!! “अनिरुद्ध : दिव्य योद्धा” !!
- Radha Shri Sharma
- 2024-07-02
- उपन्यास
- प्रेरक, बाल साहित्य
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!! “अनिरुद्ध – दिव्य योद्धा” !!
जय श्री कृष्ण प्रिय पाठकों, ये कहानी एक ऐसे बालक की है, जो जन्म से ही कई दिव्य शक्तियों के साथ पैदा हुआ है। ये कहानी हम बालको को ध्यान में रखते हुए लिख रहे हैं। इसमें हमने अपनी कल्पनाओं का आकाश सजाया है। जिसका किसी भी प्रकार से इस जीवित संसार से कोई सम्बंध नहीं है। हमसे हुई त्रुटियों के लिए हम अग्रिम क्षमाप्रार्थी हैं।
हमें आशा है कि ये कहानी आप पाठकों के साथ साथ समाज के लिए एक उदाहरण बनेगी। तो चलिए, कहानी का शुभारंभ करते हैं।
🙏🌷🙏 जय श्री गणेश 🙏🌷🙏
🙏🌷🙏 जय माँ सरस्वती 🙏🌷🙏
!! “१. अनिरुद्ध का जन्म” !!
बहुत जोरों से और बार – बार चमकती हुई बिजली, गड़ गड़ गड़ गड़ गड़ गड़ गड़ गड़ गड़ गड़ गड़ गड़ गड़ गड़ की जबरदस्त गर्जना के साथ गरजते मेघ, टपटप टपटपटप टप टप टप झरझर झर झर झर झर झर की ध्वनि के साथ बरसती जबरदस्त मूसलाधार बारिश… ऐसे में गाँव बाहर बने एक घर से किसी स्त्री “आआह आआआआह” के कराहने का करुण स्वर सुनाई दे रहा है।
“अरी गंगा, तनिक मुँह बन्द कर के नीचे को दबाव बनाने की कोशिश कर, नहीं तो बच्चा ऊपर चढ जायेगा और तुम दोनों की जान पर बन जायेगी। ऐसी जानलेवा बरखा में हस्पताल जाना भी कम खतरनाक नहीं है।” – प्रसव पीडा से तड़प रही गंगा को दाई ने समझाया तो तो वो मुँह बंद करके दाई की बात का अनुसरण करने लगी।
बाहर गंगा का ससुर वेद प्रकाश शर्मा चक्कर काट रहे हैं। अन्दर उस की सास माया देवी दाई की सहायता कर रहीं हैं। गरम पानी देकर, बार बार गंगा के सिर पर हाथ फेर रहीं हैं। और मन ही मन भगवान को मना रहीं हैं कि भगवान मेरी बहू और पोते या पोती को बचा ले।
बाहर वेद प्रकाश जी अपने बेटे विक्रम के बारे में सोच रहे हैं….
“पिता जी.. पिताजी… पिता जी…” – दौड़ते हुए घर आकर विक्रम बहुत खुशी से अपने पिता जी को पुकारता है।
“अरे, क्या हो गया? क्यों बाय घोड़े पर सवार है? ऐसा क्या खजाना मिल गया, जो तुझसे तनिक भी सबर नहीं हो रहा।” – वेद प्रकाश जी ने उसे प्यार से झिडका।
“अरे, पिता जी, आप सुनेंगे तो नाचने लगेंगे।” – विक्रम उन्हें अपने हाथ में एक पोस्ट दिखाते हुए झूमने लगा – “आपको पता है ये क्या है??? ये भारत सरकार का खत आया है मेरे नाम। मेरा भारतीय फौज में चयन हो गया है। अब मैं देश का सिपाही कहलाऊंगा और आपका सीना गर्व से चौड़ा हो जायेगा। लोग कहेंगे, वो देखो कर्नल विक्रम शर्मा का पिता मेजर वेद प्रकाश शर्मा जा रहे हैं।”
“हाँ, बेटा” – हर्ष मिश्रित आँसुओं के साथ अपने समय में कई लड़ाई ना केवल लडने वाले बल्कि जीतने वाले मेजर वेद प्रकाश शर्मा जी के मुँह से इतना ही निकला।
जब माँ को पता चला तो वे खुशी से मिठाई ले आईं और अपने बेटे और पति का मुँह मीठा कराया। कुछ दिनों बाद ही विक्रम अपनी ट्रेनिंग के लिए चला गया।
“उआं उआं उआं उआं” – अन्दर से आती शिशु रुदन की आवाज से वेद प्रकाश जी यथार्थ में लौटे – “मैं आज भी गर्व महसूस करता हूँ बेटा, जब मुझे कोई कहता है कि वो जा रहा है, अमर शहीद कैप्टन विक्रम शर्मा के पिता मेजर वेद प्रकाश शर्मा।” – और दो आँसू उनकी आँखों से उनके हाथ पर गिर पड़े।
“अब क्यों रोते हो विक्रम के पापा?” – मेजर वेद प्रकाश शर्मा के कंधे पर हाथ रखते हुए, बाहर आकर माया देवी ने कहा – “अब तो भगवान ने मुँह भी मीठा कर दिया है। बहुत सुन्दर बेटा हुआ है, बिल्कुल विक्रम की कार्बन कॉपी।”
“हाँ, तुम सही कहती हो विक्रम की माँ” – वेद प्रकाश जी के मन में एक संशय बार – बार सिर उठाता है – “पर पता नहीं क्यों, मुझे अभी भी लगता है कि मेरा बेटा वीरगति को प्राप्त नहीं हुआ है, बल्कि उसकी आड में कुछ और ही कर रहा है।”
“और, ये तुम्हें किस आधार पर लगता है?” – माया देवी ने के मन में भी अपने बेटे को लेकर एक आस जगी।
“तुम्हें याद है, वो ऐसी ही भयानक काली बरसाती रात” – वेद प्रकाश जी कुछ पिछला याद करते हुए बोले – “जब विक्रम हमें बीच सडक पर मिला था। किन परिस्थितियों में मिला था? घनघोर बारिश कड कड कड कड कड कडकडाती बिजली, सांय सांय सांय सांय करती हुई शरीर को चीर कर निकलती हवा, गड गड गड गड की हृदय को कंपकंपा देने वाली बादलों की घनघोर गर्जना के बीच सियारों की हूहूहूउउउउउउउउउउऊ करती हुई डरावनी आवाज और उसमें एक नवजात शिशु बीच सडक पर अपने ही हाथ से पैर का अँगूठा मुँह में लेने की कोशिश कर रहा है। उसके नीचे की धरती इतनी बारिश में भी एकदम सूखी थी। पानी उस बच्चे से दो फुट की दूरी बना कर बह रहा था। और तुमने देखा था ना, बारिश की बूंदे उस शिशु से पाँच फुट ऊपर रुक जाती थी। हम अपने बच्चे के लिए मन्नत माँगने गये थे, जिससे तुम्हारी सूनी गोद भर जाये। उसे देखकर तुम्हारे हृदय में भावना उमडने लगी। तभी जैसे मेरे कानों में आवाज गूंजी, “वेद! क्या सोच रहे हो? तुम मुझसे संतान ही तो माँगने आये थे। अब मैं तुम्हें ये संतान दे रहा हूँ। इसका पालन अपनी औरस संतान की तरह करो।” मेरे कानों में तो अभी ये चामत्कारिक आवाज गूँज ही रही थी, तब तक तुम ने गाडी से उतर कर उस बच्चे को अपने कलेजे से लगा लिया और तुम्हारे सीने से ममता का सागर बहने लगा।”
“और फिर मैंने उसे गाडी में आकर उसे अपना दूध पिलाया।” – माया देवी भी आँखों में आँसू भरकर जैसे उसी समय में पहुँच गई – “मुझे सब याद है। मेरा दूध पीने के बाद विक्रम ने मुझे मम्मा कहा था और खेलते हुए मेरी गोद में ही सो गया। उसने मेरी ममता को सदा तृप्त किया। तुम्हें अंदाजा भी नहीं है, उसे पहली बार अपने सीने से लगा कर उसे अपना दूध पिलाते हुए मुझे कितना सुख मिला था, मानों मेरे जन्मों की आस पूरी हो गई हो।”
“बस जब भी मैं उस पल को सोचता हूँ और उसके बचपन को सोचता हूँ, तो मुझे मुझे लगता है कि विक्रम एक दिव्य बालक है, उसे कुछ नहीं हो सकता।” – वेद की आँखें एक बार फिर से मुख्य दरवाजे पर टिक गई, मानों कोई बाहर खडा होकर उनकी बातें सुन रहा है।
“तुम कहां जा रहे हो? मैं बालक को लेकर आती हूँ।” – बाहर की तरफ जाते अपने पति को रोकते हुए माया गंगा के कमरे की तरफ मुड़ी ही थी कि वहाँ एक बार फिर से जैसे आकाशवाणी सी गूँजती हुई सुनाई दी – “इस बालक का नाम अनिरुद्ध है। इसका पिता विक्रम भी जीवित है और एक दैत्य के चंगुल में फंसे हुए हैं। इसका उद्देश्य भी अपने पिता को उस दैत्य के चंगुल से छुड़ा कर लाना है। इसे जन्म से ही तलवार और धनुष मिले हैं। दूसरे अस्त्र शस्त्रों में भी ये पारंगत है। रही सही कसर इसकी इसके गुरु स्वयं पूरी कर देंगे समय आने पर।” – इतना कहकर वो आवाज स्वयं ही विलुप्त हो गई।
ये आवाज सुनकर वेद प्रकाश जी भी आश्वास्त होकर बैठ गए और माया देवी अंदर चली गई। अन्दर जाकर देखा, तो दाई डरी हुई बैठी थी।
“क्या हुआ संतोष, ऐसे क्यों बैठी है?” – माया देवी ने अंदर जाकर डरी – सहमी सी दाई से पूछा।
दाई – “तुम्हारे घर में कोई भूत प्रेत है क्या?”
माया देवी – “नहीं तो।”
दाई – “फिर ये आवाज किस की थी?”
माया देवी – “इसके बाप के गुरु की। वो बाहर आये हुए थे। इसका नाम बता कर गये हैं।”
“और वो दैत्य, कैद, धनुष, तलवार… वो सब क्या था?” – दाई को इतने पर भी संतुष्टि नहीं हुई थी। जबकि गंगा मुरझाए चेहरे से भी मुस्कुरा रही थी।
“इतनी पंचायत काहे लगानी है तुझे?” – माया ने उसे अधिक घर में घुसने की कोशिश करते देख फटकार लगाई – “अपना जँचगी का नेग ले और अपने घर जा। बारिश भी बंद हो गई है। विक्रम के पिता जी तुझे छोड़ आयेंगे।”
दाई चुपचाप बाहर की ओर चल दी। माया ने अनिरुद्ध को गले से लगाया और खूब प्यार किया अपने पोते से। बालक अनिरुद्ध ने दादी की गोद में सोते हुए ही एक अंगडाई ली और फिर से मुस्कुराते हुए सो गया। माया देवी उसे लेकर बाहर आईं और उसे वेद प्रकाश जी की गोद में दे दिया। दाई को नेग देकर विदा किया। बाहर विक्रम का दोस्त अनुज खडा था, वो जाकर दाई को छोड आया।
!! “२. कराल का परिचय” !!
बडी ही तेज स्वर में रण भेरी गूँज रही हैं। चारों ओर भयंकर शंखनाद हो रहे हैं। सैंकड़ों नगाड़े और दुंदुभियां बज रहीं हैं। हाथियों के चिंघाडने और घोडों के हिनहिनाने के स्वर तीव्र होते जा रहे हैं। उन सब आवाजों बीच तलवारों के टकराने से बिजलियाँ कौंध रहीं हैं और उनसे निकलती चिंगारियां इधर-उधर छिटक रहीं हैं। गदाओं के टकराने का भीषण नाद हो रहा है। कभी दिन में रात को भी शर्मिंदा करता अंधकार छा जाता है तो कभी मूसलाधार बारिश होने लगती है। कहीं अस्त्रों के टकराने से भयंकर विस्फोट होते हैं तो कहीं चारों ओर आग ही आग फैली दिखाई देती है। कहीं आकाश से पत्थरों की बारिश हो रही है तो कोई खुद ही आकाश में जाकर युद्ध के लिए ललकार रहा है। कितने ही कटे हुए हाथों, पैरों, सिरों, धड़ों और कटे – पिटे शवों से धरती पटी हुई है। रक्त की धारा मानों धरती की प्यास बुझाने के लिए नदी का रूप लेकर बहने लगी है। चारों ओर चीत्कार है। करुण क्रन्दन है…
“गंगा… ले बेटी, उठ और थोडा सा कुछ खा ले। थोडी सी तेरे पेट की सिकाई हो जायेगी।” – माया देवी आटे और गंगाघाट के गुड का देसी घी, अजवायन और सौंठ में भूना हुआ सीरा बना कर लाई। – “ले, इससे ना तो परसूत चढ़ेगा और ना दर्द होगा। बालक के लिए दूध भी भरपूर होगा।”
सासू माँ की आवाज सुनकर गंगा सपने से बाहर आई। उस समय उसका चेहरा तेज ज्वाला में जल रहा था, आँखें क्रोध से लाल हो रहीं थीं और होंठ फडफडा रहे थे, मानों वे स्वयं उस रणभूमि दुष्टों का काल बनकर विचरण कर रही हों।
माया देवी ने गंगा को सहारा देकर उठाया तो तो उसका जलता बदन महसूस कर घबरा गई – “बिटिया, तुझे तो तेज बुखार है। मैं अभी अनुज को भेज कर डॉक्टर को बुलवा लेती हूँ।”
“नहीं माँ,” – गंगा जाती हुई माया देवी का हाथ पकड कर रोकती है – “मुझे बुखार नहीं है। वो… मैं सपना देख रही थी, तो थोडा सा जोश आ गया। बस उसी का असर है।”
“फिर भी बिटिया, लापरवाही अच्छी बात नहीं है।” – माया देवी के अंदर की माँ, गंगा के अंदर की योद्धा को देख कर भी नहीं देख रही थी – “पर पहले तू ये खा।” – वो अपने हाथों से धीरे-धीरे गंगा को सीरा खिलाने लगी। सीरा खिला कर उन्होंने अनिरुद्ध को उसके दादा जी के पास से लाकर गंगा की गोद में दे दिया और उसे दूध पिलाने को कहा।
गंगा ने अनिरुद्ध को अपने आँचल में छुपा कर दूध पिलाया। दूध पीकर अनिरुद्ध खेलने लगा। रात का समय है, गंगा उसे सुलाने की कोशिश करने लगी। पर अनिरुद्ध कभी माँ की आंख पर हाथ मारता है तो कभी नाक पर और साथ ही साथ हूँ हूँ हूँ हूँ की आवाज निकाल रहा है।
“नवजात शिशु, जन्म के बाद बाइस से तेईस घण्टे सोता है।” – माया देवी ने अंदर आते हुए गंगा के चेहरे पर थकान और अनिरुद्ध का खेलने का मन देख कर कहा – “पर दूध पीने के बाद सभी बच्चे कुछ देर खेलते ही हैं। ये सामान्य सी बात है। एक काम कर, मुन्ना को मुझे दे, और तू ये दूध के साथ केव का लड्डू खाकर, कुछ देर आराम कर ले।”
गंगा ने सास की बात मान ली। और थोडी देर बाद कुल्ला करके लेट गई। माया देवी भी अनिरुद्ध को लेकर गंगा के कमरे में ही सो गई कि कहीं रात को बहू को किसी भी तरह की जरूरत ना लगे। लेकिन रात आराम से कटी।
सुबह चार बजे दादी को सोया देख कर अनिरुद्ध अपने वास्तविक स्वरूप में आकर अपनी माँ के पास आया और उनके शरीर पर हाथ फेरने लगा। माँ ने तुरंत ही उसका हाथ पकड लिया और मना करने लगी।
“माँ, आप ठीक हो जाओगी।” – अनिरुद्ध ने माँ से अनुरोध किया।
“जानती हूँ बेटा!” – गंगा उसे समझाने लगी – “मैं खुद भी अपने आप को ठीक कर सकती हूँ। पर इस समय हम मृत्यु लोक में हैं और हमें यहां के नियमों का पालन करना चाहिए।”
“वो तो ठीक है माँ, पर मैं आपको इतने दर्द में नहीं देख सकता।” – अनिरुद्ध के चेहरे पर माँ का दर्द छलक आया – “आपको याद है, पिछली बार आप मुझे जन्म देने के तुरंत बाद ही बिल्कुल ठीक हो गईं थीं।”
“वहां स्वर्ण लोक में पृथ्वी लोक की तरह दर्द, सुख – दुख, राग – द्वेष, अपना – पराया, प्रेम, अनुराग, स्नेह, मित्रता, वैमनस्य, ईर्ष्या, शत्रुता, छल, कपट आदि” – गंगा अपने बच्चे की भावनायें समझ रहीं थीं – “भावनायें नहीं हैं। वहां कोई भी चोट पलक झपकते ही भर जाती है, यहां दस – बारह दिन लगते हैं। इसी तरह से वहाँ और यहां में बहुत अन्तर है। और फिर बेटा, हम तो योद्धा हैं, हम कब से इन तकलीफों से विचलित होने लगे।“
“पर माँ, आप कब तक ये दुख सहती रहोगी और इतने दुख में उस कराल से भी लडना…. “ – अनिरुद्ध अभी भी चिंतित था।
“बेटा, तू जिसे दुख कह रहा है ना, ये इस लोक ही नहीं इस समूचे ब्रह्मांड का सबसे बडा सुख है। और ये सुख केवल इस लोक में ही मिलता है और कहीं नहीं। तो मुझे इस सुख का आनंद लेने दे।” – गंगा उसकी मनःस्थिति समझ रही थी – “रही बात कराल की, तो जब तक तुम दोनों पिता पुत्र मेरे साथ हो मुझे कुछ नहीं हो सकता और मेरे रहते तुम दोनों को वो छू भी नहीं सकता। इसलिए निश्चिंत हो कर अपने बालपन का आनंद ले और मुझे भी तेरी बाल सुलभ चेष्टाओं का आनंद लेने दे। एक बात ध्यान रखना, यहां तेरे पाँच वर्ष की आयु पूरी होते ही गुरुदेव आयेंगे और तेरी जो शिक्षा अधूरी रह गई है, उसे पूरा कराने के लिए।”
“ठीक है माँ, जैसी आपकी आज्ञा” – अनिरुद्ध वापिस दादी के पास जाकर अपने उसी शिशु रूप में लेट गया। गंगा भी थोडी देर सो गई।
साढे छः बजे माया देवी उठी और घर के कामों में लग गईं। गंगा को दूध और सौंठ का लड्डू खिला कर अनिरुद्ध का पेट भरने के बाद उसे लेकर बाहर आ गई और अनिरुद्ध को उसके दादा जी की गोद में दे दिया। गंगा थोडी देर सो गई।
“गंगा, तू देखना, तुझे तो मैं वश में करके रहूँगा। और फिर तू खुद मुझे इस ब्रह्मांड के सारे राज बताएगी। हा हा हा हा हा” – भयंकर अट्टहास करता हुआ कराल एक बार फिर से गंगा के सामने था।
“गंगा को आज तक कौन वश में कर पाया है कराल। मैं इस ब्रह्मांड के महावीर योद्धा महान धनुर्धर विक्रमजीत की पत्नी, परमवीर, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर और तलवारबाज परा ब्रह्मांड के दिव्य योद्धा अनिरुद्ध की माता हूँ। मुझे वश में करना तो दूर तू मुझे छू भी नहीं सकता। तू इतिहास खंगाल कर देख, जिसने भी हमारे द्वारा संरक्षित क्षेत्र की तरफ भी आँख उठा कर देखने की भी कुचेष्टा की है, उसका क्या हश्र हुआ है?” – शेरनी की तरह दहाडती – गरजती गंगा ने प्रतिउत्तर देने के साथ ही एक साथ कई तीर कराल की तरफ छोड़े, जो कभी पत्थरों की बारिश करते तो कभी आग की तो कभी भयंकर जहरीले नाग उसकी सेना के ऊपर टूट कर गिरते हुए उन्हें अपने विष का निवाला बना रहे थे। कुछ तीरों से शेर और हाथी निकलते हुए दिखाई दिये, वे रणभूमि में ऐसे विचर रहे थे मानों आज ही सारी दैत्य सेना का सफाया कर देंगे। जिससे कराल की दैत्य सेना में हाहाकार मच गया।
कराल विशाल लौहपुरम् लोक का एकमात्र अधिपति समूचे ब्रह्मांड को अपने अधीन करने की इच्छा से उसने सबसे पहले पृथ्वी के भरतखण्ड पर आक्रमण किया है। कराल का मानना है कि समूची पृथ्वी पर सबसे वीर और पराक्रमी योद्धा भरतखण्ड में ही हैं। यदि भरतखंड पर अधिकार कर लिया तो सारी पृथ्वी पर अधिकार करना सुलभ हो जायेगा। फिर वहां से सारे ब्रह्मांड के रहस्य जान कर समूचे ब्रह्मांड पर मेरा अधिकार हो जाएगा। कराल दैत्यराज शुम्भ का पुत्र है और अपनी समस्त आसुरी शक्तियों के साथ युद्धभूमि में उतरा है, जहाँ उसका मुकाबला सेना अध्यक्ष विक्रमजीत और सेनानायक गंगा से हो रहा है। इनकी सेना भी परम शक्तिशाली और सभी प्रकार के मायावी युद्धों में पारंगत है।
अब तक कराल की आधे से अधिक सेना नष्ट हो चुकी है। उसकी खुद की काफी शक्तियाँ क्षीण हो चुकी हैं। किन्तु कराल की मृत्यु का निर्धारण विक्रमजीत और गंगा के पुत्र अनिरुद्ध के हाथों से होना निर्धारित हुआ है। जो कि खुद कराल के द्वारा ब्रह्मा जी से प्राप्त वरदान के कारण हुआ है। कराल ने वरदान में माँगा था कि उसे इस समूचे ब्रह्मांड में कोई भी ना मार सके। मुझे मारने वाला कोई ऐसा हो जिस पर इस ब्रह्मांड की कोई शक्ति असर ना करती हो। ब्रह्मा जी ने उसे ये वरदान दे दिया। साथ ही साथ धरती पर भेजा उसके काल अनिरुद्ध को……….।
!! “३. सर्प सेना की तैयारी” !!
गंगा अपने एक से एक आयुधों द्वारा कराल की सेना में हडकंप मचा देती है। सारी दैत्य सेना त्राहि त्राहि कर उठती है, पर कराल किसी भी तरह से गंगा के किसी भी वार का जवाब नहीं दे पाता। साथ ही उसकी सौ महाबली योद्धाओं की सेना भी कराल की सेना पर ऐसे टूट पडी है, जैसे माँस पर गिद्ध टूट पडते हैं। तभी सूर्यास्त की घोषणा के साथ युद्ध विराम का घोष होता है और दैत्य सेना को कुछ राहत मिलती है। वे सभी अपने – अपने शिविरों में लौट गए। गंगा भी अपने सभी योद्धाओं का हौंसला बढा कर और उनको लगे घावों के लिए लेप और दवा का प्रबंध करके वापिस अपने शरीर में प्रवेश कर गई और आँखें बंद करके लेटी रही। थोडी ही देर में गंगा सच में सो गई।
अनिरुद्ध अपने दादा की गोद में खेल रहा था। अचानक उसने देखा कि कहीं एक बच्चे को एक बडा ही विषधर नाग निगलने को आतुर हो रहा है और वो शिशु उस नाग को खिलौना समझ कर खेल रहा है, जिससे नाग उसे डस नहीं पा रहा है। अनिरुद्ध ने अपना वजन बढाया और दादा जी की गोद से उतरने के लिए हाथ पैर मारने लगा। लेकिन दादा जी उसे गोद से उतारने के लिए ही तैयार नहीं थे। तभी माया देवी आईं और उन्होंने बच्चे की मानसिकता समझते हुए उसे गोद में उठाया और पालने में लिटा दिया। खुद रसोईघर में चली गई। मेजर साहब भी थोडा टहलने के लिए बाहर चले गए।
अनिरुद्ध मौका देख कर तुरंत एक पल में ही उस स्थान पर पहुँचा और नाग को उसका फन पकड कर पहले तो बच्चे से दूर किया और फिर उसे लेकर दूर जंगल में चला गया।
“तुम उस बच्चे को क्यों डसना चाहते हो” – अनिरुद्ध ने नाग से पूछा, जो गुस्से में उबल रहा था और अब अनिरुद्ध को मारने के लिए उस पर झपटा मारने का मौका देख रहा था।
“क्योंकि उसके पिता ने मेरे बच्चे को मारा था। तब से मैं मौका देख रहा था, उसके घर में संतान होने की। मैं भी उस मनुष्य को संतान दुख में तड़पते हुए देखना चाहता था।” – नाग ने अपना मंतव्य स्पष्ट किया – “पर तुमने मेरा बदला पूरा नहीं होने दिया। इसलिए अब मैं तुम्हें नहीं छोडूंगा।”
“हाहाहा, ठीक है।” – अनिरुद्ध नाग की बात सुनकर ऐसे हँसा, जैसे कोई बडा व्यक्ति छोटे से बालक की बाल सुलभ लीला देख कर हँस दे। जिससे नाग भी आश्चर्यचकित होकर अनिरुद्ध को देखने लगा – “पर मुझ पर तुम्हारे विष का कोई असर नहीं होने वाला। लेकिन तुम्हारे दर्द का उपचार है मेरे पास।”
“ऐसा कैसे?” – अनिरुद्ध के इस तरह से हँसने के कारण नाग का क्रोध कुछ कम हुआ तो उसका ध्यान इस तरफ गया कि वो मनुष्य होकर उसकी भाषा समझ रहा है – “और तुम मेरी भाषा कैसे समझ रहे हो? मुझे भी तुम्हारी भाषा समझ आ रही है… कैसे? ये कैसे सम्भव है? तुम्हारे पास मेरे दर्द का क्या उपचार है?”
“हाँ भई, बताता हूँ, तनिक धैर्य धरो।” – अनिरुद्ध के चेहरे पर काल को भी मोहित कर देने वाली मुस्कान थी – “देखो, सुनो और समझो। जब उस व्यक्ति ने तुम्हारी संतान को मारा था, उस समय तुम्हारा बेटा उसकी माँ को बस डसने ही वाला था। उसने परिस्थितिवश तुम्हारे पुत्र को मारा था। उससे तुम्हारे पुत्र को सर्प की श्रापित योनि से मुक्ति मिल गई। और तुम्हारे पुत्र ने उसका पुत्र बनकर जन्म लिया। अब जिसे तुम निगलने जा रहे थे, वो पूर्वजन्म में तुम्हारा ही पुत्र था। जिसे क्रोधवश तुम देख नहीं पा रहे थे।”
“क्या सच में, लेकिन तुम्हें ये सब कैसे पता? और मैं तुमसे बात कैसे कर पा रहा हूँ?” – सर्प अभी भी आश्चर्य के भंवर में उलझा हुआ था लेकिन उसका स्वर बहुत विनम्र हो चुका था – “महानुभाव! कृपया अपना वास्तविक परिचय दीजिए।”
“मैं परा ब्रह्मांड का नायक हूँ। मेरा नाम अनिरुद्ध है।” – अनिरुद्ध अपना परिचय सर्प को देने लगा – “मैं यहाँ अपनी सेना तैयार कर रहा हूँ। लौहपुर लोक का अधिपति कराल पृथ्वी पर आक्रमण कर चुका है। हमारा उससे पृथ्वी लोक को बचाने के लिए युद्ध चल रहा है। एक बार नाग लोक पर असुरों का आक्रमण हुआ था। उस समय मुझे असुरों के विरुद्ध युद्ध में सहायता करने के लिए नाग लोक भेजा गया था। वो युद्ध नाग लोक वाले जीत गये थे। तब मुझे उस समय के नागों व सर्पों के अधिपति नागराज वासुकि ने वरदान दिया था कि मुझे नाग जाति की किसी भी प्रजाति के विष का या अस्त्र का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ेगा। मैं नाग लोक और सर्पों की दुनियाँ में कहीं भी बेरोकटोक आ – जा सकता हूँ। किसी भी सर्प या नाग से बात कर सकता हूँ। मुझे और भी कई वरदान प्राप्त हैं, जैसे मैं भविष्य देख सकता हूँ| समय को अपने अधीन कर सकता हूँ, शरीर में हुए किसी भी प्रकार के रोग, घाव या चोट को पल में ठीक कर सकता हूँ। मन की गति से कहीं भी आ – जा सकता हूँ। कोई भी रूप धारण कर सकता हूँ, इस ब्रह्मांड में ही नहीं सभी बारहों ब्रह्मांडों में कहीं भी जा सकता हूँ वो भी कुछ ही क्षणों में।”
“क्या मैं तुम्हारी सेना में शामिल हो सकता हूँ? तुमसे मिलकर अब मुझे ये लगने लगा है कि अब तक का जीवन मैंने व्यर्थ ही गंवा दिया। अब मुझे पृथ्वी पर रहने का कर्ज चुकाना है। मैं अपने परिवार सहित स्वयं को आपको समर्पित करता हूँ और आपको अपना सेनापति स्वीकार करता हूँ। मैं स्वयं की भी सर्पों की सेना तैयार करता हूँ और उसे तुम्हारे अधीन युद्ध के लिए पारंगत करूँगा।” – सर्प अनिरुद्ध का परिचय पाकर उससे बहुत अधिक प्रभावित हो गया। वो उसे पहले से ही जानता था लेकिन पहचानता नहीं था।
“तुम्हारी सेना लेने से पहले तुम्हारा परिचय जानना चाहूँगा मैं।” – मोहक मुस्कान के साथ अनिरुद्ध ने सुन्दर शब्द बुने।
“मेरा नाम मतंग है और मैं सर्प सैनिक प्रजाति का हूँ। मुझे युद्ध का अनुभव भी है। मैं इच्छाधारी नागों की प्रजाति को भी जानता हूँ। उन सबको भी एकत्रित करके एक हजार नागों और सर्पों की सेना कुछ ही समय में तैयार करके तुमसे शीघ्र ही भेंट करता हूँ।” – मतंग नामक सर्प ने अपनी योजना अनिरुद्ध को बताई।
“अच्छी बात है मतंग, तुम एक वर्ष पश्चात आज ही के दिन मुझे यहाँ मिलना। तब तक मैं शेर, बाघ, चीता, बघेर, तेंदुआ आदि जंगली पशुओं की भी एक बडी सेना तैयार करता हूँ। अब मैं चलता हूँ। मेरी माँ प्रतीक्षा कर रहीं हैं। मैं उन्हें बता कर नहीं आया था। इसलिए अब मुझे आज्ञा दो। मैं तुमसे एक वर्ष पश्चात मिलता हूँ। हर हर महादेव” – कह कर अनिरुद्ध तुरंत ही चला गया।
मतंग भी अपनी सेना बनाने के लिए निकल पड़ा।
!! ”४. बचपन” !!
अनिरुद्ध वापिस से शिशु रूप में अपने पालने में लेट गया। गंगा अभी भी सोई हुई थी। अनिरुद्ध को पता था कि माँ युद्ध से थकी हुई अभी सोई है, तो उसने माँ को जगाना उचित नहीं समझा और खुद ही पालने में खेलने लगा। माया देवी सहायिका के साथ काम निपटा कर आई तो अनिरुद्ध को पालने में खेलता पाया। उन्होंने अनिरुद्ध को उठाया और उसकी मालिश करके नहला कर मुलायम से कपडे पहना दिए। नन्हा अनिरुद्ध नए कपड़े पहन कर मुस्कुरा रहा है। दादी को पता था कि अब ये दूध पीकर सोयेगा। उन्होंने गंगा को जगाया और अनिरुद्ध को दूध पिलाने के लिए दे दिया, तब तक वो उसके लिए खाना ले आईं और अपने हाथों से खिलाने लगी।
इन्हीं दिनचर्या में समय बीतने लगा। अनिरुद्ध ने शेर, बाघ, चीता, तेंदुए, हाथियों और अश्वों की सेना तैयार करने का प्रबंध कर दिया था। सर्पों और नागों की सेना का प्रबंध वो पहले ही कर चुका था। अब उसका कार्य था समूची धरती से महा वीरों की सेना एकत्रित करने का और उन्हें उस युद्ध के अनुरूप प्रशिक्षण देने का। उसके लिए उसके पास केवल चार वर्ष का समय था।
आज अनिरुद्ध का अन्नप्राशन है। घर में लोग इकठ्ठे हो रहे हैं। पंडित जी हवन और पूजा की तैयारी में व्यस्त हैं घर के लोग और सहायक सहायिका घर को स्वच्छ करने और भोजन आदि पकाने में व्यस्त हैं। मंत्रोच्चार के साथ हवन आरम्भ हुआ। भूमि पूजन, स्थान पूजन, दिशाएँ पूजन, गणेश पूजन, अम्बा पूजन, नव ग्रह पूजन, कलश पूजन, इष्ट पूजन दीप पूजन आदि के बाद सर्वप्रथम हवन में आहुतियां डाली गई। और भोज्य पदार्थों का भी आहुतियों के माध्यम से भोग लगाया गया। उसके बाद अनिरुद्ध के मुँह में सबसे पहले खीर का निवाला डाला गया। उसे धरती की खीर बहुत पसन्द आई और चम्मच को कस कर पकड लिया। उसकी ये हरकत देख कर सारे हँसने लगे कि नन्हें राजदुलारे को खीर पसंद आई। चम्मच उसके हाथ में ही छोड़ कर उसे दूसरे भोज्य पदार्थ थोडे थोडे खिलाये गए। अनिरुद्ध को खीर और बर्फी सबसे ज्यादा पसंद आई।
अनिरुद्ध घुटने चलने लगा था। और थोडा – थोडा खडा भी होने लगा था। मेजर साहब उसकी बाल हरकतों से बहुत खुश होते थे। वे उसमें विक्रम का ही प्रतिबिंब देखते थे और अक्सर सोच में पड जाते थे। आज आठ महीने के अनिरुद्ध ने चार – पांच कदम खुद से चल कर दिखाया था। उसे चलता देख कर मेजर वेद प्रकाश शर्मा एक बार फिर से अतीत में पहुँच गए।
कर्नल भार्गव उन्हें विक्रमजीत के बहादुरी के किस्से सुना रहे थे – “मेजर साहब, आपका बेटा कैप्टन विक्रमजीत ने तो मानो चमत्कार ही कर दिया। दुश्मनों को ख़बर भी नहीं होने दी कि वे परास्त हों चुके हैं और बात की बात में उनकी सारी सेना का सफाया कर दिया।”
“ऐसा क्या किया विक्रम ने?” – हतप्रभ होकर मेजर साहब ने पूछा।
“अरे, ये पूछिये मेजर साहब कि कैसे किया।” – कर्नल भार्गव बहुत ही उत्साहित होकर बोले, ये सब बताते हुए उनकी आँखें चमक रहीं थीं – “दुश्मन पूरे लाव – लश्कर के साथ हजारों की संख्या में शस्त्रबंद होकर आया था और हमारी पेंतालीस जवानों से रक्षित समर हिल चोटी को चारो ओर से घेर लिया। उनके साथ साथ हमें भी लग रहा था कि अब की बार शायद दुश्मन हमसे जीत जाए। क्योंकि उनके हथियार भी हमसे कहीं अधिक आधुनिक और अधिक मारक क्षमता वाले थे। और पचास किलोमीटर तक का लक्ष्य भेदन करने में समर्थ थे। लेकिन विक्रम ने उनसे “कायर कहीं के” कहकर धरती में हाथ मारा। एक जबरदस्त बबंडर उठा और दुश्मनों की ओर बढता चला गया। कुछ देर उस बबंडर में हमें विक्रमजीत भी दिखाई नहीं दिया। चार घण्टे बाद जब बबंडर थमा तो चारों ओर दुश्मनों की लाशें ही बिछी हुई थी। उनमें से एक भी जीवित नहीं था। और विक्रमजीत मुस्कुराते हुए हमारे सामने खडा था। दुश्मनों के सारे हथियार हमारे काबू में थे। हममें से किसी को एक खरोंच भी नहीं आई थी।”
“फिर, वो क्यों नहीं आया।” – मेजर साहब व्यग्र हो गए – “फिर तो उसे आ जाना चाहिए था।”
“मेजर साहब, उसके बाद दो दिन तक वो हमारे साथ ही था।” – कर्नल भार्गव के चेहरे पर आश्चर्य के भाव आने लगे – “पर दो दिन बाद अचानक से गायब हो गया। हम सब ने उसे बहुत खोजा, लेकिन वो हमें कहीं नहीं मिला। हमने खुफिया तौर पर दुश्मनों के कब्जे में होने की संभावना को भी टटोला। लेकिन वहां भी कोई परिणाम नहीं निकला। हमने कोई भी ऐसा स्थान नहीं है, जहां पर कैप्टन विक्रमजीत की तलाश ना की हो, लेकिन उनकी कहीं भी कोई खबर नहीं मिली। हमें नहीं पता कि उन्हें आसमान खा गया या जमीन निगल गई।” – कुछ रुक कर कर्नल भार्गव सिर झुका कर फिर बोले – “मेजर साहब आप तो जानते ही हैं कि ऐसी स्थिति में हम क्या करते हैं। ये आपके बेटे की वर्दी, जूते और दूसरा सामान है। अब इससे आगे मैं कुछ नहीं कह पाऊँगा।”
कर्नल भार्गव इतना कह कर आँसू पोंछते हुए खडे हो गए और मेजर साहब को सैल्यूट करते हुए इजाजत माँगी। मेजर साहब ने भी हिम्मत जुटा कर खडे होकर सैल्यूट किया। कर्नल भार्गव चले गए।
“बाबू ई, चलो…. “ – अनिरुद्ध के हाथ पकड़ कर खींचने से मेजर वेद प्रकाश शर्मा वर्तमान में आये।
“कहाँ चलना है?” – मेजर साहब ने अनिरुद्ध को गोद में उठाते हुए पूछा।
“घूमी” – अनिरुद्ध बाहर घूमने के लिए मचलने लगा।
“अच्छा, चल” – मेजर वेद प्रकाश शर्मा ने अनिरुद्ध को गोद उठाये हुए ही घर से बाहर का रुख किया।
“मैं ती चअ..?” – अनिरुद्ध लकडी का छोटा सा धनुष लेकर उस पर सरकंडे का तीर चढ़ा कर बोला।
“हाँ, चला। किसे निशाना बनायेगा?” – मेजर साहब ने खुश होकर पूछा।
“बिल्ला.. “ – पेड के ऊपर निशाना बनाते हुए अनिरुद्ध ने अपने तीर का लक्ष्य केंद्रित किया।
“अच्छी बात है, फिर चला।” – मेजर साहब ने सोचा कि बच्चा यूँ ही खेल रहा है। आठ महीने का शिशु क्या कर सकता है। उसे तो ठीक से धनुष और तीर पकडने भी नहीं आते।
अनिरुद्ध ने कान तक डोरी खींच कर सरकंडे का तीर छोड दिया, जो सीधा जाकर एक घोंसले पर झुके हुए बिल्ले को लगा। बिल्ला पेड की टहनी पर रखे हुए चिडिया के बच्चे को खाने के लिए उतावला था। चिडिया जोर जोर से शोर मचा रही थी। लेकिन सब उसे साधारण चहचहाना समझ रहे थे। बिल्ला लड़खड़ा कर गिर पड़ा। उसके गिरते ही अनिरुद्ध ताली बजा कर हँसने लगा, जैसे कोई छोटा बच्चा अपना काम पूरा होता देख कर खुश होता है। मेजर साहब भी उसे खुश देख कर बहुत खुश हुए।
बिल्ले ने जब देखा कि एक छोटा सा बच्चा उसे चिडिया के बच्चे को खाने से रोक रहा है। उसने तुरंत ही अनिरुद्ध पर झपटा मारा। अनिरुद्ध पूरी सतर्कता से एक ओर हट गया और बिल्ला दूर जाकर गिरा। लेकिन बिल्ला अब और अधिक क्रोध में आ चुका था। उसने अनिरुद्ध को मारने का निर्णय लेकर उस पर झपटा मारा, लेकिन तब तक अनिरुद्ध अपने धनुष पर तीर का संधान कर चुका था। देखने वालों के लिए वो केवल एक साधारण धनुष और सरकंडे का तीर था, लेकिन वास्तव में वो एक बिना पर का बाण था। जैसे ही बिल्ला उछला, अनिरुद्ध ने तीर छोड़ दिया। वो तीर बिल्ले को लेकर अंतरिक्ष में कहीं गायब हो गया। तभी अनिरुद्ध ने एक तीर आकाश की ओर छोडा।
अनिरुद्ध की सारी हरकतों को एक व्यक्ति बेंच पर बैठा देख रहा था। मेजर साहब वहां पार्क में अपने एक दोस्त के साथ बातों में व्यस्त थे और अनिरुद्ध अपने खेल में।
“मैंने अभी आपका युद्ध कौशल देखा,” – अजनबी अनिरुद्ध के पास इस तरह से बैठा, मानो उसके साथ मिट्टी का घरौंदा बना कर खेल रहा हो – “आपको देखकर लगता है कि आप एक मंझे हुए योद्धा हैं। क्या मैं आपका परिचय जान सकता हूँ।”
“मैं आज यहाँ तुमसे ही मिलने आया हूँ वज्रनाभ” – अनिरुद्ध ने उसे नाम लेकर पुकारा तो वो चौंक गया – “मेरा नाम अनिरुद्ध है और मैं परा नामक ब्रह्मांड का सर्वोच्च सेनाध्यक्ष हूँ।”
“आप मुझे जानते हैं?” – वज्रनाभ ने हैरान होकर पूछा।
“हाँ, मैं केवल तुम्हें ही नहीं, तुम्हारे साथियों को भी जानता हूँ।” – अनिरुद्ध के चेहरे पर मधुर मुस्कान थी – “अखिल, पवन, लावण्या और दृष्टि। वास्तव में, मैं तुम लोगों को कई दिनों से खोज रहा था वज्र, किन्तु तुम सब कभी भी एक स्थान पर टिकते ही नहीं हो। इस कारण अब से पहले हम मिल नहीं पाए। वो तो मैंने रात को तुम लोगों की बातें सुन ली थीं और मुझे पता चल गया कि तुम यहाँ आने वाले हो। फिर आज मैंने तुम्हें यहाँ देख लिया, तो तुमसे मिलने यहां चला आया। यहां आकर देखा तो एक चिडिया अपने बच्चों को उस बिल्ले से बचाने के लिए गुहार लगा रही थी। मैंने उसके बच्चों को उस दैत्य बिल्ले से बचा लिया। अब देखो, कितनी खुश हैं वो अपने बच्चों को सही सलामत देख कर।” – अनिरुद्ध ने एक नजर चिडिया के घोंसले पर डाली और वज्रनाभ की आँखों ने भी अनिरुद्ध की नजरों का पीछा किया और मुस्कुरा दिया।
“मतलब, आपके पास हम पाँचों की शक्तियाँ हैं।” – वज्र उससे बहुत ज्यादा प्रभावित हुआ।
“नहीं, उससे भी कहीं अधिक।” – अनिरुद्ध ने अपनी शक्तियों का छोटा सा ब्यौरा दिया – “जैसे – जैसे हमारा परिचय बढता जायेगा, तुम्हें मेरी शक्तियों का पता चलता जाएगा। अभी तुम मेरे साथ चलो।”
ये कह कर अनिरुद्ध ने अपना बालक रूप वही छोड़ कर एक और रूप धारण किया और वज्रनाभ को लेकर अदृश्य हो गया।
!! “५. सेना एकत्र करना“ !!
दूर कहीं जंगल में कुछ धीमी सी आहट सुनाई देती है। जैसे वहां सूखे पत्ते चरमरा रहे हों। जैसे कोई दबे पाँव वहाँ धीरे-धीरे चौकन्ना होकर आगे बढ रहा हो। पेडों की ओट में छुपे कुछ साये जैसे उन्हीं आहटों की प्रतीक्षा कर रहे थे। घने सघन जंगल में कुछ ढूँढती हुई वो पाँच जवानों की टुकड़ी थी, जो शायद नक्सलियों को ढूँढ रहे थे, जिन्होंने इस क्षेत्र में आतंक की अति कर रखी थी। इन पांचों को नहीं पता था कि कुछ क्रूर आँखें इनका पीछा कर रहीं हैं। जैसे ही ये वहाँ पहुँचे, लगभग बीस लोगों ने इन्हें एक जाल में बाँध कर चारों ओर से घेर लिया। पांचों जवानों के चेहरे पर क्रोध के भाव उमड आये, हालांकि वो ये जानते थे कि अब उन पांचो में से एक भी नहीं बचने वाला है, क्योंकि वो उनसे लडने की परिस्थिति में थे ही नहीं। बराबर की लडाई होती तो सम्भवतः इन पांचों के हाथों ये बीस तो क्या, सौ और भी होते तो, जीवित नहीं जाते, लेकिन इस समय वे एक जाल में बंधे हुए थे और और धोखे से कैद हुए थे, या फिर कह लो कि अपनी बहुत ही मामूली सी लापरवाही से कैद हुए थे। उन्हें पत्तों के ढेर में छुपा हुआ जाल दिखाई नहीं दिया।
वो बीस लोग, जिनमें से हर किसी के हाथ में ए के सेंतालीस थी, और वो अपने मुँह से आग उगलने को लालायित जान पड़ती थी। उन लोगों ने बँधे हुए फौजियों पर गोली बरसाने के लिए जैसे ही ट्रिगर पर हाथ रखा, उनके हाथों में जाने कहाँ से एक – एक तीर धंसा और उनकी रायफल उनके हाथो से छूट कर गिर गई। तभी वहां एक तेज आवाज गूंजी – “ऐसा जघन्य कृत्य तो कोई कायर ही कर सकता है। जो एक वीर को इस तरह से धोखे से बाँध कर मारे। जो वास्तविक वीर होते हैं, वे तो शत्रु की भी वीरता का सम्मान करते हैं और उनसे लड़ते हुए वीरगति या विजय श्री प्राप्त करते हैं। पर तुम लोग तो लगता है कि इस दिव्य भूमि आर्यावर्त की सन्तान ही नहीं हो, कहीं और से आए हुए महाकायर पुरुष हो। धिक्कार है तुम्हारे पौरुष पर।”
“हमे कायर और खुद को वीर समझने वाले, तुम कौन हो? हमें तो शिक्षा दे रहे हो, लेकिन खुद छुप कर वार कर रहे हो।” – वो नक्सली इधर-उधर देख कर बोल ही रहे थे कि तभी एक तीर और कहीं से आया और उन जवानों का जाल काट दिया। सारे जवानों ने अपने हथियार काबू में किए और बाघ की फुर्ती से एक ओट में हो गए। और वे भी उस अदृश्य आवाज को एक नजर ढूंढ कर फिर से अपने लक्ष्य पर केंद्रित हो गए।
“हम कौन हैं, तुम्हारी मृत्यु से पहले तुम्हें पता लग जायेगा।” – वो आवाज एक बार फिर से उस जंगली वातावरण में गूंजी – “किन्तु तुम्हारे पास एक अंतिम अवसर है अपनी मातृभूमि और अपने देश के काम आने का। यदि तुम मेरी बात मानते हो तो मैं तुम्हें एक ऐसे युद्ध के लिए स्वयं तैयार करूँगा जो इस धरती को दैत्यों के आक्रमण से बचायेगा।”
“हाहाहा…” – वो एक अजीब सी हँसी हँसते हुए बोले – ” ये कोई सतयुग, त्रेता नहीं है जो देवता और दानवों के युद्ध होंगे।”
उन नक्सलियों के ये बात कहते ही वहां एक दृश्य उभरा, मानों कोई चलचित्र उभरा हो और वे नक्सली ही नहीं, पांचो फौजी भी उसी समर भूमि में विचर रहे हों। वहाँ आयुधों से आयुध टकरा रहे थे। कहीं तलवार से योद्धा आपस में जुझ रहे थे, तो कहीं गदा से एक दूसरे पर प्रहार करके एक दूसरे का सीना छलनी किए दे रहे थे। कोई किसी को “ठहर जा! ठहर जा!” कहकर ललकार रहा था, तो कोई एक ही तीर से सैंकड़ों शत्रु सैनिकों को अपना लक्ष्य बना कर सदा की नींद सुला रहा था। उस समर भूमि में कायरों का हृदय दहलाने वाला और वीरों के हृदय में जोश भरने वाला वातावरण था। रक्त की नदियाँ बह रही थी। धरती शवों और कटे – पिटे सैनिकों से पटी हुई थी। वहां एक स्थान पर खडे होने का भी स्थान नहीं था। एक के ऊपर एक कई कई शव पड़े हुए थे। बडा ही घोर संग्राम था।
अचानक ही वो दृश्य गायब हो गया। किसी की भी समझ में नहीं आया कि उन्होंने जो कुछ अभी देखा, वो सत्य था या वे सपना देख रहे थे। उस दृश्य को देख कर उनके रोंगटे अभी तक थर्रा रहे थे। सभी नक्सलियों के हाथो से उनकी बंदूकें छूट चुकी थी और फौजियों के हाथो की ढीली पड चुकी थी।
“ये तो केवल एक झलक है। अभी इससे भी भीषण युद्ध होने वाला है।” – रेशम की सफेद धोती पहने कमर में कमरबंद के साथ म्यान बँधी हुई जिस पर बहुत सुन्दर कारीगरी की हुई थी, लेकिन वो किस धातु की थी, ये समझ से परे था। शरीर पर अंगवस्त्र और जनेऊ एक कंधे पर घुटनों तक आता धनुष और दूसरे कंधे पर तरकश और सिर पर स्वर्ण मुकुट, देखने में कोई दिव्य देव पुरुष जान पड़ता था। उसके साथ एक और युवक, जिसने सामान्य पेंट कमीज पहने हुए थे। ये दोनों अनिरुद्ध और वज्रनाभ थे। अनिरुद्ध अभी भी बोले जा रहे थे – “जब अस्त्र शस्त्र और दिव्यास्त्र चलते हैं, तब ये तुम्हारे खिलौने काम नहीं आते। क्षण मात्र में सैंकड़ों तीर शरीर को कब छेद जाएंगे, पता भी नहीं चलेगा। ऐसे ऐसे अस्त्र चलते हैं जिनके संधान मात्र से धरती आकाश क्षुब्ध हो जाते हैं और जब वो लक्ष्य भेदन करते हैं, तब तो तुम्हारे जैसे यूँ ही प्राण त्याग देंगे।”
उन सभी का पहले ही वो दृश्य देख कर गला सूख रहा था। और इतने सारे शव और कटे हुए एक से एक महारथी और अतुल पराक्रमी धराशायी देख कर उनका कलेजा मुँह को आने लगा।
अनिरुद्ध फिर से बोला – “अब इसमें अगला नंबर आप लोगों का होगा। आप जितने भी लोग हैं, ना केवल यहां बल्कि भारत के किसी भी राज्य में, हमारे लिए मात्र कुछ ही समय का कार्य है सभी को काल मुख करने का। यदि जीवन चाहते हो और अपने देश से रत्तीभर भी प्रेम है तो हमारे साथ सम्मिलित हो जाओ। हम तुम्हें प्रशिक्षित करेंगे। और यदि आप लोग ये देखना चाहते हो कि मैं इतनी दूर तक किसी को कैसे मार सकता हूँ, तो उसका प्रमाण मैं अभी देता हूँ।”
इतना कह कर अनिरुद्ध ने धनुष पर प्रत्यंचा की टंकार दी, जिससे वहां सभी लोगों को भयंकर भूकंप का एहसास हुआ और दसों दिशाओं में उसकी टंकार गूँज उठी। उसका शोर इतना जबरदस्त था कि आकाश में एक साथ हजारों बिजलियाँ कौंध उठी हों। उन सभी के कानों के पर्दे फटने को हो गए। जैसे ही उसने धनुष पर बाण संधान करके छोडा, चारों ओर से चीखने और चिल्लाने की आवाजें आने लगी। मात्र कुछ ही समय में बहुत से आतंकी और नक्सली मौत की नींद सो गए।
ये सब देख कर वे सभी तुरंत ही अनिरुद्ध की सेना में शामिल होने के लिए तैयार हो गए। फौजी तो पहले से ही तैयार थे।
!! “६. विक्रमजीत का बंदीगृह” !!
कहीं दूर हिमालय की कंदराओं में….. जहाँ दुर्लभ बूटियों से भरे हुए पहाड हैं। जल स्रोत झरनों के रूप में बह रहे हैं। ऊँचे – ऊँचे कई प्रकार के पेड़ हैं। दूर से देखने पर बडा ही दिव्य स्थान लगता है। ऐसे लगता है कि परम ऋषियों की तपस्थली है। जहाँ से यज्ञ का दिव्य सुगंध भरा धुंआ उठता रहता है। एक परम दिव्य ऋषि वहाँ कुछ अनुसंधान कर रहे हैं। उनके मुख का तेज दिशाओं को प्रकाशमान कर रहा है। उनका शरीर तपस्या के प्रभाव से अति कृशकाय हो चुका है। लेकिन उस सब की परवाह किए बिना वे निरंतर मंत्रोच्चार में लगे हुए हैं और अत्यंत ही विनीत भाव और मन में शुभेच्छा रखते हुए दिव्य आयुध मन्त्रों का जाप कर रहे हैं। उनके यज्ञ कुंड से कई प्रकार के दिव्य तेज लिए आँखों को चकाचौंध कर देने वाले अस्त्र प्रकट हो रहे हैं और एक – एक करके उनके शरीर में समाहित होते जा रहे हैं। उनका यज्ञ अभी भी अनवरत जारी है। उस यज्ञकुंड और कुटिया के आसपास एक सुरक्षा चक्र फैला हुआ है, जिसका भेदन करना स्वयं काल के लिए भी असंभव है।
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एक घनघोर अंधकारमय स्थान… जहाँ हर वस्तु लोहे से बनी. हुई है। चारों ओर इतना अंधकार है कि हाथ को हाथ सुझाई ना दे। यदि कुछ दिख रहा है तो भयंकर जंगली, खूंखार, नर-भक्षी पशुओं की लाल पीली आँखें, जिन्हें देखना तो दूर सोच कर ही हृदय दहल जाए। तभी वहां एक मद्धम सा प्रकाश हुआ। भयंकर चेहरे वाले ये मनुष्य जिनके चेहरे देख कर ही भय से प्राण काँपने लगे, लगभग दस फुट लंबा कद एकदम काला रंग, लंबे – लंबे बालों से भरा हुआ शरीर, भयंकर लंबे नाखून, भालू जैसे चपटे पैर, चेहरे पर आगे निकले हुए नुकीले लंबे दांत, सिर पर उगे हुए सींग कुल मिलाकर ऐसा स्वरुप कि भय भी भयभीत हो जाये। वहीं एक लौह कक्ष में एक मणि का दिव्य प्रकाश फैला हुआ है, जहाँ एक बडा ही दिव्य योद्धा बेड़ियों में जकड़ा हुआ, योग मुद्रा में बैठा है। उसके आस-पास सब कुछ मलीन होते हुए भी उसका चेहरा एक दिव्य तेज से दमक रहा है। चौड़े कंधे, लंबी भुजाएं, भरा हुआ चेहरा, गुलाबी होंठ, ऊँचा और उन्नत ललाट और उस पर सुन्दर तिलक, ऐसे लगता है जैसे कोई देवता बैठा हो। उसने रेशम की नीली किनारी वाली उज्जवल धवल धोती पहनी हुई थी। शरीर पर नीले रंग का अंग वस्त्र सुशोभित हो रहा था। मन ही मन दिव्य मन्त्रों का जाप कर रहा है।
उसके चारों ओर बडे ही भयंकर राक्षस, दैत्य और असुर पहरा दे रहे हैं। जिनके हाथों में मूसल, तलवार, खडग, शक्ति, गदा, परिघ आदि तरह-तरह के अस्त्र हैं। वे सब उसे तरह-तरह का त्रास देते हुए वे कई प्रकार से उसे प्रताड़ित करते हैं और उसका मनोबल तोडने की चेष्टा करते हैं। उसके आस-पास कई प्रकार के भयानक मायावी दृश्य चल रहे हैं, जो कई बार सत्य प्रतीत होते हैं। कभी तो भयंकर हिंसक पशु आक्रमण करते हुए प्रतीत होते हैं तो कभी प्रेत उसे तरह-तरह का रूप बना कर डराते हुए प्रतीत होते हैं, जिनमें कुछ का मुँह सुई जैसा है तो किसी का मुँह ही नहीं है। किसी के चार पैर हैं, किसी का एक भी पैर नहीं है। किसी के दस आँखें हैं, किसी के एक भी नहीं है। किसी का केवल सिर ही है और किसी का केवल धड। कभी चारों ओर से अस्त्र शस्त्र उसे काटने के लिए आते हुए दीख पड़ते हैं तो कभी ऐसे लगता है कि आँधी तूफान से बडे विशाल पेड टूट कर उस पर गिरने वाले हैं। कभी उस वातावरण को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि ये सभी दैत्य उसे खाने के लिए उद्धत हैं।
“तुम हमें इस मृत्यु लोक के सभी रहस्य बता दो।” – उनमें से एक जो सम्भवतः उनका सेनानायक था, जिसने सिर पर चमचमाता स्वर्ण मुकुट और रेशमी वस्त्र धारण किए हुए थे, उन प्रहरियों की तुलना में कम भयानक लग रहा था, उस दिव्य पुरुष को मानों चेतावनी और लालच दोनों ही दे रहा था – “तो हम तुम्हें कोई त्रास नहीं देंगे और तुम्हें स्वतंत्र भी कर देंगे। अन्यथा तुम हमें जानते ही हो, हम दया धर्म को नहीं जानते।”
“प्रलम्ब, जब तुम इतना अच्छे से जानते हो,” – वो दिव्य पुरुष मानो उसे ललकारने वाले मगर मुस्कुराते कुछ उपहास सा उड़ाने वाले सुर में बोला – “तुम लोग अधर्मी और आततायी हो, तब तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि मैं तुम्हारी इच्छा पूरी कर दूँगा।”
“विक्रमजीत, तुम पिछले डेढ वर्ष से यहां हो, तो तुम्हें अब तक हमारी शक्ति का एहसास हो चुका होगा। तुम्हें ना तो कोई यहां ढूंढ सकता है और ना ही तुम यहाँ से किसी भी प्रकार से बाहर निकल सकते हो। फिर तुम किस बात पर इतना दम्भ कर रहे हो? यदि तुम्हें ये लगता है कि हम तुम्हारी पत्नी को बन्दी नहीं बना सकते तो, ये भी तुम्हारा भ्रम है। हम शीघ्र ही उसे जीत कर अपने अधीन कर लेंगे। तब तुम दोनों को हमें इस पृथ्वी के सभी रहस्य बताने होंगे। हाहाहा…..” – भयंकर अट्टहास करता हुआ प्रलम्ब विक्रमजीत को तोडने की एक और नीच चेष्टा करता है।
“हें हें हें… ही ही ही… “ – हँसता हुआ विक्रमजीत उसका उपहास करता है – “तुम उसी छल के दम पर गंगा को बन्दी बनाने का सपना देख रहे हों, जिससे तुमने मुझे बन्दी बनाया था। तुमने मेरी पत्नी को क्या समझा है, जिसने ऐसे समय में तुम्हें पराभव का मुँह दिखाया, जिस समय वो स्वयं प्रसव पीडा झेल रही थी। तब तुम्हें क्या लगता है कि तुम अब उसे जीत पाओगे? तुम्हारा आज भी पराभव ही होगा। और वैसे भी पति के साथ स्त्री आधी होती है और यदि उसका पति ही संकट में हो, तो स्त्री चार गुणा हो जाती है। उस समय वो जो संकट बन कर उभरती है, उस संकट से तो स्वयं संकटों का संकट भी डरता है। तब तुम्हारे जैसे धूर्त, अधर्मी और दुष्टों की बिसात ही क्या है? मेरी गंगा को कोई छू भी नहीं सकता। और उसके जीवित रहते तुम कुछ भी करके मुझे प्राण दंड नहीं दे सकते।”
विक्रमजीत के ऐसे कटु वचन सुन कर प्रलंब अपनी तलवार निकाल कर उसे मारने को दौड़ा। लेकिन तुरंत ही ठिठक गया। विक्रमजीत के चेहरे पर भय का कहीं नामोनिशान नहीं था। वो वैसे ही मुस्कुरा रहा था, जैसे पहले मुस्कुरा रहा था। प्रलंब उसे खा जाने वाले नेत्रों से देखता हुआ उस कक्ष से बाहर चला गया। उसके जाते ही विक्रमजीत वापिस उसी ध्यान की मुद्रा में बैठ गया।
अनिरुद्ध ने एक ऐसा स्थान देखा जहाँ सेना को एक बडे युद्ध के लिए तैयार किया जा सके। जो खुला होकर भी किसी की दृष्टि में ना हो। जहाँ एक लक्ष्य सेना तैयार की जा सके। अनिरुद्ध ने पहले अपने सेनानायकों को तैयार किया। ये वो सैनिक थे जो हमारे समाज में सुपर हीरो बन कर छाए हुए थे। जो किसी अद्भुत दिव्य शक्ति के स्वामी थे और समाज की सहायता किया करते थे।
वज्रनाभ, जो एक इशारे मात्र से बडे से बडे चट्टान को एक क्षण में रेत में बदल दे। किसी भी भारी से भारी और तीव्र गति से अपनी ओर आती चलायमान वस्तु को रोक दे। ऐसी कई शक्तियाँ थीं उसमें।
माया, जो हर प्रकार की मायावी और रासायनिक विद्या की सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता थी। जो कई प्रकार के मायावी और रासायनिक अस्त्र शस्त्र तैयार करने और उनके उपयोग करने में निपुण थी।
दृष्टि, जो दिव्य दृष्टि की स्वामिनी थी और कहीं भी कुछ भी देख सुन सकती थी। किसी भी स्थान का पता लगा सकती थी। किसी की भी स्मृति मिटा सकती थी और वापिस ला सकती थी। किसी भी दुर्घटना को होने से रोक सकती थी।
लावण्या, रूप की धनी, अयस्कों से कुछ भी निर्माण करने की शक्ति रखने वाली एक महान शिल्पकार थी। टूटा हुआ अस्त्र उसके हाथ में आते ही ठीक हो जाता था।
पवन, इन्हें पवन देव की हर शक्ति प्राप्त थी। किसी को भी पलक झपकते ही कहीं भी पहुँचा देना। प्राणवायु सोखना, किसी भी वस्तु को उड़ा देना, अस्त्र शस्त्र संचालन में निपुण और महान पराक्रमी।
अखिल, किसी के भी मन की बात सुन लेना। शत्रु के शस्त्र इन पर आघात करने के स्थान पर इनके ही हो जाते। शत्रु इनके समक्ष आते ही अपनी शक्ति खो देता था। ये ऐसे सुरक्षा कवच तैयार करने में भी पारंगत थे जिसे, शत्रु का कोई भी अस्त्र शस्त्र किसी भी प्रकार से भेद नहीं सकता।
इन छओं को हर प्रकार के अस्त्र शस्त्र में निपुण करके अनिरुद्ध ने एक विशाल सैन्य शिविर तैयार किया। और इन पांचों को सेना एकत्र करने और उन्हें विशेष सैन्य प्रशिक्षण देने के लिए आज्ञा देकर चला गया।
!! “७. सैन्य प्रशिक्षण” !!
“दृष्टि, माया, लावण्या” – अनिरुद्ध उन तीनों को संबोधित करता हुआ बोला – “तुम तीनों एक एक वीरांगनाओं की सेना तैयार करोगी। मेरा ये मानना है कि स्त्रियां पुरुषों से ज्यादा साहसी होती हैं। किन्तु फिर भी ये ध्यान रखना कि किसी छोटे अबोध बच्चे से उसकी माँ ना छिन जाये।”
“जी, बहुत अच्छा” – तीनों ने एक ही सुर में सहमति जतायी।
“अखिल, पवन और वज्रनाभ” – अनिरुद्ध ने बाकी तीनों योद्धाओं को संबोधित किया – “तुम तीनों को पुरुषों की सेना एकत्र करके प्रशिक्षित करनी है। मैं शीघ्र ही तुम सबसे भेंट करता हूँ।”
“जी” कह कर उन तीनों ने भी सहमति जतायी।
अनिरुद्ध उन्हें काम सौंप कर घर जाकर वापिस से एक सवा वर्ष का बालक बन गया। माँ रसोईघर में काम कर रही थी। दादी गेंहू साफ कर रही थी और दादा जी किसी से फोन पर बात कर रहे थे। उन्हें देख कर ऐसे लग रहा था कि वे अभी भी विक्रम की खबर जानना चाहते थे कि विक्रम का कहीं अता पता था या नहीं। अनिरुद्ध चुपचाप अपने बिस्तर पर जाकर सो गया। कुछ देर लेटे हुए ही उसने अपने पिता की कुशलता का अवलोकन किया और मुस्कुराते हुए एक अदृश्य किरण उनकी ओर भेजी, जो जाकर विक्रम के हृदय में समाहित हो गई। विक्रम ध्यान मुद्रा में बैठा हुआ भी वात्सल्य भाव से मुस्कुरा दिया।
मतंग ने अनिरुद्ध का आवाहन किया। उसने जब उस स्थान पर जाकर देखा तो नागों और सर्पों की विशाल सेना खड़ी थी। जिन्हें देख कर अनिरुद्ध प्रसन्न हो गया।
“ये नागराज विष्वक्सेन और उनकी पत्नी नागरानी कयाधू” – मतंग उनका परिचय देता हुआ बोला – ” ये इनकी एक सहस्त्र इच्छाधारी नागों की सेना है। इनमें से आह्लाद, वीती, इंद्रसेन, पद्म, अघ, आयु, पुष्पक और लोमस सर्वश्रेष्ठ योद्धा हैं और किसी भी तरह के अस्त्र शस्त्र चलाने में निपुण होने के साथ-साथ कई शक्तियों के स्वामी भी हैं। ये इनकी इस सेना के सेनानायक भी हैं। और ये मेरी पत्नी उलूपी और मेरा बेटा रुद्र। और ये मेरी अति तीव्र और विषैले सर्पों की सेना, इनके विष से बचना अत्यंत कठिन है। ये युद्ध में भी पारंगत हैं। और तो और रात्रि युद्ध में भी इनका सामना करना अत्यंत दुष्कर है।”
“बहुत अच्छा” – अनिरुद्ध उसकी बातों से प्रभावित होने के स्थान पर उनकी परीक्षा लेना चाहता था, ताकि युद्ध के समय कोई भी परेशानी ना हो – “देखते हैं कि ये कितने पारंगत हैं। मेरे साथ आओ। बाकी आप लोग कुछ देर यहीं छिप कर विश्राम करो, मैं शीघ्र ही लौटता हूँ।”
अनिरुद्ध उन दोनों सेनाओं के सेनानायको को लेकर एक क्षण में ही ओझल हो गया।
बाजार में काफी रौनक थी। चारों ओर चहल पहल थी। एक दुकान में पाँच गुंडे दुकानदारों से जबरदस्ती पैसा छीन रहे थे, उनकी सुरक्षा के नाम पर। जो नहीं दे रहा था, उसे पीट कर उससे पैसा वसूला जा रहा था। पुलिस के कुछ नुमाइंदे वहां गश्त पर थे, लेकिन उन दुकानदारों की सहायता के लिए कोई आगे नहीं आया। वो बार – बार सहायता के लिए गुहार लगा रहे थे।
“तुम्हें इन पांचों को” – अनिरुद्ध ने उन सेनानायको को संबोधित किया – “यहां इस पब्लिक की नजर में आये बिना सबक सिखाना है। लेकिन ध्यान रहे कि इनमें से एक भी मरना नहीं चाहिये। ये हमारे भावी सैनिक हैं और युद्ध में हमारा बहुत अधिक सहयोग करने वाले हैं। एक बात और ये तुम्हारी बुद्धि कौशल और निर्णय लेने की क्षमता की परीक्षा है, ये ध्यान रखना।”
वे सभी सेनानायक अनिरुद्ध के सामने सिर झुका कर अपने कार्य पर लग गए। कुछ ही देर में, बिना कोई हलचल किए वे सब उन पाँचों गुंडों को लेकर अनिरुद्ध के सामने थे। अनिरुद्ध उन्हें देख कर मुस्कुरा दिया और उन सबको लेकर सर्पों और नागों की सेना के पास आ गया। और सारी की सारी सेना को उस गुप्त स्थान पर ले आया जहाँ वो अपने सैनिकों को प्रशिक्षण दे रहा था। ये सब कुछ देख कर वे पाँचों गुंडे डर गए।
“ये तुम हमें कहाँ ले आये भाई? तुम सब तो खुद ही इतने खतरनाक लग रहे हो, तुम्हें किससे सेफ्टी चाहिये?” – वे पांचों घबरा गये, वहां पर सर्प और नागों की असंख्य सी सेना देख कर।
थोडी ही देर में वहाँ पर शेरों, बाघों, अश्वों और हाथियों की सेना भी एकत्र होने लगी। जिन्हें देख कर वे और भी अधिक भयभीत हो गए और “हमें नहीं चाहिए कोई हफ्ता वसूली, हमें जाने दो।” कहकर भागने लगे। अनिरुद्ध का इशारा पाकर एक बब्बर शेर उनके सामने आकर खडा हो गया, जिसकी एक दहाड सुनकर ही पाँचों बेहोश हो गए।
कुछ समय पहले…..
“तुम्हें सबसे सेफ्टी तो हम प्रोवाइड करता है,” – उन पाँच गुंडों में से एक बोला – “और तुम अपन को हफ्ता देने में रोता है।”
“हमारे लिए तो सबसे बडा खतरा ही तुम हो।” – दुकानदार उनके सामने मिमियाने लगा – “थोडी बहुत तो कमाई होती है, उसे तुम लोग हफ्ता के बहाने के बहाने से ले जाते हो। हमारे बच्चो को क्या हम भूखा ही मार दें।”
“भूखा क्यों मारने का” – उनमें से एक मंहगी चॉकलेट निकाल कर खाता हुआ बोला – “अपन उनको अपने माफिक बनायेगा।”
“अरे भाई, जरा ये सामान देना।” – दुकानदार उन गुंडों की बात सुनकर तिलमिला कर रह गया। लेकिन ग्राहक देख कर शांत हो गया। वीति ने टेढी नजरों से उन गुंडों को देखा और मुस्कुराते हुए दुकानदार को एक सामान की लिस्ट सौंपी, जो इस समय सर्वांग सुन्दरी का रूप धरे हुए थी। उसके साथ उसका भाई आह्लाद भी था।
दुकानदार उन गुंडों को नजरअंदाज करके लिस्ट में लिखा सामान तौलने लगा।
“सूसससस सूसससससस ए छप्पनछुरी, पहले इधर अपन आएला है।” – उनमे से एक गुंडा लंबी सीटी मारते हुए अपनी सारी लज्जा त्याग कर वीति से बोला – “तो पहले अपन का काम होयंगा।”
“आपको क्या चाहिए” – वीति मधुर मुस्कान अपने अधरों पर सजा कर बोली।
“इससे हफ्ता, और अब साथ में तू भी” – उनमें से एक गुंडे ने नीचतापूर्वक वीति की तरफ हाथ बढ़ाया।
“हफ्ता ही क्यों?” – आह्लाद ने वीति तक पहुंचने के पहले ही उस गुंडे का हाथ पकड़ लिया – “तुम सब हमारे साथ चलो, हम तुम्हें, पक्ष, महीना, तिमाही, छमाही, सालाना…. सब कुछ देंगे। और इतना देंगे कि बटोरते बटोरते थक जाओगे किन्तु वो समाप्त नहीं होगा। बस बदले में तुम्हें हमें सेफ्टी प्रोवाइड करनी होगी।”
“ऐसा क्या?” – अपनी माँ की कोख की लजाते हुए वे निर्लज्जता पर उतारू थे – “ये छप्पनछुरी भी मिलेगी क्या अपन को?”
“तुम लोग बाहर खड़ी हमारी गाडी में बैठो, तुम्हें और भी बहुत कुछ मिलेगा।” – आह्लाद ने अपने गुस्से को दबा कर उन्हें बाहर गाडी में बैठने को कहा और फिर दुकानदार को संबोधित किया – “आज के बाद ये लोग या पुलिस वाले आप लोगों को परेशान नहीं करेंगे। ये आप लोगों के नुकसान की भरपाई के लिए।” – कुछ रुपये उस दुकानदार को देकर वीति और आह्लाद अपनी गाडी में आकर बैठ गए और उन पाँचों को लेकर अनिरुद्ध के पास पहुँचे।
वर्तमान में….
“इन पांचों को चैतन्य करो।” – अनिरुद्ध वीति को संबोधित करते हुए बोला – “फिर मैं इनसे बात करता हूँ।”
“जी, बहुत अच्छा।” – वीति, इंद्रसेन और दृष्टि को लेकर उन पाँचों की चिकित्सा करने लगी।
उन तीनों ने मिलकर पांचों गुंडों को चैतन्य दिया, साथ ही साथ दृष्टि ने उनके दिमाग से गंदगी की सारी चेतना नष्ट कर दी। और अब वे पूरी तरह से सामान्य मनुष्यों की तरह आचरण कर रहे थे।
!! ”८. अनिरुद्ध की शिक्षा” !!
हिमालय की कंदराओं में बैठे ऋषि का यज्ञ पूर्ण हुआ। वे सभी देवो को प्रणाम करके उठे। स्नान ध्यान करके भोजन किया और चल दिये।
आज अनिरुद्ध का पांचवां जन्मदिन है। घर में खुशी के वातावरण के साथ – साथ मेजर शर्मा के मन में एक अजीब सा डर भी बैठा हुआ है कि आकाशवाणी के अनुसार अब ये अपने गुरु के साथ चला जायेगा। पर अनिरुद्ध खुश है तो वे भी खुद को खुश ही दिखा रहे हैं। यूँ तो अनिरुद्ध का पास ही एक विद्यालय में प्रवेश दिलवा दिया गया है और उस की नर्सरी, के. जी. की शिक्षा पूर्ण हो चुकी है। इस वर्ष प्रथम कक्षा में आया है। वे पाठ भी सभी याद हैं उसे। गंगा उनको परेशान देख कर उनके पास आती है।
“पिता जी, क्या बात है?” – गंगा ने बेचैन से घूमते मेजर शर्मा और सोफे पर गुमसुम बैठी माया देवी से पूछा।
“बेटा, पहले विक्रम चला गया और अब आज ये भी चला जायेगा।” – मेजर शर्मा अपनी व्यथा गंगा को बताते हैं, जिसे सुनकर माया देवी भी अपनी अपने पल्लू से अपनी आँखें पोंछती हैं – “हम तो इन्हीं को देख कर जी रहे थे। अब क्या रह जायेगा हमारे जीवन में।”
“ये कैसी बात कर रहे हैं आप पिता जी,” – गंगा ने उन्हें सम्हालते हुए उनको चाय दी। – “पहली बात तो हम योद्धा हैं। हमारा कर्तव्य अपने सुखों को भूल कर समाज को सुरक्षा प्रदान करना है। और दूसरी बात, यदि अनि अभी ही कहीं चला गया तो उसकी पढ़ाई-लिखाई का क्या होगा? अभी तो वो पहली कक्षा में ही आया है। आप निश्चिंत रहिए हमारा अनिरुद्ध हमारे पास ही रहेगा। और अब आप प्रसन्न मन से इसके जन्मदिन के उत्सव का आनंद लीजिए। वैसे भी थोडी देर में इसे आशीर्वाद देने गुरुदेव भी आते होंगे।”
“तो, क्या फिर वो आकाशवाणी झूठ थी?” – वेद प्रकाश शर्मा जी असमंजस में पड़ गए गंगा की बातें सुनकर – “जिसने स्पष्ट कहा था कि ये अपने गुरु के साथ चला जायेगा। तुम्हारी बातें मुझे बिल्कुल समझ नहीं आ रही हैं।”
“नहीं पिता जी, “ – गंगा उनका संदेह दूर करती हुई बोली – “वो आकाशवाणी भी सत्य थी और मैं जो कह रही हूँ, वो भी सत्य है। अनिरुद्ध गुरुदेव के साथ जाएगा, उन्होंने कुछ विशेष अनुसंधान करके दुर्लभ अस्त्र शस्त्र बनाये हैं। उन शस्त्रों की शिक्षा लेने उसे जाना ही होगा। किन्तु आप निश्चिंत रहिए, वो आपसे दूर नहीं जायेगा। और अब तो वो समय भी आने वाला है, जब आपका बेटा आपकी आँखों के सामने होगा।”
“क्या तू सच कह रही है बिटिया?” – काफी समय से अपने कलेजे में दबी हुई एक आह को बाहर निकालते हुए माया देवी बोली – “मैं तो कब से अपने लाल का मुँह देखने को तरस रही हूँ। कान सुनते हैं कि वो वीरगति को प्राप्त हुआ, पर मेरा मन कहता है कि मेरा लाल सुरक्षित है। उसे कुछ नहीं हुआ।”
“माँ, रोओ मत।” – गंगा उन्हें ढांढस बंधाने लगी, जबकि वे आँचल मुँह में दबाये अभी भी फफक रहीं थीं – “मैं सच कह रही हूँ। आपका बेटा जीवित है और सुरक्षित है। मुझे वरदान है कि मेरा सुहाग अटल रहेगा। और वैसे भी उन जैसे वीर पुरुष को कोई भी बुरी शक्ति स्पर्श भी नहीं कर सकती। आपका आशीर्वाद भी तो सुरक्षा कवच बन कर उनकी रक्षा करता है।”
कहीं दूर से एक गाडी में किसी स्त्री की दबी हुई चीख सुनाई पडती है। चार लडके एक लडकी को जबरन गाडी में डाल कर ले जा रहे थे। वो चीखने की कोशिश कर रही थी, लेकिन मुँह दबा होने के कारण चीख भी दब गई थी।
“सा…, हमारे खिलाफ बयान देगी तू?” – घनघोर जंगल में चलती हुई उस गाडी में उन पाप के परिणामों में से एक बोला – “तुझे तो हम जिंदा गाढ देंगे और किसी को तेरी भनक भी नहीं लगेगी कि तू इस दुनियां में थी भी या नहीं।”
“इसे तो तभी खत्म कर देना चाहिए था” – उनमें से दूसरा अपने पीले दांत पीसता हुआ बोला, जबकि मुँह और हाथ पैर बँधे होने के बाद भी लडकी के चेहरे पर भय का लेशमात्र भी नामोनिशान नहीं था, वो उन्हें अभी जिंदा खा जाने वाली आँखों से देख रही थी – “जब इस ह….. ने हमें वो सब करते हुए देखा था तो आज ये नौबत ही नहीं आती।”
“घूर कर क्या देख रही है?” – तीसरा अपनी नपुंसकता दर्शाता हुआ बोला – “तुझे हमसे बचाने यहां इस सुनसान एरिया में कोई नहीं आने वाला।”
वो लडकी अभी भी उन्हें घूरते हुए दबी हुई चीख निकाल रही थी कि अचानक झटके से उनकी गाडी रुकी और लडकी की आँखें खुशी से चमक उठी। गाडी को आगे बढाने की कोशिश की, लेकिन गाडी हिल भी नहीं रही थी। उन चारों ने बाहर झाँक कर देखा, उन्हें कोई दिखाई नहीं दिया। लडकी के हंसने की आवाज आने लगी। लडकी के पास बैठे लडके ने उसके सिर पर प्रहार करने की कोशिश की, लेकिन उसका हाथ वहीं अकड गया। उनमें से एक बाहर निकल कर देखने लगा तो उसे कोई भी दिखाई नहीं दिया।
“कौन है यहाँ?” – वो कायर अपनी वीरता की ताव देता हुआ चिल्लाया – “जिसे अपनी जान प्यारी नहीं है। इस लडकी के साथ वो भी आज अपनी जान से जाएगा।”
“अपने काल से मिलने की इतनी भी क्या जल्दी है।” – अनिरुद्ध एक छोटे से बालक के रूप में अपने हाथों में धनुष-बाण लिये उनके सामने खडा था – “थोडा तो संयम रखो। ठंडा करके खाओ, गरम गरम क्यों निगलते हो।”
“तू हमारा काल है, हा हा हा ही ही ही “ – वो लड़का निर्लज्जता से हँसते हुए उसकी ओर बढ़ने लगा – “तुझे तो मैं अभी उठा कर फेंक देता हूँ।”
“हं हं हं,” – हल्के से हँसते हुए जैसे ही अनिरुद्ध ने अपना धनुष कंधे पर रखा, उनकी गाडी अपना बैलेंस खोती हुई सामने एक विशाल पेड से बडी जोर से टकराई, जिसे देख कर वो चौंक गया। गाडी का ड्राइवर जख्मी हो गया और पीछे बैठे दोनों लडके आगे की सीट से टकराये। सिर सहलाते हुए वे तीनों भी गाडी से बाहर निकले, जबकि लडकी अभी भी अन्दर सीट पर ही बैठी हुई थी। वे चारों गुस्से में अनिरुद्ध को मारने के लिए दौड़े – “तुम चारों केवल मुझे छू कर दिखा दो। मैं समझ जाऊँगा कि तुम बहुत बहादुर हो।”
वे उसे जैसे ही मारने के लिए आगे बढते, उससे दो फुट दूरी पर ही किसी अज्ञात और अदृश्य दीवार से टकरा कर बडी जोर से गिरते। जब उन्हें कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने एक बार फिर लडकी को निशाना बनाया। लेकिन ये क्या… अब वो लोग गाडी तक भी नहीं पहुंच पा रहे थे। और बालक अनिरुद्ध जैसे कोई खेल खेल रहा हो, उन्हें देख – देख कर हँस रहा है। अनिरुद्ध ने जाकर गाडी का दरवाजा खोला और उस लडकी के बंधन खोल दिये। और उसे उन्हें मारने का आदेश दे दिया। उस लडकी ने उन्हें मार मार कर अधमरा कर दिया और उन्हें उठा कर पुलिस के हवाले कर दिया। जब उनके पिता उन चारों को बचाने पहुंचे तो उन्हें भी भ्रष्टाचार और देशद्रोह और कई दूसरे आरोपों में आयकर विभाग, आई आई ए, आई बी ने उन्हें अरेस्ट कर लिया।
“टिंग – टोंग टिंग – टोंग” – दरवाजे पर घंटी बजने के साथ ही गंगा ने दरवाजा खोला तो एक बडे ही विद्वान और सभ्य पुरुष को दरवाजे पर खड़ा पाया।
“आइये,” – उनका स्वागत करते हुए गंगा उन्हें अन्दर लाई और सोफे पर बैठने के लिए कहा। वो जल्दी से रसोईघर में जाकर पानी लेकर आई और उन्हें देकर बोली – “प्रणाम गुरुदेव, आपको यहां देख कर मुझे बहुत हर्ष हो रहा है।”
“सौभाग्यवती भव” – गंगा को आशीर्वाद देकर वे बोले – “तुम्हारे ससुर जी और पुत्र कहाँ है?”
तभी अन्दर से मेजर वेद प्रकाश शर्मा अपने पोते अनिरुद्ध के साथ बाहर निकले, जो उन्हें तेईस का पहाड़ा सुना रहा था। उन्हें देख कर गुरु जी मुस्कुरा दिए। अनिरुद्ध ने गुरुदेव को देखते हुए तुरंत ही आगे बढ कर उनकी चरण वंदना की। मेजर साहब ने भी गुरुदेव के चरण छुए।
“पुत्री, आज सन्ध्या वंदन के बाद ही हम जायेंगे।” – गुरुदेव गंगा को संबोधित करते हुए बोले – “तुम हमारे जाने की व्यवस्था करो।”
“गुरुदेव, मेरी एक विनती है,” – मेजर शर्मा हाथ जोड़ कर उनके चरणों में बैठ कर गंगा के अनुमोदन करने से पहले ही अनुनय विनय करने लगे – “यदि आप स्वीकार करें तो?”
“कहो वत्स?” – गुरुदेव ने मुस्कुराते हुए मेजर शर्मा की ओर देखा, जैसे वो जानते हों कि वे क्या कहने वाले हैं।
“केवल इतना ही कि आज रात्रि आप यहीं विश्राम करें और हमें अपनी सेवा का अवसर प्रदान करें। हमारे लिए इससे बडा सौभाग्य और कोई नहीं है कि हमें गुरु चरणों की सेवा का लाभ मिले।” – मेजर साहब ने पहले हाथ जोड़े और फिर उनके चरण पकड लिए।
“अच्छी बात है।” – गुरुदेव ने उनका आतिथ्य स्वीकार कर लिया – “हम कल सुबह प्रस्थान करेंगे।”
गुरुदेव ने भोजन किया और विश्राम करने लगे। शाम को वहां अच्छी खासी पार्टी थी। बहुत से लोग आए थे अनिरुद्ध के पाँचवे जन्मदिन पर।
अगले दिन सुबह ही अनिरुद्ध गुरुदेव के साथ चला गया। हिमालय की उन्हीं कंदराओं में पहुंच कर गुरुदेव उसे एक – एक मंत्र सिखाते हुए प्रत्येक अस्त्र का संधान, उपयोग और मारक क्षमता को बहुत बारीकी से समझाने लगे। उन्होंने बताया कि प्रत्येक अस्त्र सम्पूर्ण ब्रह्मांड के कई लोकों को एक साथ नष्ट करने की क्षमता रखता है। इसलिए इनका प्रयोग केवल प्राणों पर संकट आने पर ही बहुत सोच समझकर करना। अपने शस्त्रों का प्रयोग सदा मानवता की रक्षा के लिए करना। यदि तुम कहीं अन्याय होता देखो, किसी स्त्री का अपमान होते देखो, कहीं बच्चों और बुजुर्गों का शोषण देखो तो कभी चुप मत बैठना। क्योंकि यदि सामर्थ्यवान के सामने कोई अत्याचार होता है और वो उसे रोकने के स्थान पर मौन धारण कर ले, तो उसका सारा पाप उस सामर्थ्यवान को लगता है।
गुरुदेव से सारी शिक्षा और ज्ञान लेने के बाद उनसे विजय का आशीर्वाद लेकर अनिरुद्ध वापिस घर आ गया।
!! “९. कराल का शक्ति संचय” !!
गंगा और उसकी छोटी सी सेना से कई बार पराजित होने के बाद कराल आत्ममंथन करता है कि वो क्यों पराजित हो रहा है? वो अपने अपने पुत्र और लौहपुरम् लोक के युवराज मराल, महामंत्री विकराल, प्रधान सेनाध्यक्ष अनिष्ट और प्रधान मंत्री कबंध से इस विषय पर चर्चा करता है।
“तुम लोगों को क्या लगता है?” – कराल अपनी पराजय से बहुत चिंतित था – “हम एक तुच्छ सी स्त्री और हमारी तुलना में उसकी ना के बराबर सेना से कैसे पराजित हो रहे हैं?”
“महाराज, उसका शक्ति संचय हमसे कहीं अधिक है।” – प्रधान सेनाध्यक्ष अनिष्ट ने अपने विचार व्यक्त किये – “एक तो वो स्त्री, दूसरी योद्धा और तीसरे उसके पति को हम ने बन्दी बना रखा है। जिससे उसकी शक्ति बढ़ गई है।“
“तो तुम्हारा तात्पर्य है अनिष्ट, कि ये स्त्रियां हम से अधिक शक्तिशाली होती हैं?” – महामंत्री विकराल, अनिष्ट की बातों से सकते में आ गया।
“नहीं, महामंत्री जी, मेरे कहने का तात्पर्य है कि स्त्रियां हम पुरुषों से कहीं अधिक नीतिवान होती हैं। और हम इनकी नीतियों में उलझ कर पराजित हो जाते हैं।” – अनिष्ट ने अपना मंतव्य स्पष्ट किया।
“मैं सेनाध्यक्ष अनिष्ट से सहमत हूँ।” – युवराज मराल को अपनी स्त्री याद आई, और वो मुस्कुरा उठा।
“मैं भी अनिष्ट से सहमत हूँ, महाराज।” – प्रधानमंत्री कबंध ने भी अपने अनुभव को आधार बनाकर अनिष्ट की बात पर विचार किया।
“वो तो ठीक है, लेकिन इसका उपाय क्या है?” – कराल को अभी भी घुटन सी महसूस हो रही थी कि कैसे वो मात्र एक स्त्री से पराजित हो रहा है। उससे केवल सौ सैनिकों के साथ लडने वाली एक स्त्री नहीं जीती जा रही है। यही बात उसके पौरुष पर चोट कर रही थी।
“महाराज, हमारी आधे से अधिक सेना और कई सेनानायक इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं, जो हमारे लिए भारी क्षति है। इसलिए हमें युद्ध विराम करके वापिस चलना चाहिए।” – प्रधानमंत्री कबंध ने अपनी राय दी – “और फिर से अपनी शक्ति संचय करना चाहिए।”
“अपनी पराजय स्वीकार करके?” – लौहपुरम् अधिपति क्रोधित हो उठे।
“महाराज, पराजय तब तक नहीं होती, जब तक हम उसे स्वीकार नहीं कर लेते।” – महामंत्री विकराल भी प्रधानमंत्री कबंध से सहमत दिखाई दिए।
“तुम कहना क्या चाहते हो।” – कराल कुछ समझने की चेष्टा करने लगा – “स्पष्ट कहो|“
“महाराज आपको जरासंध और कृष्ण का युद्ध स्मरण है?” – प्रधानमंत्री कबंध अपनी बात को उदाहरण देकर स्पष्ट करने लगे।
“हाँ, स्मरण है। तो….” – कराल का कौतूहल जाग उठा।
“तो ये महाराज, उसने जब मथुरा पर पहला आक्रमण किया तो उसे पूरा विश्वास था कि उसकी लाखों की सेना के सामने मथुरा की सात सौ, आठ सौ सैनिकों की सेना नहीं टिकेगी।” – कबंध ने अपनी जानकारी साँझा की – “फिर भी उसने कुटिलता से काम लिया और कृष्ण और बलराम को अकेले युद्ध के लिए बुलाया। उसे पूरा विश्वास था कि एक तेरह वर्ष का बालक उसकी इतनी बड़ी सेना के समक्ष ठहर ही नहीं सकता। कृष्ण और बलराम अपने अक्रूर और दस साथियों के साथ निःशस्त्र जरासंध के सामने आये थे और उन्होंने ना केवल जरासंध की सेना को पराजित किया, जरासंध को भी अपमानित करके जीवन दान देकर छोड दिया। किन्तु जरासंध ने पराजय स्वीकार नहीं की और प्रतिवर्ष अपार सेना लेकर मथुरा पर आक्रमण करने लगा। वो सत्रह बार कृष्ण से पराजित हुआ, किन्तु अठारहवीं बार कृष्ण को मथुरा छोड़कर भागना पड़ा और समुद्र में जाकर शरण ली। इससे यही सिद्ध होता है महाराज, कि इस तरह से पराजित होने से पराजय नहीं होती। पराजय तब होती है या तो हम वीर भूमि पर वीरगति को प्राप्त हुए हों, या फिर हमने स्वयं पराजय स्वीकार कर ली हो। और हमारे साथ तो दोनों ही परिस्थितियाँ नहीं हैं।”
“हाँ, बात तो तुम्हारी सही है।” – कबंध की बात सुनकर कराल आँखें चमक उठी।
“तो महाराज, हम युद्ध विराम करके चलते हैं अपने लोक को। एक बार फिर से शक्ति संचय करते हैं और फिर इन पर पूरी शक्ति के साथ आक्रमण करेंगे।” – इस बार महामंत्री विकराल बोले।
“और फिर महाराज, जब तक विक्रमजीत हमारा बन्दी है, “ – इस बार युवराज मराल ने अपनी राय सबके सामने रखी – “तब तक हमारी तो पराजय है ही नहीं। पराजय तो फिर भी उन्हीं की है कि उनका इतना बडा सेनानायक हमारा बन्दी है।”
“जी महाराज, युवराज सही कह रहे हैं।” – प्रधान सेनाध्यक्ष ने भी मराल की बात पर सहमति जताई।
” तो ये तय रहा, हम कुछ वर्ष पश्चात फिर से आक्रमण करेंगे।” – कराल ने उत्साहित होते हुए घोषणा की – “अभी हम युद्ध विराम करके चलते हैं और एक बार फिर से शक्ति संचय करते हैं।”
सभा समाप्त हुई और कराल युद्ध विराम की घोषणा करके अपनी बची हुई सेना को लेकर चला गया एक बार फिर से शक्ति संचय करके वापिस आने के लिए।
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“अनि बेटा, कराल की सेना वापिस चली गई है।” – गंगा कुछ हर्षित होते हुए अनिरुद्ध को शुभ सूचना देने लगी – “लगता है कि उसे भी समझ आ गया है कि हमसे वो कभी नहीं जीत सकता।”
“नहीं माँ, उसने केवल युद्ध विराम की घोषणा की है।” – अनिरुद्ध एक प्यारी सी मुस्कुराहट अपने चेहरे पर सजा कर बोला – “युद्ध समाप्त नहीं हुआ है। कुछ समय बाद वो दुबारा आयेगा। पर ये हमारे लिए अच्छा है। अब हम पहले पिता जी को उसकी कैद से स्वतंत्र करायेंगे और फिर उसके आक्रमण का मुँह तोड जवाब देंगे। हमें भी और अच्छे से तैयारी करने का समय मिल जायेगा।”
“तुझे कैसे पता कि उसने केवल युद्ध विराम की घोषणा की है, युद्ध विराम नहीं किया।” – गंगा हैरान रह गई कराल की नई नीति जानकर – “इससे तो हमारे ठंडा पड़ते ही हमारी पराजय होने के आसार बढ़ जायेंगे।”
“अभी कौन सा हम विजयी हैं माँ, “ – अनिरुद्ध कुछ गंभीर हो गया – “जब तक पिता जी उनके अधीन हैं, हम स्वयं को विजयी कैसे मान सकते हैं और कैसे हम शिथिल पड सकते हैं। हमारे पास अभी समय ही कहाँ है शिथिल पडने का या विश्राम करने का। हमें हमारी तैयारी अब और भी तेज करनी होंगी। क्योंकि मैं जानता हूँ कि वो शीघ्र ही दुबारा आक्रमण करेगा। हमें उसके शक्ति संचय करने के समय में ही पिता जी को स्वतंत्र कराना होगा। क्योंकि उस समय उसका पूरा ध्यान मात्र शक्ति संचय पर होगा। वो पूर्णतया निश्चिंत है इस बात से कि हमें पिता जी को उसने कहाँ छुपा रखा है, इसका लेशमात्र भी जानकारी नहीं हो पायेगी। और हमें उसकी इसी निश्चिन्तता का लाभ उठा कर पिता जी को मुक्त कराना है।”
“तुझे पता है कि उसने तेरे पिता जी को कहाँ बन्दी बना कर रखा हुआ है?” – गंगा उसकी बातों से कुछ आशान्वित हुई – “मैंने तो बहुत खोजा, मुझे कहीं नहीं मिले तेरे पिता जी।”
“माँ, आप निश्चिन्त रहो। मैं शीघ्र ही पिता जी को ले आऊंगा, और कराल को पता भी नहीं चलेगा। कराल को पता युद्ध भूमि में चलेगा कि हमारे प्रधान सेनानायक विक्रमजीत स्वतंत्र हो चुके हैं। मैं उनके छल और माया का जवाब उन्हीं की तरह छल और माया से दूँगा।” – ये कह कर अनिरुद्ध माँ के कमरे से बाहर आ गया।
गंगा ने भी बाहर आकर सबके लिए खाना लगाया। माया देवी बहुत प्यार से अपने पोते के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे अपने हाथों से खाना खिला रहीं हैं।
!! ”१०. विक्रमजीत की स्वतंत्रता’ !!
विक्रमजीत के चारों ओर भयानक राक्षसों का पहरा था। जिनमें से जाने कितने तो तरह-तरह की माया रचने में पारंगत थे। उन्हें भी ये आदेश था कि साम, दाम, दंड, भेद, चाहे कोई भी नीति, कैसे भी अपनानी पड़े, विक्रमजीत से पृथ्वी का रहस्य जानना है। जिसके लिए वे भाँति – भाँति की माया रच कर उन्हें कभी भयभीत करने का प्रयास करते तो कहीं अपार संपत्ति दिखा कर ललचाने का प्रयास करते। कई बार तो उन लोगों ने उसके माता पिता और पत्नी को भी बन्दी बनाते हुए उसे दिखाया, जिसे देख कर वो कई बार विचलित भी हुआ। किन्तु अपने पथ से डिगा नहीं। उन लोगों के जाने के बाद वो फिर से अपनी योग मुद्रा में बैठ कर अपनी तपस्या आरम्भ कर देता।
अनिरुद्ध एक बार फिर से उन्हीं कंदराओं में था। चारों ओर से सुरक्षित उस पहाड़ की तलहटी में भी कोई दृश्य या अदृश्य जीव किसी भी रूप में स्वेच्छा से प्रवेश नहीं कर सकता। यहाँ तक कि किसी भी प्रकार का यंत्र उस परिधि में आते ही स्वयं नष्ट हो जाता था।
“प्रणाम गुरुदेव,” – अनिरुद्ध ने गुरुदेव को प्रणाम किया और उनके चरणों में बैठ गया।
“दीर्घायु हों, यशस्वी हों” – गुरुदेव ने उसे आशीर्वाद दिया – “कहो वत्स, कैसे आना हुआ? कुछ व्यथित दिखाई देते हो।”
“गुरुदेव, आप तो जानते ही हो, कराल के साथ हमारा अंतिम युद्ध होने वाला है।” – अनिरुद्ध कुछ विचलित सा था – “मैं चाहता हूँ कि मैं युद्ध से पहले ही पिता जी को उनके बन्दीगृह से छुड़ा लाऊँ। उसके लिए मुझे आपका आशीर्वाद चाहिये।”
“मेरा आशीर्वाद तो हमेशा तुम्हारे साथ है।” – गुरुदेव बडे ध्यान से उसके चेहरे को पढने की चेष्टा कर रहे थे। – “तुम क्या करने की सोच रहे हो वत्स। विक्रम को मुक्त कराना तो ठीक है लौहपुरम् जाकर उसकी नाक के नीचे से विक्रम को मुक्त कराना सरल नहीं होगा।”
“मैं जानता हूँ गुरुदेव, पर मेरी योजना है………” – अनिरुद्ध अपनी सारी योजना गुरुदेव को विस्तार से बताता है। – “और इस तरह से उसे पता लगे बिना हम पिता जी को उसके बंधनों से मुक्त करा लेंगे। बस आपका आशीर्वाद चाहिए गुरुदेव।”
“विजयी भव, वत्स, तुम्हारे सकल मनोरथ सिद्ध हों।” – गुरुदेव ने अनिरुद्ध को आशीर्वाद देते हुए कहा – “अपने साथ माया, अखिल, वीति और पद्म को ले जाना। ये चारो माया रचने में सिद्ध हस्त हैं। और ये चारों ही तुम्हारे मनोरथ को सिद्ध करने में सहायक होंगे। जाने से पहले अपनी माता का आशीर्वाद लेना ना भूलना। और तुझे पता है ना कि कराल ने तेरे पिता को कहाँ बन्दी बना कर रखा हुआ है।”
“जी गुरुदेव, मुझे ज्ञात है।” – अनिरुद्ध ने सिर झुका कर कहा – “आपकी आज्ञा का अक्षरशः पालन होगा।”
“विजयी भव, आयुष्मान भव वत्स, कीर्तिमान भव “ – कह कर गुरुदेव ने अनिरुद्ध को गले से लगा लिया।
अनिरुद्ध उनके चरण छूकर और सिर झुका कर चला गया और माता से आशीर्वाद लिया। माँ ने भी उसे विजय श्री का आशीर्वाद दिया।
अनिरुद्ध अपने प्रशिक्षण शिविर में पहुँचा, जहाँ लाखों की संख्या में योद्धा युद्ध की तैयारी कर रहे थे।
“ध्यान कहाँ है तुम्हारा?” – कहीं से आवाज आई – “एक क्षण के लिए भी ध्यान इधर से उधर हुआ तो सिर धड से अलग मिलेगा। वहाँ कोई भी तुम्हारे प्रहार करने की प्रतीक्षा नहीं करेगा।“
“क्षमा कीजिए, अब से ऐसा नहीं होगा।” – सीखने वाले योद्धा की आवाज आई।
अनिरुद्ध ने माया, अखिल, पद्म और वीति को बुलाया और अपने चारों ओर एक गुप्त सुरक्षा कवच बना कर उनसे अपने प्रमुख सेनानायक विक्रमजीत को मुक्त कराने के लिए कहा। वे सब सहर्ष तैयार हो गए। जब अनिरुद्ध ने उन्हें पकड़े जाने और मौत का डर दिखाया वे तब भी तटस्थ रहे अपनी बात पर।
“तुम एक बार पुनः विचार कर लो,” – अनिरुद्ध ने उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराते हुए कहा – “वहां हमें वो दैत्य पहचान कर बन्दी भी बना सकते हैं। वे लोग माया रचने में प्रवीण होते हैं।”
“हमें विचार करने की आवश्यकता नहीं है सेनाध्यक्ष जी,” – पद्म ने दृढता से कहा – “हमें हमारे प्रमुख सेनानायक को किसी भी तरह से स्वतंत्र कराना ही है। और उसके लिए हमारा मनोबल किसी से भी कम नहीं है। हम हर प्रकार से तैयार हैं। आप बस आज्ञा कीजिए।”
“उचित है” – अनिरुद्ध उनका उत्साह और मनोबल देख कर खुश हो गया – “मैं सैनिकों का प्रशिक्षण और तैयारी देख कर आता हूँ। तब तक तुम सब यात्रा की तैयारी करो।”
अनिरुद्ध ने सारे शिविर का निरीक्षण किया। जहां देश के ऐसे – ऐसे नवयुवक थे, जो किसी ना किसी रूप में अपनों से या फिर अपनी सरकार से या फिर पुलिस के सताये हुए थे। इनमें से अधिकांश तो अपने ही समाज के द्वारा सताये हुए थे। जिसके कारण ये सब गलत कामों की ओर मुड गए थे। इनमें से अधिकतर मध्यमवर्ग के परिवारों या फिर निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों से सम्बंध रखते थे। जिनमे से कितने आतंकवाद की ओर मुडने लगे थे, कितने गली के आवारा गुंडे बन गए थे, कितने ही अवसाद में जाकर आत्महत्या करने जा रहे थे। लेकिन यहां उन सभी का उत्साह देखने योग्य था। कितनी मेहनत और लगन से वे सभी काम सीख रहे थे। अनिरुद्ध उन्हें देखते हुए मुस्कुरा रहा था। इन सबके परिवारों को प्रतिमास एक नियत राशि वेतन के रूप में भेज दी जाती थी। इन में से कितनों ने प्राण घातक तरंगो को विकसित किया, किसी ने अपनी जानकारी जुटाने के लिए ऐसी – ऐसी तरंगें निर्मित की, जिनसे वे कहीं भी, किसी की भी आवाज सुन सकते थे। यहाँ एक ऐसा वातावरण तैयार हो चुका था, जहां आज की आधुनिकतम और पौराणिक समय की दिव्य शक्तियां मिल-जुल कर काम कर रहीं थीं।
“ये कैसा स्थान है?” – अखिल ने बहुत गहरे अंधकार में देखने का प्रयत्न करते हुए पूछा – “हम कहाँ पर हैं।”
“पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र को पार करके, कलुष नामक उल्कापिंड से गुजर रहे हैं हम।” – अनिरुद्ध ने उसकी जिज्ञासा शांत करने की चेष्टा की – “इसके नाम के अनुरूप यहां सदैव ही गहन अंधकार छाया रहता है।”
“कैसे – कैसे आश्चर्य हैं इस ब्रह्मांड में “ – अखिल की बात सुनकर सब तीव्र गति से आगे बढते हुए मुस्कुरा दिए।
उनका अंतरिक्ष यान तीव्र गति से अंतरिक्ष में दक्षिण दिशा की ओर उड़े जा रहा था। वे तरह-तरह के कई उल्का पिंड और ताम्रपुरम आदि लोकों को पार करते हुए लौहपुरम् लोक में पहुंच गए। लौहपुरम् के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र के पहले ही अनिरुद्ध ने अपने यान को मंत्र शक्ति से अदृश्य कर दिया। और वे सहज ही लौहपुरम् की धरती पर उतर गए, जो लोहे जैसी ही कठोर और काली थी। उन्होंने पहले तो खुद को अदृश्य किया, फिर वहाँ जैसे जैसे लोग दिखते उनके अनुरूप ही रूप बदल लेते।
अनिरुद्ध अपने साथियों के साथ, अपने पिता से मिलने वाली तरंगों से उनके निवास का पता लगा रहा था। ज्यों – ज्यों वे कराल के महल की ओर बढ रहे थे, तरंगें तेज हो रहीं थीं। उन पाँचों ने अनिष्ट, प्रलम्ब, क्रूर , गरल, और व्युत्प का रूप धारण किया और महल में प्रवेश कर गए। उनके चेहरे पर आत्मविश्वास और क्रूरता भरपूर थी, इसलिए उन्हें वहाँ के द्वारपाल और सैनिक नहीं पहचान पाये। कराल का महल अद्भुत सौन्दर्य का जीवित उदाहरण था। उसका एक एक स्थान वहां के कारीगरों के परिश्रम और जागृत कल्पना का श्रेष्ठ उदाहरण था, जो किसी को भी दांतों तले उँगली दबाने पर विवश कर दे।
शीघ्र ही वे कराल के कक्ष के साथ वाले कक्ष में थे। जहाँ विक्रमजीत को बन्दी बना कर रखा हुआ था।
“विक्रमजीत, तुम हमें पृथ्वी के रहस्य बता दो।” – अनिष्ट बना अनिरुद्ध तलवार दिखा कर – “अन्यथा हम तुम्हारे पत्नी, पुत्र, माता-पिता और नगर आदि, सब कुछ पूर्णतया नष्ट कर देंगे। फिर हम पृथ्वी पर अधिकार करके तुम्हें भी भीषण दंड देंगे।”
“तुम्हें ऐसा क्यों लगता है अनिष्ट कि मैं तुम्हारी इन बातों में आ जाऊँगा।” – विक्रमजीत ने अपनी मधुर मुस्कान के साथ उन सभी को देखा। जो उस कक्ष में उपस्थित सभी दैत्यों को बाहर भेज रहे थे। जो कि एक साधारण सा कार्य था। जब भी वे आते थे तो केवल एक दैत्य को रोक कर बाकी सब को बाहर भेज देते थे।
सबके जाते ही गरल ने उस बचे हुए दैत्य को द्वार बंद करने के लिए कहा। जैसे ही वो द्वार बंद करके पलटने वाला था पद्म ने उसकी स्मृति बदल कर उसे भारत का एक साधारण फौजी विक्रमजीत बना दिया। और विक्रमजीत का भेष बदल कर उस दैत्य का भेष दे दिया। उन्होंने मानसिक तरंगो से विक्रमजीत को शांत रहने और सामान्य व्यवहार करने के लिए कहा। जब भेष परिवर्तन हो गया तो उन्होंने उसकी स्मृति में विक्रमजीत की दैनिक क्रियाकलाप जागृत कर दिये। कुछ देर वहां विक्रमजीत के साथ वाद विवाद की आवाजें बाहर तक जा रहीं थीं। फिर वे सब बाहर निकल गए और साथ में उस दैत्य को भी ले लिया जो अंदर उनके साथ था।
“पता नहीं इस विक्रमजीत से कैसे पृथ्वी का रहस्य पता करें” – वे आपस में बात करते हुए बाहर निकले – “उसे किसी भी प्रकार से तोडने की चेष्टा करो। कुछ भी करके वो पृथ्वी का रहस्य बता दे। जाओ, सब अंदर जाओ।”
वो उन्हें अन्दर भेज कर एकांत स्थान देख कर दैत्य बने विक्रमजीत को लेकर अदृश्य हो गए। और अपने यान में पहुंच कर तुरंत ही अदृश्य रूप से वहाँ से निकल गए। लौहपुरम् लोक से निकल कर वे सब अपने वास्तविक स्वरूप में आ गए। विक्रमजीत ने अपने पुत्र अनिरुद्ध को गले से लगा लिया।
!! “११. युद्ध का आरम्भ“ !!
“टिंग टोंग…. टिंग टोंग…… टिंग टोंग…. टिंग टोंग….” – बार – बार दरवाजे पर घंटी बज रही थी…. – “अरे बाबा, आ रही हूँ ।क्यों वायु घोड़े पर सवार हो। काम करते हुए निकलल्ल्ल…..” – दरवाजा खोलते ही गंगा के शब्द मुँह में अटक गए। ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की साँस नीचे….! अपनी सास को आवाज लगाना चाह रही थी, लेकिन शब्द मुँह में ही घुट गए।
“दादी माँ, कोई आया है।” – सात वर्ष का अनिरुद्ध अपनी माँ की ऐसी अवस्था देख कर खुद ही दादी को बुलाने दौड़ पडा।
“अरे, ऐसा कौन आ गया? तेरी माँ खोल देगी दरवाजा।” – माया देवी दोपहर के खाने से पहले कुछ देर आराम कर रहीं थीं। लेकिन अनिरुद्ध उनके कपडे पकड कर खींचने लगा तो माया देवी को मन मार कर उठना पडा। वो भी दरवाजे पर आगंतुक को देख कर भौंचक्की रह गई और दौड कर उसके गले से लग गईं। माया देवी की आँखों से आँसुओं धारा, जो जाने कब से बाँध बना कर रोकी हुई थीं, मानों बाँध तोड कर बह निकली। किसी को भी ये ध्यान नहीं आया कि आगंतुक को अन्दर भी बुलाना है।
उनका शोरगुल सुनकर वेद प्रकाश शर्मा जी भी बाहर आये। आगंतुक ने आगे बढ़कर उनके चरण स्पर्श किए। “विक्रम, मेरे लाल” कहते हुए उन्होंने उसे गले से लगा लिया।
“जा गंगा, आरती का थाल लिया बेटी। मैं इसकी आरती उतार दूँ।” – अब तक गंगा भी सम्भल चुकी थी। जल्दी से अंदर जाकर आरती की थाल तैयार करके ले आई। माँ ने विक्रम की आरती उतारी तो अनिरुद्ध भी बाहर खडा हो गया ये कह कर कि दादी माँ मेरी भी आरती उतारो। दादी ने हँस कर उसकी भी आरती उतारी और विक्रम ने उसे गोद में उठा लिया। विक्रम के आने से घर में जैसे उत्सव का माहौल था।
“युद्ध की तैयारी कैसी है?” – विक्रमजीत ने अनिरुद्ध से अपनी तैयारियों पर चर्चा करते हुए पूछा – “तुम्हें पता है, कराल ने शक्ति संचय करना बहुत जोर शोर से शुरू कर दिया है। उनकी युद्ध की तैयारी बहुत ही तेज और अद्भुत है।”
“जी पिताजी, आप स्वयं देख लीजिए।” – अनिरुद्ध ने अपनी तैयारियों की जानकारी देने के स्थान पर विक्रमजीत को स्वयं ही अवलोकन करने का सुझाव दिया।
“उचित है, मैं स्वयं ही देख लेता हूँ।” – विक्रमजीत इस बार आर – पार की लडाई के मूड में थे।
“इस बार मैं भी आपके साथ युद्ध पर चलूँगी।” – गंगा ने अपना निर्णय सुनाया तो विक्रम और अनिरुद्ध दोनों ही गंगा की ओर देखने लगे – “ऐसे क्या देख रहे हों? इस बार मैं तुम दोनों में से किसी की नहीं सुनने वाली।”
“मैं तो स्वयं ही तुम्हें कहने वाला था कि इस बार रणनीति बनाने और एक ओर से कराल की सेना को घेरने का कार्य तुम ही करो।” – विक्रम ने गंगा की बात सुनकर पहले ही उसके सामने अपने हथियार डाल दिए। अनिरुद्ध भी मुस्कुरा दिया।
एक विशाल प्रांगण में लाखों सैनिक सैन्य अभ्यास करने में लगे हुए हैं। आधुनिक और प्राचीन काल का मिला जुला प्रभाव वहां देखने को मिल रहा था। वहां, ना केवल मनुष्य अपितु नाग, सर्प, शेर, बाघ, अश्व, हाथी, चीता, चील, गिद्ध, स्वान आदि जाने कितनी प्रजातियां यहां युद्धाभ्यास कर रहीं थीं। यहां तक कि जलीय योद्धा भी यहां युद्धाभ्यास कर रहे थे। उनके लिए जल का विशेष प्रबंध किया गया था। ये सब देख कर विक्रमजीत और गंगा उत्साहित होकर उसमें प्रवेश करने लगे….
“ठहरिये माँ – पिता जी,” – अनिरुद्ध उन्हें एकदम से प्रवेश करते देख उन्हें रोकने लगा – “पहले आप अपनी दिव्य ज्योति से ये तो देख लीजिये कि यहां ऐसे ही प्रवेश किया जा सकता है कि नहीं?”
“क्या तात्पर्य है तुम्हारा?” – अनिरुद्ध ने विक्रमजीत के पूछने पर इशारा किया तो उन दोनों ने अपनी आँखें बंद करके वहां देखा तो वहाँ घातक किरणों की दीवार बनी हुई थी, जो हर प्रकार से अभेद थी। विक्रमजीत ने उस दीवार की जाँच के लिए एक पत्थर उठा कर फेंका तो पत्थर विस्फोट के साथ नष्ट हो गया। फिर उसने एक पेड उसकी तरफ उखाड कर उछाला तो तो पेड जल कर राख हो गया। ये देख कर विक्रमजीत आश्चर्यचकित रह गया। गंगा और विक्रम उन सबसे और उनकी तैयारियों से संतुष्ट हो गए।
अन्दर जाकर गंगा ने मुख्य योद्धाओं की मायावी विद्या का परीक्षण किया जहाँ कमी थी वहाँ उन्हें शिक्षित किया और वे तीनों स्वयं भी उन्हें आसुरी और दैवीय दोनों प्रकार से युद्ध कौशल सिखाते हुए, वहाँ युद्धाभ्यास करने लगे। वे भी किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं रखना चाहते थे। विक्रमजीत ने तो उनका युद्धाभ्यास भी देखा था और उनकी युद्ध नीति से भी भलीभाँति परिचित थे। इसलिए वे भी कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। उन सभी ने इन सेनाओं के मुख्य सेनानायकों को गरुड व्यूह, त्रिशूल व्यूह, चक्र व्यूह, आभासी चक्र व्यूह आदि कई प्रकार व्यूह निर्माण करने और उनके तोड सिखाये। हालांकि ये बहुत कठिन थे। किंतु आह्लाद, वीति, विष्वक्सेन, कयाधू, उलूपी, इंद्रसेन, पद्म, वज्रनाभ, अखिल, माया, दृष्टि, लावण्या, पवन, मतंग, गज, अंबुज, पलाक्ष, मेघ, अघ आदि बहुत ही उच्च कोटि के योद्धा थे। इनमें से कुछ तो इन व्यूहों के विषय में पहले से ही ना केवल जानकारी रखते थे बल्कि उनमें पारंगत भी थे।
वे जानते थे कि उन्हें इसमें कुछ वर्ष तो लगेंगे ही| इसलिए वे कमर कस कर इसकी तैयारियों में जुटे हुए थे। जो योद्धा गंगा के साथ युद्ध करके आये थे उन्हें मात्र एक माह के विश्राम के पश्चात बुला लिया गया क्योंकि उन्हें भी दैत्य और राक्षसी सेना से युद्ध का अनुभव था। उनका अनुभव यहां काम आना था। और एक बार फिर से जोर शोर से प्रशिक्षण और युद्धाभ्यास चल पड़ा। साथ ही साथ असंख्य रासायनिक और कृत्रिम अस्त्र शस्त्रों का निर्माण भी जोरों पर था। इस कार्य में प्रवीण इंद्रसेन और माया लग कर एक से एक शस्त्रों के निर्माण में जुटे हुए थे। गिद्धों और चील आदि के द्वारा शत्रु की खबर भी रखी जाती थी। कई गुप्तचर ऐसे भी थे जो वहीं से शत्रु की गतिविधियों पर दृष्टि रखते थे।
जब तक कराल की सारी सैन्य कार्रवाई पूर्ण हुई और यौद्धिक तैयारी करके उसका शक्ति सामर्थ्य पूर्ण हुआ, तब तक पृथ्वी पर दस वर्ष बीत चुके थे। कराल की सेना पूरी तरह से पृथ्वी पर आक्रमण के लिए सज्ज थी।
अनिरुद्ध को सूचना मिली कि कराल पूरी तरह से शक्ति संचय करके अब युद्ध के लिए सज्ज है। और वो किसी भी समय पृथ्वी पर आक्रमण कर सकता है। अनिरुद्ध, विक्रम और गंगा ने अपने सभी सेनानायकों को बुलाया।
“कराल सेना लेकर कूच कर चुका है।” – विक्रम सबके आने के बाद उन्हें समझाते हुए बोले – “और अब हम सबको भी अपनी कमर कस लेनी चाहिए। हमारी जानकारी के अनुसार वो त्रिशूल व्यूह में आक्रमण करेगा। हमें उसे मुँह तोड जवाब देने के लिए गरुड व्यूह का निर्माण करना होगा। वो जिस ओर से भी आक्रमण करे, वहीं से मुँह की खाये। रण नीति हमारी वरिष्ट और सबसे अनुभवी सेनानायक गंगा करेंगी।”
“हमें उनकी सेना को अवसर दिये बिना “ – गंगा ने कहना आरम्भ किया – ” दसों दिशाओं से उन पर प्रहार करना है। जिनमें सर्प प्रजाति नीचे अर्थात धरती के नीचे से निकल कर उन पर प्रहार करेगी, जहाँ अघ नाग उनका प्रतिनिधित्व करेंगे। आकाश की ओर से मेखला और मेघ के प्रतिनिधित्व में गिद्ध और चील प्रजाति आक्रमण करेगी। बाकी की आठों दिशाओं में बाकी सेनानायक दो दो की संख्या में रहेंगे। जब एक थकने लगे तो दूसरा उसी तेजी और सामर्थ्य से शत्रु पर आघात करेगा। सबसे पहले उसका सामना मैं करुँगी, फिर कुछ समय बाद उसे झटका देते हुए प्रधान सेनानायक विक्रमजीत आयेंगे और सबसे अंत में कराल का काल बनकर हमारे सेनाध्यक्ष, सेनापति अनिरुद्ध युद्ध भूमि में पदार्पण करेंगे।”
गंगा की रण नीति सुनकर अनिरुद्ध और विक्रम अभिभूत हो गए। सारी सेना गंगा की रण नीति के अनुसार सज्ज हो गई और कराल के आगमन की प्रतीक्षा करने लगी। कराल भी जानता था कि इस बार उसका सामना मात्र गंगा से ही नहीं होगा, सम्भवतः इस युद्ध में उसका पुत्र अनिरुद्ध भी होगा।
वो समय भी आ गया, जब दोनों सेनाएँ एक दूसरे के सम्मुख थी। पांच लक्ष्य परमवीर, महाधुरंधर, काल को भी जीत सकने वाले, भय को भी भयभीत करने वाले सैनिकों के साथ कराल युद्ध भूमि में आ जमा था। कराल की सेना को देख कर सामान्य सेना तो पहले ही भय से पलायन कर जाए। दूसरी ओर अनिरुद्ध की सेना थी, जिसका संचालन गंगा कर रही थी। उसकी सेना में दिखाई देने वाली सेना मात्र साढ़े तीन लक्ष्य थी, जिनका पता ही नहीं चल रहा था कि ये सैनिक हैं या फिर यूँ ही चलते – फिरते आम नागरिक दिखाई दे रहे थे। जिन्हें देख कर कोई ये नहीं कह सकता कि ये विजय को देखते ही देखते अंतिम क्षणों में भी पराजय बदलने वाले श्रेष्ठ योद्धा हैं। जैसा कि उन्हें विदित था कि कराल त्रिशूल व्यूह के साथ आक्रमण करेगा, कराल की सेना त्रिशूल व्यूह में ही दिखाई दे रही थी। किन्तु उसके भीतर अदृश्य चक्र व्यूह रचा हुआ था, जो बाहर से दिखाई नहीं दे रहा था। किन्तु गंगा ने बाहर से चक्र व्यूह का निर्माण करके भीतर अदृश्य गरुड व्यूह की रचना की थी।
“गंगा, इस बार ये कैसी सेना लेकर आई हो?” – कराल, गंगा की सेना देख कर हँसा – “लगता है कि इस बार मैंने इतनी मेहनत बेकार में ही की। तुम्हें तो मैं यूँ ही बन्दी बना लेता। पिछली बार तुम्हारे सैनिक कम थे, किन्तु वे सैनिक तो थे। ये तो दुधमुंहे बच्चे हैं।”
“हं हं हं, “ – गंगा कराल की बातों पर हँसते हुए बोली – “कराल, पिछली बार तेरा सपना अधूरा रह गया था। सम्भवतः इस बार पूरा हो जाए। तूने सही कहा, ये सारे दुधमुंहे बच्चे ही हैं। और तू इन दुधमुंहे बच्चों से लडने के लिए इतनी विशाल और भयंकर दैत्यों और राक्षसों की सेना लेकर आया है। तू सच में कायर है।”
गंगा की बातें सुनकर कराल तिलमिला गया। उसने अपना शंख निकाल कर युद्धघोष किया। महारथी गंगा ने भी अपना अपना शंख बजा कर युद्धघोष किया। एक बार फिर से दोनों ओर युद्ध की दुन्दुभियां बज उठी। कराल की सेना ने गंगा की सेना पर आक्रमण कर दिया। गंगा ने भी अपनी सेना को सचेत करते हुए उन्हें बता दिया कि त्रिशूल व्यूह की आड में चक्र व्यूह रचाया गया है। जिसे समझ कर वज्रनाभ और मुष्टि आपस में भिड गए, आह्लाद और अनिष्ट आपस में भिड़े। इसी प्रकार सभी मुख्य योद्धा उधर के मुख्य योद्धा से जा भिड़े।
परिघ, शूल, मुष्टि, गदा आदि अस्त्र शस्त्रों से एक दूसरे पर प्रहार पर प्रहार किए जा रहे थे। मुष्टि, जो भी प्रहार वज्र पर करता, वो उसके पास आते ही खंड खंड हो जाता। जिसे देख कर मुष्टि का धीरज टूट रहा था। शीघ्र ही मुष्टि वज्र के हाथों वीरगति को प्राप्त हुआ। मुष्टि के मरते ही जम्भ नामक दैत्य वज्र के सामने आ गया। उसने जैसे ही हुंकार भरी एक तेज धूल भरी आँधी चलने लगी। किन्तु वज्र ने मुस्कुराते हुए अपना हाथ उस आँधी के सामने कर दिया। जिससे आँधी वापिस मुड गई और उसके साथ उसमें बडे – बडे पत्थर भी दैत्य सेना पर गिरने लगे। जिनके प्रहार से दैत्य सेना में हडकंप मच गया।
अनिष्ट ने आह्लाद पर शक्ति प्रहार किया। जिसे आह्लाद ने अपने एक ही तीर से दो टुकड़ों में तोड दिया। अनिष्ट जो भी प्रहार आह्लाद पर करता, वो उसका समुचित उत्तर देता जाता। आह्लाद के बाण चलाने की गति इतनी तीव्र थी कि अनिष्ट उनको ठीक से देख ही नहीं पाता था। आह्लाद ने बात की बात में उसका सारथी मार गिराया, उसका रथ तोड दिया और खुद अनिष्ट भी मूर्छित हो गया। अनिष्ट के मूर्छित होते ही आह्लाद आगे बढ गया।
!! “१२. कराल का अंत” !!
जम्भ ने अपने मुँह से अग्नि गोला वज्र की तरफ फेंका। तुरंत ही अखिल कूद कर वज्र के आगे आ गया। वो अग्नि गोला बिना किसी प्रभाव के अखिल के अंदर समा गया। जम्भ ये देख कर हैरान रह गया। अखिल ने जम्भ को सम्हालते हुए वज्र को दूसरी ओर भेज दिया और खुद जम्भ से भिड गया। जम्भ ने एक – एक करके कई शक्तियाँ अखिल की तरफ फेंकी पर हर शक्ति अखिल की ओर जाते ही अखिल में समा कर उसकी हो जाती। जम्भ का बल भी प्रति क्षण क्षीण होता जा रहा था। जब वो बुरी तरह से थक गया तो उसने अपनी अंतिम और सबसे शक्तिशाली शक्ति अखिल की ओर भेजी। अखिल जानता था कि इसका अंत भी केवल इसी शक्ति से हो सकता है। उसने वो शक्ति अपने हाथ में ली और वापिस जम्भ पर छोड दी। देखते ही देखते महाबली, महाकाय जम्भ के प्राण उसका शरीर त्याग गए और उसकी विशाल देह सैंकडों दैत्यों को कुचलते हुए धराशायी हो गई।
ये सब देख कर अनिष्ट को बडा क्रोध आया। उसकी मूर्छा भी खुल चुकी थी और वो अखिल और जम्भ का युद्ध देख रहा था। जम्भ उसका छोटा भाई था। अपने भाई की मृत्यु देख अनिष्ट बौखला गया और उसने एक तीर अखिल को ललकारते हुए उसकी ओर छोडा। अखिल ने बात की बात उसका तीर रास्ते में ही काट दिया। देखते ही देखते अखिल और अनिष्ट का घमासान युद्ध शुरू हो गया। दोनों एक-दूसरे पर भयानक शस्त्रों का प्रहार कर रहे थे। कभी अखिल अनिष्ट के अस्त्रों को काट देता तो कभी अनिष्ट अखिल के। कोई भी किसी को पराजित नहीं कर पा रहा था। अनिष्ट ने अपनी वायु शक्ति से अखिल के ऊपर प्रहार किया तो अखिल ने उसे आत्मसात कर लिया। अनिष्ट ने अपनी हर शक्ति का प्रयोग अखिल पर किया किन्तु कोई भी शक्ति वापिस लौट कर उसके पास नहीं आई। अखिल ने मंत्र उच्चारण करके एक अस्त्र अनिष्ट पर छोडा, जिसने अनिष्ट को सदैव के लिए धरती पर सुला दिया।
कराल अपने महारथियों का संहार देख कर तिलमिला रहा था, तभी उसने देखा कि उसकी सेना पर धरती के नीचे से अति भयंकर विषैले सर्पों का आक्रमण हुआ है जो सर्पों के प्रभाव में नहीं आ रहे थे, उन्हें ऊपर से चील और गिद्ध नोंच – नोंच कर खा रहे थे। अघ, अजगर बन कर दैत्य सैनिकों को निगलता हुआ उनके बीच में विचरण कर रहा था। दैत्य सैनिक अभी सर्पों और गिद्धों से निपट भी ना पाए थे कि एक ओर से हाथियों का दल आया आया और दूसरी ओर से सैंकडों शेरों का दल दहाड मारता हुआ कराल की सेना पर टूट पडा। चारों ओर से जाने कितने ही जंगली पशुओं ने कराल की सेना पर आक्रमण कर दिया, जिन में भालू, चीते, बन्दर, गेंडे, बाघ, आदि हिंसक और मांसाहारी जीव थे। वो जिधर से गुजरते कराल की सेना का सफाया होता जाता।
हर ओर से अपनी सेना का विनाश होता देख कराल के पुत्र मराल ने बिना सावधान किए ही गंगा पर वायव्य अस्त्र का प्रयोग कर दिया। किन्तु रास्ते में ही उसके इस अस्त्र को दूसरे वायु अस्त्र से काट दिया गया। जब उसने दूसरी ओर देखा तो उधर क्रोध में उबलता हुआ विक्रमजीत खडा था।
“कायर, बिना सावधान किए आघात करता है?” – मराल को ललकारता हुआ विक्रम उस पर बडे जोर से दहाडा, जबकि मराल उसे युद्ध भूमि में देख कर अचंभित रह गया। वहां आया उनका प्रत्येक सैनिक, सेनापति, सेनानायक और स्वयं कराल भी युद्ध भूमि में विक्रम को देख कर अचंभित था – “अपना पौरुष यहां दिखा।”
“ओह, तो तनिक सी माया क्या रच ली तुमने, तो तुम स्वयं को बडा मायावी समझने लगे।” – मराल किसी घायल सर्प की भाँति फुंकार मारता हुआ बोला – “अभी तुम्हें दिखाता हूँ कि माया क्या होती है।” – ये कह उसने जोर से पृथ्वी पर आघात किया और एक बडा भारी चक्रवर्ती तूफान विक्रम की सेना की ओर बढ चला।
“मैं कोई माया नहीं, स्वयं विक्रमजीत हूँ। चाहो तो परख लो” – इतना कहकर विक्रम ने भी उसका उत्तर उसी तूफान से दिया। दोनों तूफान आपस में भिड कर समाप्त हो गए। तभी आकाश में बडी भारी गर्जना हुई और आकाश से काले – काले बादलों से बडे भारी – भारी पत्थर विक्रम और गंगा की सेना पर गिरने लगे। किन्तु यहाँ एक बडी ही आश्चर्यजनक बात हुई कि वे पत्थर विक्रम की सेना को नुकसान पहुंचाने के स्थान पर किसी अदृश्य शक्ति से टकरा कर मराल की सेना पर ही गिर रहे थे, जिससे उनके सैंकडों सैनिक धराशायी हो गए।
कराल के महारथी एक – एक करके धराशायी हो रहे थे। अपने बने चक्र व्यूह में गंगा की रणनीति से वे स्वयं ही फंस चुके थे। ना तो उनका त्रिशूल व्यूह काम आया और ना ही उसकी आड लेकर रचा गया चक्र व्यूह। विकराल, विरूपाक्ष, प्रलम्ब, क्रूर, गरल, कबंध, व्युत्प आदि सैकडों महारथियों के साथ अनिरुद्ध के सेनानायक पवन, अघ, विष्वक्सेन, इंद्रसेन, माया, कयाधू, लावण्या, दृष्टि, वीति, पद्म, आह्लाद, वज्र, अखिल, आयु, पुष्पक, लोमष, मतंग, उलूपी और रुद्र आदि योद्धाओं ने दैत्य सेना में हाहाकार मचा दिया था। सबसे आश्चर्यचकित करने वाली बात ये थी गंगा और अनिरुद्ध की सेना के पास ऐसा कौन सा अभेद कवच था, कि उस सेना और सेनानायकों को खरोंच तक नहीं आती थी।
शीघ्र ही कराल की आधी से अधिक सेना काल की गोद में समा गई। सारी धरती दैत्यों के लहू से भर गई वहाँ रक्त की नदियाँ बहने लगी। शवों के ऊपर शव पडे हुए थे। फिर भी कोई भी पीछे हटने को तैयार नहीं था। तभी अचानक से गंगा और विक्रम की सेना में खलबली मच गई। एक विशाल भीमकाय असुर अनिरुद्ध की सेना को गाजर – मूली की तरह चबाने लगा। उसका देह इतना विशाल था कि वो दिशाओं को ढके देता था, इतना ऊँचा था कि उसका मस्तक आकाश को छूता प्रतीत होता था। उसकी देह इतनी भारी थी कि उसके चलने से पृथ्वी पर भी मानों भूकंप सा आता हुआ प्रतीत होता था। जब विक्रम और अखिल ने उसका सामना किया तो वे भी उसके मुँह में जाते – जाते बचे। ये सब देख कर अनिरुद्ध ने एक बिना पर का तीर उसके कान के पास मारा। जिससे वो दैत्य असुर तनिक लडखडाया और उसका देह धीरे-धीरे कम होने लगा। अनिरुद्ध ने गुरु के दिए अस्त्र से एक ही वार में उसका सारा देह क्षत – विक्षत कर दिया और व्यतिपात नामक ये असुर भी सदा के लिए सो गया। एक बार फिर से अनिरुद्ध की सेना में नए उत्साह का संचार हो गया। और वे और भी अधिक उत्साह से लडने लगे।
मराल का युद्ध अभी भी विक्रम के साथ चल रहा था। विक्रम उसके सभी अस्त्रों को काटता जा रहा था। जब किसी भी प्रकार के अस्त्र शस्त्र से वो विक्रम को नहीं जीत पाया तो उसने माया का प्रयोग किया। विक्रम ने उसकी माया का भी मुँह तोड उत्तर दिया और अंत में अभिमंत्रित करके इन्द्रास्त्र से मराल की इहलीला समाप्त कर दी। अपने सबसे प्रिय पुत्र मराल के धराशायी होते ही कराल का क्रोध चरम पर आ गया। उसने बिना विलंब किए गंगा और विक्रम पर आसुरी शक्ति छोड दी। किन्तु गंगा और विक्रम को पीछे करके अनिरुद्ध ने उस शक्ति को अपने हाथ से रोक कर तुरंत ही मसल कर नष्ट कर दिया। विक्रम और गंगा, कराल के सामने से निकल कर दूसरे योद्धाओं से युद्ध करने लगे। कराल और अनिरुद्ध में भयंकर युद्ध आरम्भ हो चुका था।
सेनाएँ आपस में युद्ध कर रहीं थीं। कराल की सेना देखते ही देखते नाम मात्र को रह गई। उसके विकराल और कबंध को छोडकर सारे योद्धा मारे गए। कुछ ही देर में सब केवल अनिरुद्ध और कराल का ही युद्ध देख रहे थे। अघ ने कबंध को और नागों के राजा विष्वकसेन ने विकराल को भी मृत्यु के घाट उतार दिया। अनिरुद्ध और कराल, दोनों की ओर भयानक शस्त्रों की बरसात हो रही थी। कुछ बिजली की चमक के साथ आपस में टकराते, तो कोई कोई भयंकर विस्फोट के साथ खंड – खंड हो जाते। उस महा विनाशक युद्ध को जो भी देखता दांतों तले उँगली दबा लेता। दोनों कभी अस्त्र – शस्त्र से लडते, तो कभी मायावी युद्ध करने लगते। कभी पृथ्वी पर दिखाई देते, तो कभी आकाश में। उनके युद्ध से धरती और आकाश क्षुब्ध हो गए थे। सागर में भयानक ज्वार – भाटा आने लगा, जिससे समुद्र भी अपनी सीमाएँ लाँघता हुआ प्रतीत हो रहा था। नदियाँ अपनी सीमाएँ तोड कर बाढ का रूप धारण कर चुकी थी। पर्वतों में भयंकर विस्फोट होने से वे टूट – टूट कर गिर रहे थे। पृथ्वी पर स्थान – स्थान पर उच्च तीव्रता के भूकंप आ रहे थे। अनिरुद्ध ने वरुणास्त्र से उसकी दोनों भुजाएं काट डाली और अपने गुरु का ध्यान करके उसे एक विनाशक अस्त्र से सदैव के लिए यमपुरी पहुँचा दिया।
कराल के मरते ही चारों ओर अनिरुद्ध की जय – जयकार होने लगी। आकाश एकदम साफ हो गया। पृथ्वी पर महसूस होने वाले भूकम्प और बाढ आदि उत्पात शांत हो गए। उल्कापात शांत हो गए। ग्रह नक्षत्र अपनी स्वतः गति से चलने लगे। अनिरुद्ध ने बचे हुए कुछ दैत्य सैनिकों के साथ उन सभी मरे हुए सैनिकों और सेनापतियों का अंतिम संस्कार किया। बाकी बचे हुए सैनिक अपने लोक को लौट गए। अनिरुद्ध, या विक्रम आदि किसी ने भी उन्हें नहीं रोका। क्योंकि कराल के अंत के साथ अब उन सैनिकों से कोई शत्रुता नहीं रह गई थी।
“बाहर से आए कराल रूपी दैत्य का तो अंत हो गया। अब बारी है अपने ही देश में फैले मनुष्य रूप में विचरते पिशाचों की। शीघ्र ही सम्पूर्ण भरत खंड इन दैत्यों और पिशाचों से मुक्त होगा। इन सभी पिशाचों का अंत हो कर सम्पूर्ण भरत खंड एक बार फिर से अजनाभ वर्ष कहलायेगा। सावधान पिशाचो! अनिरुद्ध आ रहा है।” – मुस्कुराते हुए अनिरुद्ध ने शब्द बुदबुदाये।
विक्रमजीत खाने की मेज पर बैठा हुआ अखबार पढ रहा है, जिसमें एक खबर के अनुसार एक विशेष समुदाय के द्वारा मंदिर फोडने आए हुए सभी लोग अचानक से एक दूसरे को मारने लगे और सभी आपस में ही लड – लड कर मर गए। विक्रम पढ कर मुस्कुराता हुआ गंगा से अनिरुद्ध के तैयार होने के बारे में पूछता है।
“अनिरुद्ध, बेटा जल्दी तैयार हो जा।” – गंगा अनिरुद्ध को तैयार होने के लिए मजाक करते हुए कहती है, जो अभी कुछ फाइलें जमा रहा है। – “तेरे कॉलेज में एडमिशन करवाने के लिए तेरे पापा कब से तैयार होकर बाहर बैठे हैं। जैसे उन्हीं का एडमिशन होना हो।”
गंगा की बात सुनकर सब हँस पडे। तब तक उसके सारे दोस्त, पद्म, अखिल वज्र, लावण्या, दृष्टि, माया, आह्लाद आदि भी आ गए। माया देवी और मेजर वेद प्रकाश शर्मा अब बहुत खुश हैं अपने पूरे परिवार को एक साथ देख कर। विक्रम और गंगा दोनों की खूब सेवा करते हैं। वे भी दोनों को लाड करते नहीं अघाते। नाश्ता करके विक्रम, अनिरुद्ध और उसके दोस्तों को लेकर उनके कॉलेज में एडमिशन करवाने के लिए निकल पडा। गंगा, माया देवी और मेजर साहब उन्हें जाते हुए मुस्कुराते हुए देख रहे थे।
जय भारत 🙏🏻 🇮🇳🙏🏻
इति श्री 🙏🏻🌷🙏🏻
प्रिय पाठकों, अनिरुद्ध दिव्य योद्धा को कुछ समय के लिए विश्राम देते हैं, ताकि वो निश्चिंत होकर अपनी पढाई पूरी कर सके। आपको अनिरुद्ध कैसा लगा, हमें जरूर बताएं।
राधे राधे 🙏🏻🌷🙏🏻
✍️ ©️ राधा श्री
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