
!! कल्प सम्वाद कुंज : भगवान वामन !!
- Radha Shri Sharma
- 08/07/2025
- लेख
- सम्वाद कुंज
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!! भगवान वामन !!
वामन बन कें कृष्ण मुरार,
पधारे बलि राजा के द्वार।।
लोक भजन की इन पंक्तियों में भगवान वामन के विशेष अवतार का रहस्य बताया गया है। राजा बलि न केवल प्रजा वत्सलता के लिए प्रसिद्ध थे, अपितु वे दानियों में भी श्रेष्ठ श्रेणी के दानी कहाते हैं। जब उन्होंने सौ अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया तो तीनों लोकों में हलचल मच गई। सभी देवता स्वर्ग से धरती पर आ गिरे। स्वर्ग के राजा भी बलि बन गए अर्थात स्वर्ग का सारा वैभव अब उनका था। इतने पर भी ब्राह्मणों का विशेष सत्कार करना नहीं भूले। भगवतपरायणता उन्हें अपने दादा जी से विरासत में मिली थी। उसके साथ ही विनम्रता, न्यायशील और प्रजा का अपनी औरस संतान की भाँति पालन करना जैसे गुण भी उनमे कूट कूट कर भरे थे। जिसका प्रमाण आज भी दाक्षिण भारत के पोंगल उत्सव में मिलता है। कहते हैं कि राजा बलि आज भी पोंगल के दिन अपनी प्रजा से मिलने आते हैं।
स्वयं भगवान श्री हरि जिनके द्वार पर प्रहरी बन कर रहते हों, उनके गुणों का वर्णन करने में कौन समर्थ हैं। कहते हैं भगवान वामन ने उन्हें वरदान दिया था कि सावर्णी मन्वंतर के इन्द्र राजा बलि होंगे। अतः वे आज भी सुतल लोक के राजा हैं, जहाँ का वैभव स्वर्ग से भी कई गुणा अधिक है। कहते हैं सुतल लोक में इतनी मणियाँ हैं कि वहां कभी अंधकार नहीं होता। ऐसे में वहां की संपत्ति का अनुमान लगाना अधिक दुष्कर नहीं है। राजा बलि की संतानों में बाणासुर, अघासुर और बकासुर नाम के उनके पुत्र थे और रत्नमाला नाम की उनकी पुत्री थी।
जिस समय भगवान त्रिविक्रम वामन रूप में राजा बलि के द्वार पर पहुँचे, तब उनकी बाल हठ पर मुग्ध होकर राजा बलि ने उन्हें अपने पास बुला लिया और उन्हें तीन पग भूमि देने का संकल्प भी कर लिया। वहीं उनकी पुत्री रत्नमाला के हृदय में भी वात्सल्य की बाढ़ आ गई और मन ही मन सोचने लगी – “अहा! कितना मनोहारी बालक है। यदि ये मेरा पुत्र होता तो अभी अपने सीने से लगा कर इसे दुग्ध पान कराती।”
भगवान उपेन्द्र उनके मनोभाव ताड़ गए और उन्होंने उन्हें “तथास्तु” कहकर वरदान दे दिया। किन्तु जब तीन पग भूमि पूरी न मिलने पर उन्होंने बलि को वरुण पाश में बाँध दिया। तब रत्नमाला को उनपर बड़ा क्रोध आया। फिर वे अपने मन में बोली – “यदि ये मेरा पुत्र होता तो मैं इसे दूध में विष मिला कर पिला देती।”
भगवान ने उन्हें वहाँ भी उनका मनोरथ पूर्ण करने का वरदान “तथास्तु” कह कर दे दिया। और माता रत्नमाला के दोनों वरदान उन्होंने कृष्ण अवतार में पूर्ण किये। जब भगवान श्री कृष्ण मात्र छः दिन के थे अर्थात उनकी छटी मनाई जा रही थी उस समय माता रत्नमाला पूतना के रूप में आई। उन्हें अपना दूध पिलाया और सायुज्य मोक्ष प्राप्त किया।
भगवान ने वामन रूप में तीनों लोकों पर महान उपकार किया। जिस समय भगवान ने अपने पहले पग को बढ़ाया तो उन्होंने उसमें पूरे भुवः अर्थात सातों पतालों को नाप लिया था। दूसरे पग में पृथ्वी सहित छओं स्वर्ग लोकों को नाप लिया। जब उनका पैर ऊपर उठा तब ब्रह्मा जी ने अपने कमंडल के जल से उनके चरण पखारे। वो जल गंगा जी के रूप में स्वर्ग में बहने लगा। जिसे हम आज भी आकाशगंगा के नाम से जानते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी आकाशगंगा का पूरा वैज्ञानिक शोध आज भी हमारे वैज्ञानिक नहीं कर पाएं हैं। तब सोचिये, कितना उन्नत विज्ञान था उस समय का। यदि हम ये कहें कि भगवान वामन ने हमें वैज्ञानिक शोध के बहुत से विषय दिये हैं तो गलत नहीं होगा।
इतना ही नहीं, जब राजा बलि को उनका वचन पूरा न कर पाने के लिए उन्होंने उसे वरुण पाश में बाँध दिया। यहाँ भी एक शोध का विषय है कि वरुण पाश, जिससे बंधक को मुक्ति केवल उसके बाँधने वाला ही दे सकता है, यदि ये हमारे सैनिकों को मिल जाये तो शत्रु कुछ कर ही नहीं पायेगा और हमारी सेना के पास ये एक और सशक्त अस्त्र हो जायेगा।
चलिए हम वापिस अपनी बात पर आते हैं। जब भगवान वामन के लिए तीसरा पग रखने के लिए कहीं स्थान नहीं बचा तो उन्होंने राजा बलि झूठा वचन देने के लिए वरुण पाश में बाँध दिया। फिर भगवान ने उन्हें कहा – “बलि! तुमने मुझे तीन पग भूमि देने का बचन दिया था। देखो मैंने एक पग में सातों पातालों, दूसरे पग में पृथ्वी सहित छओं स्वर्ग लोकों को नाप लिया है। अब मेरे तीसरे पग के लिए तुम्हारे पास कहीं स्थान नहीं है। अतः तुम्हारा वचन झूठा हुआ।”
तब राजा बलि ने उत्तर दिया – “नहीं भगवन! मेरा वचन झूठा नहीं हुआ है। आपने अभी तक केवल तीनों लोकों को नापा है, मुझे नहीं। आप तीसरा चरण मेरे सिर पर रखिये।” और वे सिर झुका कर बैठ गये। यहाँ उनके समर्पण की पराकाष्ठा थी। उन्होंने सब कुछ श्रीपति को समर्पित कर दिया। तब भगवान ने उन पर प्रसन्न होकर उन्हें सावर्णी मन्वन्तर में इन्द्र होने का वरदान दिया। साथ ही उनकी विशेष इच्छा भी पूछी। तब राजा ने उनसे कहा कि यदि आप मुझ पर प्रसन्न हो और मुझसे संतुष्ट हो तब आप मेरे सुतल लोक के संरक्षक बन जाओ। भगवान ने तथास्तु कह कर उनका ये मंतव्य स्वीकार कर लिया।
राजा बलि और भगवान त्रिविक्रम के इस प्रसंग में मुख्यतः तीन बातें और समझने योग्य हैं….
पहली बात : जब राजा बलि पूछते हैं कि हे विप्र श्रेष्ठ! आप क्या पाने की इच्छा से बलि के द्वार पर आये हैं? तब भगवान कहते हैं कि मुझे मेरे पैरों से नाप कर तीन पग भूमि चाहिये। उनकी बात सुनकर सब जन हँस पड़े। क्योंकि मात्र छः इंच का बालक अपने पैरों से तीन पग में कितनी भूमि नाप सकेगा? ऐसे में राजा बलि ने कहा कि विप्रवर! आप बलि के दरबार में आये हो तो इतना माँग लो कि फिर जीवन में कुछ माँगने की इच्छा ही न बचे। तब वामन रूपी भगवान बोले – “राजन! इच्छायें आज तक किसकी पूरी हुईं हैं? अब आप ही को देख लो, निन्यानवे यज्ञ करके आज आप तीनों लोकों के एकछत्र अधिपति बन चुके हो। फिर भी सौवें यज्ञ की दीक्षा लेने जा रहे हो। क्या आपकी इच्छायें पूरी हो गई? नहीं! अतः मुझे केवल उतना ही दान चाहिये, जितने में मेरी आवश्यकता की पूर्ति हो सके।”
यहाँ भगवान ने कितनी सुन्दर बात कही है कि केवल अपनी आवश्यकता जितना ही संग्रह करना चाहिये। आवश्यकता से अधिक संग्रह भी दुःख का कारण बनता है।
दूसरी बात : भगवान वामन की बात चले और गुरु शुक्राचार्य की चर्चा न हो तो सारी चर्चा ही अधूरी रह जाएगी। वामन भगवान जिद्द पर अड़े थे कि पहले आप संकल्प लेकर वचन दीजिये, तभी मैं आपको बताऊँगा कि मुझे क्या चाहिए? ये सब सुनकर गुरु शुक्राचार्य जी का माथा ठनका। वे सोचने लगे कि मात्र छोटा सा ब्राह्मण ऐसा क्या माँगने जा रहा है कि महाराज को वचन भरना पड़े? उन्होंने अपनी योग दृष्टि से देखा तो समझ गए कि ये तो स्वयं नारायण हैं। तब वे राजा को संकल्प लेने से रोकने लगे….
बलि यू तो छलिया देस दुनी को।
याहै मत देय दान जमी को।
याही ने हिरनाकुस मारयो
भरयो भेष नरसिंह कौ।
याहै मत देय दान जमी को
याहि नै हिरन्याक्ष संहारयौ,
धरयो रूप वाराह कौ।
याहै मत देय दान जमी को
✍🏻 अज्ञात
किन्तु फिर भी बलि नहीं माने। वे कहने लगे कि यदि ये सचमुच भगवान ही हैं, तब तो मेरा दान तीनों लोकों में अमर हो जायेगा। गुरुदेव ने उन्हें श्राप दे दिया कि तू अपने आप को गुरु से भी ऊँचा मानता है, जा तू शीघ्र ही श्रीहीन हो जा। तब भी बलि नहीं माने। तब शुक्राचार्य जी ततैया बनकर कमंडल के मुँह में बैठ गये, जिससे जल बाहर ही न निकले। तब भगवान ने एक तिनके से उनकी आँख फोड दी। तब से गुरु शुक्राचार्य एक आँख के होकर रह गये।
यहाँ शिक्षा मिलती है कि सद्गुरु घोर अपमान सहकर भी अपने शिष्य का भला ही करता है। वो माँ की भाँति हर संकट से उसकी हर सम्भव रक्षा करने का प्रयास करता है। सच्चे गुरु की यही पहचान है। नमन है गुरु शुक्राचार्य जी को।
तीसरी बात : वचन पालन और धर्म पर अडिग रहने वालों का कभी कोई अहित नहीं कर सकता। राजा बलि ने धर्म पर आरूढ रहते हुए गुरु के मना करने के बाद भी अपने वचन पालन हेतु संकल्प करके तीन पग भूमि दान की। उसमें न केवल अपनी अर्जित सारी संपत्ति, अपितु स्वयं को भी उन्होंने भगवान को समर्पित कर दिया। भगवान ने तीनों लोकों के साथ बलि को भी जीत लिया। किन्तु राजा के धर्म और वचन पालन से संतुष्ट होकर उन्होंने सुतल लोक उन्हें दे दिया। स्वर्ग उन्होंने देवताओं को दे दिया। पृथ्वी पर जहाँ राजा बलि का राज्य था, वो उनके ज्येष्ठ पुत्र बाणासुर को दे दिया।
इस प्रकार यहाँ भी दो संदेश मिलते हैं पहला – धर्मों रक्षति रक्षितः। और दूसरा जो भी तुम्हारे पास है उसे बाँट कर उपभोग करो।
आज अपनी कलम को हम यहीं विश्राम देते हैं। अगले किसी विचारणीय लेख को लेकर फिर आप सभी के समक्ष उपस्थित होंगे।
राधे राधे 🙏 🌷 🙏
इति श्री
✍🏻 राधा श्री
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