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विधा – “काव्य”, शीर्षक –“ घर किसे कहते हैं ”

विशिष्ट आमंत्रण क्रमांक :– !! “कल्प/फरवरी/२०२५/स” !!

विषय :- !! “प्रथम प्रेम : हृदय के सुकोमल भाव”

विधा – “कविता”

शीर्षक – “ घर किसे कहते हैं ”

***

एक दिन

बेटे ने

पूछा ये  

अपनी तोतली जुबान में

मां!

घर किसे कहते हैं?

क्या इसे!

जब दिन होता है

तो सारी धूप अंदर आती है

जब बरसात होती है

तो सारा पानी भी आ जाता है

रात को मेरे हाथ पाव कांपते हैं ठंड से

क्या इसे घर कहते हैं?

या फिर उसे

जो हमारी बस्ती के नजदीक है

चारों ओर मुझको डराती लाइटें

जैसे कि कह रही हों

अंदर आना मना है

हर पल जिनमें से

अल्हड़ सी आवाजें आती हैं

जहां न कभी रात होती है

और ना ही शायद उन्हें ठंड लगती है

मेरी तरह

उनके हाथ-पांव नहीं कांपते

क्या उसे घर कहते हैं?

मां कुछ देर चुप रही

सिसकियां मन के भीतर ही

लेती रही

फिर अपने मन को

कठोर करके बोली

बेटे घर सुंदर दीवारों

सुंदर लाइटो

और अच्छे कपड़ों से नहीं बनता

घर तो उसे कहते हैं

जहां मेरी जैसी एक मां हो

जो तेरे जैसे बेटे को प्यार करती हो

तेरे जैसा एक प्यारा सा बेटा हो

तुम्हारे पिता के समान पिता हो

जो अपने पसीने की बूंदों से

हमारे लिए रोटियां गुथता हो

और जब थक हार कर

घर लौटता हो

तो बिन अपने बेटे को

कहानी सुनाएं

सोता ना हो

घर तो उसे कहते हैं

जहां विश्वास हो, प्रेम हो

जहां लोग एक दूसरे की

भावनाओं को समझते हों

मां अपने उत्तर की भावुकता में

बही जा रही थी

कि अचानक उसकी नजर

अपने बेटे पर गई

जो कि अब तक सो चुका था

जैसे कि वह समझ गया हो

कि घर किसे कहते हैं।

****

कृष्ण पाल सिंह

Krishnapal Singh

One Reply to “विधा – “काव्य”, शीर्षक –“ घर किसे कहते हैं ””

  • पवनेश

    राधे राधे आदरणीय,
    घर किसे कहते हैं शीर्षक से किया गया आपका यह सृजन वैचारिक अभिव्यक्ति के स्तर पर सम्माननीय है। सादर

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