
“भरत और हनुमान मिलाप”
क्या कारण है कारण है क्या, प्रभु चरणों की रज न आई है।
तज दिए राम प्रभु दास को क्या, अब घड़ी निकट नियराई है।।
लक्ष्मण बड़भागी धन्य हुए, प्रभु कृपा चरण अनुरागी हैं।
नयनों से श्रीमुख का दर्शन, पदसेवा के सरस सुभागी हैं।।
माता सीता की आशीषछाया, करुणाकर करुणा जो करतीं हैं।
सुर सरिता सी वाणी जिनकी, जिनके नेत्रों से ममता झरती है।।
अंगद जामवंत नल नील, शतबली दधिमुख मयंद यूथपति है।
द्विविद कुमुद गवाक्ष शरभ, प्रजंघ, जम्भ, ऋषभ, वायुपति हैं।।
उनसे बढ़कर सुग्रीव सुहद, जो सेनापति हैं रामादल के।
उसपर पवनपुत्र श्री हनुमान, अधिकारी जो सेवादल के।।
मेरी करनी का जो ध्यान धरें, सौ कल्पों तक निस्तार नहीं।
द्रोही सेवा से विमुखमूढ़, मंडूककूप सा जीव कृपाआधार नहीं।।
वे दीनबंधु हैं दीनानाथ, वे दीनदयाल दया के सागर हैं।
अवगुण न जो हिय में धरते, भक्तों के हित स्वयं सुधाकर हैं।।
मेरा विश्वास अटल अब भी, हो रहे शगुन शुभ सुखदाई हैं।
आनंदित खग मृग नर नारी, क्यों आशंकित मेरा मन भाई है।।
आशा की किरणें खोज रहे, उर में स्पंदन पल पल बढ़ता है।
भक्ति में डूबे सजल नयन, मन तनिक धीर न धरता है।।
कृशकाय भरत कुश आसन पर रघुपति श्री राम ही जपते हैं।
मानों विरह में भरे नेत्र, निज नीर बहाया करते हैं।।
ब्राह्मण का वेश बना करके, अंजनीसुत कदम बढ़ाए हैं।
मानों शब्दों में राम मूर्ति ही, मुखमंडल पर फहराए हैं।।
शत्रु को जीत रघुकुलभूषण, सिय सहित अनुज संग आते हैं।
प्राणों को प्राणों सा संदेशा देकर, केसरीनंदन सुख पाते हैं।।
हे तात कौन हो तुम प्रियवर, तुम कहो कहां से आए हो।
अनुपम अभिमंत्रित वृंद विभा, आनंदित वचन सुनाए हो।।
मैं दास सियापति रघुवर का, वानर हूं हनुमान कहाता हूं।
रघुनाथ के भ्रात भरत सुनिए, उनका आदेश सुनाता हूं।।
मैं ऋणी तुम्हारा जन्मों तक, कर कृपा तनिक विस्तार करो।
श्री मुख से राम कुशल कह दो, लो तात हृदय स्वीकार करो।।
पुलकित हनुमत हो शाष्टांग, पुनि पुनि शीश नवाते है।
हो रामप्रिय दशरथनंदन, वह पल पल नेह लुटाते है।।
प्रति पल पूजा प्रति क्षण सेवा, प्रति स्वास राम आभारी है।
दो भक्त मिले जो भजें राम, कहते धन्य धन्य अधिकारी हैं।।
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