“प्रेम की परीक्षा”
- पवनेश
- 2024-03-13
- लघुकथा
- प्रेम की परीक्षा
- 0 Comments
“राधिके” मंच पर सखी का अभिनय कर रही है महिला पात्रों ने स्वर दिए। “तुम कब तक इस तरह निर्निमेष बनी रहोगी?”
“हूँ” राधा जी के पात्र ने आँखों को ऊपर उठाया, प्रश्न किया, न भयभीत भी हुआ।
“इस तरह कब तक रहोगी?” अबकी बार सखी के स्वर में चिंता के साथ करुणा भी जन्मी।
“कब तक?” बिल्कुल निरपेक्ष भाव से राधा जी के पात्र ने कुछ इस तरह का प्रश्न किया जैसे यह प्रश्न उनका किसी अन्य से वरण नहीं किया गया हो।
“राधिका,” इस बार सखी के स्वर में विघ्नता के स्थान पर परेशान किया गया। “मैं निश्चित रूप से पूछ रही हूं, उस निर्मोही के लिए कब तक अंतिम… !!” आगे के शब्द स्वर ना पा सके।
राधा जी ने अपने हाथ की उंगली से सखी की कमजोरी को रोक दिया।
“राधिका, अपने मन की पीर को,” यह अन्य सखी का स्वर था। “नेत्रों से अश्रु धार वापस आने दो।” मनों वह किशोरी जू से अनुनय कर रही हो।
“न” उनके इकलौता अक्षर पूरे भावों को दृढ़ता से अभिव्यक्त कर गए।
“हे सखी का यह कैसा प्रेम है?” पुनः आरंभ प्रथम साखी ने प्रश्न उठाया। “जो विरह को भी अभिव्यक्त नहीं करने दे रहा।”
“ये प्यार नहीं है।” राधारानी के संगीतमय स्वर को मंत्रमुग्ध कर देने वाला मन प्रकृति का भी संयोजन हो गया।
“अरे!! तुम ऐसा क्यों कह रही हो?” इस बार प्रश्न के स्थान पर आश्चर्य हुआ।
“कान्हा ने जाने के पहले कहा था।” मनों उन्होंने साखी का प्रश्न सुना ही नहीं। “राधे, नयनों से अश्रु मत पाना, ये हमारे प्रिय के साक्षी हैं।”
“क्या?” दोनों साखियाँ अवाक रह गईं।
“अब मन में विरह के बाद भी अश्रु नहीं देना है।” शब्दों को सुनने के साथ-साथ प्रकृति भी विरहिणी हो उठी। “यही तो हमा
रे प्रेम की परीक्षा है।”
Leave A Comment
You must be logged in to post a comment.