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❇️ “!! कल्प संवादकुंज= आध्यात्मिक बंधुत्व के प्रणेता – स्वामी रामकृष्ण परमहंस !!” ❇️

    राधे राधे,

        कल्प संवादकुंज के वर्तमान विषय “आध्यात्मिक बंधुत्व के प्रणेता – स्वामी रामकृष्ण परमहंस” पर अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए प्रभु श्री राधा गोपीनाथ जी महाराज का वंदन करते हुए कहना चाहते हैं।

“जितने मत उतने पथ”, सत्य यही महान।

प्रेम, दया, सेवा भजो, हो जीवन कल्याण।।

      मित्रों, 

            संतों की पुण्यधरा भारतवर्ष में समय-समय पर ऐसे महापुरुषों ने जन्म लिया है, जिनका जीवन स्वयं में ईश्वरीय अनुभूति का सजीव स्वरूप प्रतीत होता है। ऐसे ही एक अद्वितीय संत हुए स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी, जिन्होंने मानवता को आध्यात्मिकता के उच्च शिखर पर ले जाने का अनुपम कार्य किया। उनकी जीवनगाथा केवल एक व्यक्ति की कथा नहीं, अपितु संपूर्ण विश्व के लिए आत्मज्ञान की अखंड ज्योति है।

 

      साथियों, 

               स्वामी रामकृष्ण परमहंस का जन्म 18 फ़रवरी 1836 को बंगाल के कामारपुकुर नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिताश्री क्षुदिराम चट्टोपाध्याय एवं माता चंद्रमणि देवी धार्मिक प्रवृत्ति के अत्यंत सरल व सत्यनिष्ठ व्यक्ति थे। बालक रामकृष्ण का प्रारंभिक नाम गदाधर था। बचपन से ही वे विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। जहाँ अन्य बालक खेल-कूद में मग्न रहते, वहीं गदाधर प्राकृतिक सौंदर्य में ईश्वर का साक्षात्कार करते। छह वर्ष की कोमल आयु में ही उन्होंने प्रथम बार ईश्वरीय परमानंद का अनुभव किया, जब आकाश में सफेद बगुलों को बादलों की पृष्ठभूमि में उड़ते देख उनकी चेतना आत्मलीन हो गई। यह घटना उनके अद्भुत आध्यात्मिक अनुभवों की प्रथम कड़ी बनी।

“गदाधर घर आए जब, हुई पावन धरा।

कामारपुकुर भूमि ने, संत अनोखा धरा।।

पावन माता चंद्रमणि, क्षुद्रराम व्रती।

साधन-सरल समीप जिन, राम स्वयं रति।।”

 

      दोस्तों,

             गदाधर को पारंपरिक विद्यालयी शिक्षा में विशेष रुचि नहीं थी। वे पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा अनुभवजन्य ज्ञान को अधिक महत्त्व देते थे। उनकी वाणी में सहज प्रेम एवं आध्यात्मिकता की शक्ति थी, जो हर व्यक्ति को आकर्षित कर लेती थी। वे संगीत, चित्रकला एवं नाट्यकला में निपुण थे, किंतु सांसारिक विषयों से उनका मन सर्वदा विमुख रहता। बाल्यकाल से ही वे संत-महात्माओं की संगति में रहकर जीवन के परम सत्य को खोजने में संलग्न हो गए।

 

      भाईयों,

             युवा अवस्था में उनके अग्रज रामकुमार उन्हें दक्षिणेश्वर ले गए, जहाँ 1855 में रानी रासमणि द्वारा निर्मित काली मंदिर में वे पुरोहित नियुक्त हुए। किंतु उनकी भक्ति रूढ़िगत कर्मकांडों तक सीमित न थी। वे माँ काली को मात्र मूर्ति रूप में नहीं, अपितु सजीव साक्षात्कार के रूप में देखने के लिए व्याकुल रहने लगे। उनकी तड़प ऐसी थी कि माँ के दर्शन के बिना वे प्रलाप करने लगते। अन्ततः उनकी तीव्र आराधना सफल हुई और उन्हें माँ काली के प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त हुए।

“छह बसंत में व्योम में, देखा दृश्य अनूप।

सारस शुभ्र उड़ान भर, भाव हुआ स्वरूप।।

माता काली के चरण, ध्याने रमे सदा।

भूलि जगत, हृदय जगे, प्रेम सुधा झरा।।”

 

      बहिनों, 

               रामकृष्ण परमहंस ने न केवल वैदिक, बल्कि तांत्रिक साधना के विविध पथों का अनुसरण किया। उन्होंने भैरवी ब्राह्मणी से तंत्र साधना की शिक्षा ली, तो तोतापुरी महाराज से अद्वैत वेदांत की दीक्षा प्राप्त की। वे छह महीने तक अद्वैत समाधि में लीन रहे, जहाँ उनका स्वयं के अस्तित्व का बोध विलीन हो गया। परिवारजनों को उनके इस गहन आध्यात्मिक प्रवाह की चिंता हुई और उनके विवाह का निर्णय लिया गया। उनका विवाह शारदा देवी से हुआ, जो आगे चलकर उनकी परम शिष्या और आध्यात्मिक उत्तराधिकारी बनीं। किंतु विवाह के बाद भी उनका जीवन पूर्णतः ब्रह्मचर्य और संन्यास भाव में ही रहा।

“शारदा को देवि जान, पूजा की विधि नेक।

पति-पत्नी सम भाव में, निष्ठा सदा एक।।”

 

       बन्धुओं,

              स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी केवल हिंदू धर्म तक सीमित नहीं रहे। उन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म का भी अभ्यास किया और इन मार्गों से भी ईश्वर का अनुभव किया। उन्होंने कहा— “जितने मत, उतने पथ”, अर्थात प्रत्येक धर्म ईश्वर की प्राप्ति का एक माध्यम है। उन्होंने सभी मतों को आत्मसात कर विश्वबंधुत्व का संदेश दिया। रामकृष्ण का जीवन स्वयं में एक संदेश था। उन्होंने कभी कोई ग्रंथ नहीं लिखा, किंतु उनके अमृतमय वचनों को महेंद्रनाथ गुप्ता ने “श्री श्री रामकृष्ण कथामृत” के रूप में संकलित किया, जिसका अंग्रेजी अनुवाद “द गॉस्पेल ऑफ श्री रामकृष्ण” नाम से प्रसिद्ध हुआ। उनकी शिक्षाएँ सहज, सरल और लोकभाषा में थीं।

 

०१) “ईश्वर तक पहुँचने के अनेक मार्ग हैं, किंतु लक्ष्य एक ही है।”

०२) “जिस प्रकार पत्थर के अंदर छिपे तेल को निकालने के लिए घर्षण आवश्यक है, उसी प्रकार आत्मसाक्षात्कार के लिए साधना आवश्यक है।” 

०३) “अज्ञानता ही समस्त दुखों का मूल है, इसलिए ज्ञान और भक्ति को अपनाओ।”

०४) “ईश्वर प्रत्येक प्राणी में विद्यमान हैं, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति का सम्मान करो।”

 

“योग, भक्ति, ज्ञान-मार्ग, तंत्र सभी साधनाएँ।

भक्त हृदय में राम सम, प्रभु साक्षात समाए।।

ईसा, बुद्ध, मुहम्मद, जिसने सबमें देखे ईश।

मत मतांतर एक ही, सत्य सदा अभिषेक।।”

 

     भगिनियों, 

              रामकृष्ण परमहंस के प्रमुख शिष्य स्वामी विवेकानंद ने उनके संदेश को संपूर्ण विश्व में फैलाया। विवेकानंद ने रामकृष्ण के विचारों को मूर्त रूप देकर रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन की स्थापना की, जो आज भी सेवा, शिक्षा और आध्यात्मिक जागरण का कार्य कर रहा है। अथक आध्यात्मिक साधना एवं अनवरत ईश्वरीय चिंतन ने उनके शरीर को दुर्बल कर दिया। 1885 में उन्हें गले का कैंसर हो गया। उनके शिष्य दिन-रात उनकी सेवा में लगे रहे। 16 अगस्त 1886 को उन्होंने “माँ” का नाम लेते हुए महासमाधि धारण कर ली और अपने नश्वर शरीर का परित्याग कर अनंत ब्रह्म में विलीन हो गए।

“काम-क्रोध से दूर रह, मन को कर निर्मल।

नाम जप, सेवा करो, प्रभु हैं सदा सकल।।

गला जरा पर मोह नहीं, ईश नाम उचार।

मुक्त काया, मुक्त मन, ब्रह्म में विस्तार।।”

 

       मेरे प्रिय देशवासियों,

                    स्वामी रामकृष्ण परमहंस केवल एक संत नहीं, अपितु धर्म, प्रेम और आत्मज्ञान के दिव्य सूर्य थे, जिनकी किरणों ने भारत ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व को आलोकित किया। उन्होंने धर्मों की एकता, साधना की महत्ता, प्रेम की शक्ति और भक्ति की अनिवार्यता को अपने जीवन से सिद्ध किया। आज भी उनके उपदेश मानवता के मार्गदर्शन का प्रकाशस्तंभ हैं। वे संसार को यह सिखा गए कि “ईश्वर के अनेक नाम हो सकते हैं, किंतु उसकी अनुभूति के लिए मन की पवित्रता और भक्ति आवश्यक है।”

 

           अपने विचारों को विराम देते हुए हम यहां पर उनके विचारों को उनके ही शब्दों में कहना चाहते हैं “जैसे अनेक नदियाँ विभिन्न दिशाओं से बहती हुई एक ही समुद्र में मिल जाती हैं, वैसे ही विभिन्न धर्म भी अंततः एक ही ईश्वर में विलीन हो जाते हैं।”

पवनेश

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