र , रामायण , पुराण आदि का ज्ञान अर्जित किया। उनके पिता शिवाजी उसे शारीरिक शिक्षा देते थे। संभाजी अपने पिता शिवाजी द्वारा हिन्दी स्वराज के लिए किये जा रहे प्रयासों को देखते हुए बड़े हुए जिससे उनमें भी देशभक्ति और स्वराज की भावना उनके मन में कूट कूट कर भरी हुई थी। उन्होंने की अवसरों पर अपनी प्रतिभा दिखाई। केवल सोलह वर्ष की आयु में उन्होंने अपना पहला युद्ध लड़ा और जीता।

    सन् १६८० में जब शिवाजी महाराज की मृत्यु हुई तब संभाजी की सौतेली मां सोयराबाई ने अपने पुत्र राजाराम को मराठा साम्राज्य का राजा बनाना चाहा। यह खबर सुनकर संभाजी ने पन्हाला और रायगढ़ का किला जीत लिया। २० जुलाई १६८० को वैदिक परंपराओं के अनुसार उनका राज्याभिषेक किया गया और वे मराठा साम्राज्य के दूसरे छत्रपति बन गये। इसके बाद उन्होंने राजाराम, उसकी पत्नी और सौतेली मां सोयराबाई को नजरबंद रखा। उसने सोयराबाई , उसके समर्थकों और शिवाजी के कुछ मंत्रियों को भी उनकी हत्या करने के साजिश रचने के लिए मार डाला।

    शिवाजी महाराज की मृत्यु के तीन महीने बाद संभाजी राजा बने। छत्रपति बनते ही उनने प्रजा के कल्याण के कार्य किये। उन्होंने किसानों के कर को घटाया और प्रजा को निशुल्क स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराई।

    संभाजी महाराज ने अन्य धर्मों में धर्मांतरित हिंदुओं को पुनः: हिंदू धर्म में परिवर्तित होने में मदद की।
    संभाजी महाराज ने अपने राज्य में गरीबी और खाद्यान्न की कमी को दूर करने के लिये सन् १६८० में खानदेश पर हमला किया । इसमें उन्हें मुगलों का विशाल खजाना हाथ लगा। इस युद्ध में २०००० मराठा सैनिकों ने मुगलों की सेना को हरा दिया। यह संभाजी की मुगलों पर पहली विजय थी। मुगलों को हराने के बाद संभाजी ने मैसूर पर आक्रमण किया। सन् १६८१ में संभाजी ने वाडियार राजा चिक्कदेवराय के खीलाफ दक्षिण मैसूर अभियान शुरु किया‌। चिक्कदेवराय ने आत्मसमर्पण के बजाय मराठा सेना पर हमला बोल दिया। संभाजी महाराज ने अपनी विशाल सेना के साथ जमकर युद्ध किया और जीता। युद्ध जीतने के बाद उसने चिक्कदेवराय को मृत्युदंड दिया।

    संभाजी महाराज ने पुर्तगालियों से भी युद्ध किया। कहा जाता है कि पुर्तगाली मुगलों को व्यापार आदि के लिये अपना क्षेत्र मुहैया कराते थे। पुर्तगालियों और मुगलों के बीच इन संबंधों को तोड़ने के लिए संभाजी ने गोवा पर आक्रमण किया और अनेक किलों न और बंदरगाहों पर अस्थाई कब्जा कर लिया। अपने जीवनकाल में संभाजी महाराज कुल १२० युद्ध लड़े थे और सभी में विजय प्राप्त की। शिवाजी महाराज के बाद उनके पुत्र संभाजी महाराज ने मुगलों के नाक में दम कर रखा था। उनको युद्ध में हराना असंभव था।

    संभाजी महाराज ने मुगलों को भारत से समूल उखाड़ने की योजना बनाई , जिसके लिये उन्होंने संगमेश्वर में एक गुप्त बैठक बुलाई।

    संभाजी महाराज ने अपने बहनोई गनोजी शिर्के को वतनदारी और जहां गिरी देने से साफ इन्कार कर दिया था , क्योंकि वे उसकी अनुचित महात्वाकांक्षा को जानते थे। इससे क्रुद्ध होकर उसने मुगलों से हाथ मिला लिया। गणोजी ने मुगल सरदार मुकर्रब खान को सूचित कर दिया कि संभाजी संगमेश्वर में हैं। यही नहीं उसने संगमेश्वर के सभी गुप्त मार्गों के बारे में भी बता दिया जो संभाजी महाराज उपयोग करते थे। वे गुप्त मार्ग सिर्फ मराठों को ही ज्ञात था। संभाजी महाराज ने कुछ सरदारों और विश्वस्त मंत्रियों को संगमेश्वर बुलाया था। उन्होंने अपनी सेना को रायगढ़ भेज दिया और अपने साथ केवल २०० सैनिक , अपने मित्र व सलाहकार कलश और कुछ अन्य सलाहकारों को रखा। बैठक के बाद गांव वालों के आग्रह पर संभाजी संगमेश्वर में ही कुछ दिन रुक गये। जैसे ही संभाजी महाराज गांव से निकल रहे थे, १०००० मुगल सैनिकों ने उन्हें घेर लिया। संभाजी के। साथियों और सैनिकों ने बड़ी वीरता से लड़ाई लड़ी। झड़प गांव में भीषण रक्तपात हुआ। संभाजी और उनके सैनिकों ने मुगलों की विशाल सेना डटकर मुकाबला किया । पर अंत में १ फरवरी १६८९ को संभाजी और उनके मित्र कलश को धोखे से पकड़ कर कैद कर लिया।

    मुगलों ने उन्हें पहले बहादुरगढ़ ले गये , फिर उन्हें तुलापुर नामक गांव ले जाया गया। औरंगजेब ने संभाजी महाराज और कलश कि घोर अपमान कराया और बहुत ही अमानवीय व्यवहार किया।

    इससे बाद उन्हें औरंगजेब के दरबार में लाया गया। औरंगजेब ने अपने जीवित रहने के लिए तीन शर्त रखे। पहला शर्त यह था कि सभी मराठे किलों पर कब्जा दे ओर मराठा साम्राज्य के छिपे हुए खजाने बतायें। दूसरा शर्त यह था कि उन मुगल गद्दारों के नाम उजागर करे जो उसके दरबार में अधिकारी थे। तीसरा शर्त यह था कि वे इस्लाम कबूल करें।

    इन शर्तों को स्वीकार न करने पर औरंगजेब ने संभाजी और कलश को अमानवीय यातनाएं देना शुरू कर दिया। उसने चिमटे से उनके नाखून उखड़वा दिये , एक एक कर उनकी उंगलियां कटवा दिये। हर अत्याचार के बाद औरंगजेब उनसे इस्लाम कबूल करने को कहता, लेकिन हर बार संभाजी ने इस्लाम कबूल करने से अस्वीकार कर दी। संभाजी के मुख से ‘ जय भवानी ‘ का ही घोष होता। कुछ दिन बाद औरंगजेब ने उसकी त्वचा छिलवा दी और उनकी जीभ कटवा दी। उसने गर्म सलाखों से उनकी दोनों आंखें फोड़वा डाली। कुछ दिन बाद उनके दोनों हाथ कटवा दिये। उनका सर काट दिया गया और धड़ के टुकड़े कर दिए गये। अंत में उनके शरीर के सब टुकड़ों को तुलापुर के भीमा नदी के संगम पर फेंक दिया गया। इस तरह वीर छत्रपति संभाजी महाराज के जीवन का मार्च ११, १६८९ को अत्यंत दुखद अंत हो गया।

    छत्रपति संभाजी महाराज अपने पिता की तरह ही अत्यंत वीर, साहसी और दूरदर्शी राजा थे। वे औरंगजेब के दक्षिण अभियान को रोक रखा था। उनकी वीरता से औरंगजेब दर दर कांपता था। अगर उसके बहनोई गणोजी ने गद्दारी नहीं की होती तो मुगलों का इतिहास कुछ और ही होता।

    पर विडंबना यही है कि जहां भारत माता ने शिवाजी और संभाजी जैसे एक से बढ़कर एक वीर राजाओं को जन्म दिया, वहीं गणोजी जैसे गद्दारों भी हुआ करते थे। जयचंद, मीरजाफर की गद्दारी सर्वविदित है। गणोजी जैसे गद्दार के कारण ही संभाजी महाराज को मुगलों ने कैद कर लिया और उनका अमानवीय ढंग से कत्ल कर दिया। अगर भारत के इतिहास में ऐसे गद्दार नहीं होते तो भारत की ओर कोई विदेशी आक्रांता आंख उठाकर भी देख न पाता! पर विधि के विधान को कौन नकार सकता है?

    अभी पिछले ही महीने १९ फरवरी को छत्रपति शिवाजी महाराज की जयंती मनाई गई। उन्हीं दिनों हिंदी फिल्म “छावा” रिलीज हुई थी। उस फिल्म को मैंने भी देखा । उस। फिल्म में संभाजी महाराज के जीवन के प्रमुख पहलुओं को दर्शाया गया और उनके दुखद अंत को भी स्पष्ट रूप से दिखाया गया। मैं तो मानता हूं कि फिल्म देखकर ही दर्शकों की रूह कांप गई होगी।

    मैंने मन ही मन सोचा मुगलों के समय इन वीर मराठों और अन्य हिंदू राजा महाराजाओं ने कितने कष्ट झेले होंगे। आज हम बड़े स्वतंत्र जीवन व्यतीत करते हैं, पर उन दिनों युद्ध के दिनों में प्रजा का भी क्या हाल होता होगा। उन वीर शिरोमणि राजाओं को जो अपनी प्रजा की रक्षा करश्रते हुए मातृभूमि की रक्षा के लिये हंसते हंसते जान निछावर कर देते थे, उन सम्राट राजाओं को शत् शत् नमन! भारत की प्रजा उनके ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकती।

    – सूर्यनारायण मूर्ती पेरी ‘ दिवाकर ‘

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