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“सेवा या स्वार्थ”

जब पेट भरा, मन बहलाने को, नव शौक अनोखा जाग उठा,

शहरों में बैठे धनिक वर्ग को, ‘सेवा’ का कीड़ा काट उठा।

‘समाज सेवा’, ‘देश सुधार’, बस जुमले बनकर रह जाते,

सिल्क की साड़ी, ऊँची एड़ी, एनजीओ बन फोटो खिंचवाते।।

 

शहर की मैडम को इक दिन, गाँव घूमने की चाह जगी,

पति धनाढ्य, गाड़ी आलिशान, प्रसिद्धि की भी आस उठी।

‘ठेठ गाँव’ की बात जमी जब, मैडम जी का मन हर्षाया,

अवसर फसल कटाई का हैं हमने भरसक हैं समझाया।।

 

जेठ महीना, धूप कड़क, गाँव में जीवन क्या सादा था,

मैडम की लक्जरी गाड़ी ने, कुछ अजब नज़ारा पाया था।

बीच सड़क पर औरतें बैठीं, लोटा थामे नज़र घुमाएँ,

मैडम समझी स्वागत को हैं, मुस्कुराकर हाथ बढ़ाएँ।।

 

गाँव की चौपाल में जब पहुँचीं, भीड़ कहां मुश्किल आई,

कुछ बूढ़े, कुछ आवारा छोरे, ने स्वागत की रस्म निभाई।।

चौपड़, ताश, के ठिए बने, कहीं कोई शराबी झूम रहा,

कोई माँग रहा मोटरसाइकिल, कोई ओवन चूम रहा।।

 

विद्यालय, आंगनबाड़ी, पंचायत भवन, सड़कें पक्की थीं।

मध्यान्ह भोजन, गणवेश, किताबें, भी मुफ्त में मिलती थीं।

महिला स्व सहायता समूह, शिक्षा इलाज दवाई सहज मिले। 

महिला बालविकास विभाग, आदिमजाति कल्याण योजना चलती थीं।।

 

एक रूपये में गेहूं मिलता, दो रुपए किलो चावल पाएं,

नाम काम का मनरेगा में, कृषि विभाग भी भरमाए।

मैडम जी को करनी सेवा किन्तु करें क्या पता नहीं,

सेवा के बदले में मेवा की, सुख आशा मन को सरसाये।।

 

मैडम का धैर्य चुक गया, उनके सपने बिखर गए,

जहाँ आरती होनी थी, वहाँ 5जी मोबाइल उभर गए।

गाँव की भूख मिटाने आयी थीं, वे स्वयं हताश हुईं,

बड़े शहर की मेवा सेवा, अब गाँव में व्यर्थ हुई।।

 

सरपंच जी ने कही विदाई, दो मोटर, चार मोबाइल माँग लिए,

मैडम जी को समझ न आया, बस वादे करके निकल लिए।

गाँव छोड़ के मैडम भाग चलीं, अब फोन रिसीव नहीं होता,

शहर में सेवा का मंचन करतीं, गाँव के लिए हृदय नहीं रोता।।

 

ग्रामसेवा का हाल अनोखा, जब भीतर स्वार्थ समाया हो,

सच्ची सेवा वहीं पनपती, जब निस्वार्थ हृदय लगाया हो।।

सिल्क की साड़ी से सेवा नहीं, सच्ची श्रद्धा लगती प्यारी,

वरना ऐसे मसीहा बहुत हैं, जिनकी दुनिया ही बाज़ारी।।

 

 

पवनेश

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