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!! “व्यक्तित्व परिचय : श्रीमती रिंकी कमल रघुवंशी “सुरभि” ” !!

!! “व्यक्तित्व परिचय : श्रीमती रिंकी कमल रघुवंशी “सुरभि” ” !!

 

!! “मेरा परिचय” !! 

 

नाम :- रिंकी कमल रघुवंशी ‘सुरभि’

 

माता/पिता का नाम :- माँ- स्वर्गीय सरस्वती देवी। 

पिता- स्वर्गीय निरंजन सिंह रघुवंशी। 

 

जन्म स्थान एवं जन्म तिथि  :- 09- 09- 1983 गंज बसोदा मध्य प्रदेश। 

 

पति का नाम :- कमल सिंह रघुवंशी। 

 

बच्चों के नाम :- आयुष्मान सिंह रघुवंशी। 

 

शिक्षा :- केवल स्कूली शिक्षा ही पूर्ण की। 

 

व्यावसाय :- गृहणी

 

वर्तमान निवास :- विदिशा मध्य प्रदेश। 

 

मेल आईडी :- rinkyr.2008@gmail.com

आपकी कृतियाँ :- कुछ कहानियाँ, लघुकथा, उपन्यास और गीत गजल इत्यादि। 

 

आपकी विशिष्ट कृतियाँ :- माँ तो माँ जैसी होती है, पिता सा फरिश्ता।, हजारिया महादेव चालीसा, अधूरा प्रेम, ये प्रीत हमारी सच्ची थी, गुमनाम शामें, कहानी उसके पापा इत्यादि। 

 

आपकी प्रकाशित कृतियाँ :- तीन साझा संकलन, एक उपन्यास पॉकेट नोवेल पर प्रकाशित और कई समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित हैं। 

 

पुरूस्कार एवं विशिष्ट स्थान :- यूँ तो छोटी सी कलमकारा हूँ पर कुछ संस्थानों ने पुरुस्कार देकर मान दिया है, उनमें मध्य प्रदेश कवियत्री सम्मान विशेष रूप से खास रहा है। 

कल्प कथा ने भी कई बार प्रमाण पत्र देकर सम्मानित किया है। 

 

 

 

!! “मेरी पसंद” !!

 

भोजन :- सादा शाकाहारी भोजन

 

रंग :- गोरा 

 

परिधान :- साड़ी, सलवार कुर्ता, 

 

स्थान एवं तीर्थ स्थान :- वृन्दावन जाना और वहीं बस जाने का मन करता है, वाँकी मेरे गाँव से मेरा विशेषत: लगाव है। 

 

लेखक/लेखिका :- मुंशी प्रेमचंद और मीनाक्षी नटराजन। 

 

कवि/कवयित्री :- हरिओम पवार और अंजुम रहवर। 

 

उपन्यास/कहानी/पुस्तक :- उपन्यास अपने- अपने कुरुक्षेत्र। 

 

कविता/गीत/काव्य खंड :- एक गजल जो बेहद पसन्द है मुझे वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी। 

 

खेल :- बचपन मे खेला करते थे “शैलची” और “छिपा -छिपी”

 

मूवीज/धारावाहिक (यदि देखती हैं तो) :- फिल्म रिफ्यूजी 

 

आपकी लिखी हुई आपकी सबसे प्रिय कृति :- एक गजल

कोई गुमनाम शामो की अनकही सी उदासी हूं।

 सुनहरी भोर मे जैसे कोई गहरी निशा सी हूं।।

घने कोहरे की चादर मे धूप बन् झांकना चाहुं। 

नजर भर देखने नभ को मैं इक बेचैन धरा सी हूं।।

 

बदलते रंग दुनिया के नही दिखती असल शक्लें। 

मुखौटों से भरी महफिल मै खुदको ही न पाती हूं।।

जहां से राह बदली थी वहीं फिर आ खड़ी हूं मैं।

सफर आता समझ मे न मिटते कुछ निशां सी हूं।।

 

बहुत है फूल झोली मे मगर पतझड़ का मौसम है। 

जल रही खुदसे ही अब तो जून की गर्म हवा सी हूं।।

बड़ी ही झूम कर आई सुरभि उम्मीद ले दिल में। 

मगर मिलते ही साहिल से बिखरती इक लहर सी हूं।।

रिंकी कमल रघुवंशी ‘सुरभि’ 

विदिशा मध्य प्रदेश।

 

 

 

 !! “कल्पकथा के प्रश्न” !!

 

प्रश्न 1. रिंकी जी, सबसे पहले आपके व्यक्तिगत एवं साहित्यिक परिवेश के बारे में हमें बताइये। 

 

रिंकी जी :-   सबसे पहले तो यही कहना चाहूँगी कि मैं मात्र तुच्छ सी एक गृहणी हूँ, माँ वीणा वादिनी की कृपा दृष्टि पड़ी और लेखनी हाथ आ गई, बचपन से ही लेखन के मेरे शौक को पहचाना मेरे स्कूल के प्रिंसिपल सर ने जब किसी कार्यक्रम में मैंने एक गीत लिखा तो उन्होंने आगे भी लिखने को प्रेरित किया, और कदम कदम पर होंसला मां ने बढ़ाया, कोई साहित्यक गुरु नही मिला था बस माँ थी हौसले दे रही थी और मै कलम चला रही थी। 

 

 

प्रश्न 2. रिंकी जी, आप कल्पकथा के साथ इस भेंटवार्ता को कैसे देखती हैं? क्या आप उत्साहित हैं? 

 

रिंकी जी :-     यह मेरी प्रथम साहित्यक भेंट वार्ता है और मन काफी उत्साहित भी है, यह वार्ता जैसे प्रत्येक कवि को न सिर्फ पाठको से प्रशंशकों से वल्कि  साहित्यकार से भी स्वयं से परिचित कराती है। 

 

 

प्रश्न 3. रिंकी जी, आप विदिशा जैसे सुन्दर नगर में रहती हैं। हमें इस नगर की ऐतिहासिकता के बारे में कुछ बताइये। 

 

   रिंकी जी :-      विदिशा एक सुंदर प्राचीन और ऐतिहासिक नगरी है जो वेतवा और वेस नदी के मध्य मे बसी है, 

यहाँ कदम कदम पर इतिहास अपना परिचय जैसे स्वयं देता है,

 इसका प्राचीन नाम वेसनगर था फिर भेलसा और उसके बाद अब विदिशा है, रामायण काल का भी उल्लेख यहाँ मिलता है और इसको सप्तऋषियों की तपोस्थली भी कहा जाता है। 

सम्राट अशोक की पांच पत्नियों में पहली पत्नी शाकम्भरी विदिशा से ही थी। 

यहाँ विशेषत:मौर्य वंश का राज था। 

 

 

प्रश्न 4. रिंकी जी,  जीवन में कभी सफ़लता तो कभी असफलता भी आती रहती है। आप इन सफलताओं और असफलताओं को कैसे देखती हैं? 

 

रिंकी जी :-     सीधी सरल भाषा में कहूँ तो घडी की सुई की तरह, जो कि एक ही चक्र में एक ही गति से घूमती है फिर भी एक बार अंधेरा एक बार सवेरा देखती है, 

सफलता और असफलता भी एक प्रक्रिया है निरंतर चलती है, असफलता के बाद जितना स्वयं को मजबूत बनाने की आवश्यकता है उससे कहीं ज्यादा सफलता को पचाने के लिए व्यक्तित्व को मजबूत बनाना आवश्यक है,

असफलताएं बहुत कुछ सिखाती है, और सफलता बहुत कुछ भुला देती है। 

 

 

प्रश्न 5. आपकी अब तक की साहित्यिक यात्रा कैसी रही? साथ ही हम आपकी कोई एक कविता सुनना चाहेंगे। 

 

रिंकी जी :-    साहित्य के लिए मेरा समर्पण आत्मा से रहा मगर सृजन समय मिलने तक ही हुआ, 

कितनी ही रचनाए बनते बनते विलुप्त हो गई कुछ आधी लिखी रही कुछ पूर्ण होने के वाट मे हैं, मेरे लिए यूँ तो साहित्य मेरी दिनचर्या का हिस्सा है, पर जिसे कागज पर न उतार सके वो कहाँ गढ़ना में रहे। 

तो बस यूँ ही मद्धम-मद्धम चल रहा है साहित्य का सफर, जो अनवरत चलना है जीवन सफर से आगे भी शायद। 

प्रश्न 6.  रिंकी जी, हम जानना चाहेंगे आपके बचपन का वो किस्सा, जो आपको आज भी चहचहा देता है। 

 

रिंकी जी :–   एक बेहद चंचलता से पूर्ण किस्सा बचपन का है जिसके लिए मेरा बेटा भी मुझे कभी कभी चिढ़ाता है। 

मैं तब आठवीं कक्षा में थी परीक्षा चल रही थी।

रात को काफी देर तक पढ़ने के बाद सुबह भी बड़े जल्दी उठकर पढ़ने लग गई, स्कूल की दूरी घर ज्यादा दूर नही थी तो मैं समय से दस मिनिट पहले ही निकलती थी, उस दिन भी नहा धोकर तैयार हो निकलने ही वाली थी कि टाइम देखा तो बीस मिनिट का समय था घर के बाहर बरगद का विशाल पेड़ था और उसके नीचे भैरव बाबा का स्थान था वही पास ही एक दो खाट पड़ी रहती थी मैं दस मिनिट आराम करने के इरादे से वहीं खाट पर लेट गई किताब भी खोल ली थी मगर पांच मिनिट भी न लगे और आँख लग गई, बीस मिनिट से पच्चीस हो गए,

जबकि रोज नियम था स्कूल जाते ही पहले हेडमास्टर जी ( जो मेरे दादाजी थे) को प्रणाम कर क्लास रूम जाती थी। 

इसका फायदा ये हुआ कि उन्होंने क्लास रूम मे चेक करवा कर झट से चौकीदार चाचा को घर भेजा और मै चौकीदार चाचा को घर के बाहर ही सोते मिली, उन्होंने झट से मुझे जगाया और मैं उनके भी आगे आगे भागते हुए स्कूल पहुंची, उस दिन तो डाँट पड़ी उसके बाद से फिर अब तक जिस जिस को ये बात पता चली सब हँसते हैं, और मै खुद भी। 

 

 

प्रश्न 7.  समय परिवर्तनशील है। स्वाभाविक है कि साहित्य जगत में भी परिवर्तन होते रहते हैं। आप इन परिवर्तनों को किस रूप में देखती हैं? 

 

रिंकी जी :-   परिवर्तन होना एक स्वभाविक प्रक्रिया है, पर जिस तरह परिवर्तन के नाम पर आधुनिकता हावी हो रही है वह साहित्य के लिए बेहद चिंता जनक है,

संस्कृति से समझौता और सत्य से विमुखता परिवर्तन के नाम पर नही हो बस। अन्यथा आज के कलमकार जिस तरह से भावनाओं को, राष्ट्रीयता को, प्रेम को शब्दों में ढालते हैं, वह अद्भुत है। 

 

 

प्रश्न 8.  आप आज के समय के किस लेखक या कवि से सबसे अधिक प्रभावित हैं? 

 

रिंकी जी :-   हास्य कवि सुरेंद्र शर्मा, 

उनको सुनकर लगता है अभी कलम आजाद है। 

 

 

प्रश्न 9. रिंकी जी, आप अपने लेखन में कितनी अनुशासित हैं? 

 

रिंकी जी :-  यूँ तो बिल्कुल भी नही, 

पर मै अपनी लेखनी को सिर्फ उसी दिशा में चला पाती हूँ जहाँ मुझे विश्वास हो कि जो मैं लिख रही हूँ  वह मानवता से पूर्ण है। 

 

 

प्रश्न 10. आज चारों ओर सोशल मीडिया का दबदबा आप देखती होंगी? ये साहित्य जगत के लिए किस प्रकार  सहायक सिद्ध हों सकता है? 

 

रिंकी जी :-  जहाँ कितने ही साहित्यकार अपने गाँव शहर नुक्कड़ पर बैठ रचना पाठ करते विलुप्त हो जाते थे आज उन सबको छोटा  बड़ा कोई न कोई प्लेटफॉर्म मिल जाता है, और साहित्य किताबों मे बन्द होने की बजाय दूसरे माध्यमों से पाठकों तक पहुँच जाता है। 

 

 

प्रश्न 11. आप विषयानुगत लेखन के विषय में क्या सोचती हैं? 

 

 रिंकी जी :-  मेरे हिसाब से तो जो आपके अंतर्मन से भाव उठते हैं वही आपका लेखन होता है, विषय मिलने पर हम जो लिखते वो भाव पूर्ण हो सकता है पर अंतर्मन का भाव नही। 

हाँ विषयानुगत लेखन आपकी लेखनी को सफलता के आकाश तक अवश्य ही पहुंचा देगा। 

 

 

प्रश्न 12. रिंकी जी,  आप जितने मनोयोग से काव्य लिखती हैं, उतनी ही सहजता आपके लेख आदि में भी देखी गई है। फिर भी हम आपसे जानना चाहेंगे कि गद्य और पद्य में से आप किस विधा में अधिक सहजता से लिख पाती हैं? साथ ही हम आपकी वो कविता भी सुनना चाहेंगे, जो आपको विशेष प्रिय हो।  

 

  रिंकी जी :-  ऐसा मुझे कभी लगा नही कि ज्यादा सहज क्या है क्योंकि जब भी गद्य में लिखती हूँ वो सहज महसूस होता है और पद्य लिखूँ तो वह भी, 

मेरी पसंदीदा रचना एक गजल ही है जो अभी कुछ समय पहले ही लिखी है-

उठाते रहे कदम तो मगर मिले रास्ता नहीं। 

उलझ रहा है उनसे मन  जिन्हे राब्ता नहीं। 

 

कहते थे साथ चलना है वही साथ न चले। 

इल्जाम लाख देके हमें  उन्हे वास्ता  नहीं। 

 

कोई मुकाम उनका भी हो वो भी ठहर लें। 

बच्चों की छुट्टीयां तो हैं कहीं मायका नहीं।

 

टुकड़ो  में  बिखरे  टूट  के नाते यूँ  रूह के। 

शामिल थी कई साजिसें कोई हादसा नही।

 

हँसते हुए जो चल रहे हैं उनसे भी पूछा है। 

मुस्कुराए थे कब दिल से उन्हे यादसा नही। 

 

हँसते  रहो, हँसते  रहो, हँसते रहो  सुरभि।

गम  किस को सुनाओगे कोई मानता नहीं।। 

 

 

 

प्रश्न 13. समसामयिक लेखन पर आपके क्या विचार हैं? 

 

 रिंकी जी :-  समाज और सामाजिकता के उत्थान के लिए समसामयिक रचनाएँ सृजित होती रहनी चाहिए, ये जीवन की राह प्रसस्त करने मे भी मददगार ही हैं। साहित्य जगत की एक खूबसूरत विधा की तरह है समसामयिक रचनाएँ भी। 

 

 

प्रश्न 14. काव्य विधा का आठ रसों में सृजन होता है। आप काव्य के कौन से रस में लिखना अधिक पसंद करती हैं? 

 

रिंकी जी :-  पसंद तो वीर रस को करती हूँ,

किंतु मेरी लेखनी श्रृंगार और करुण रस पर ही चलती है। 

 

 

प्रश्न 15. कहते हैं लेखन तभी सार्थक होता है, जब वो देशहित में कार्य करे। आप अपने लेखन को इस तर्क पर कैसे सिद्ध करती हैं? 

 

 रिंकी जी :-  लेखन अपने आप मे ही राष्ट्र हित समाज हित मे समर्पित होता है। q

मेरे लेखन में मानवीयता को प्रधानता मिलती है और मेरे ख्याल से जहाँ मानव बस मानव बना रहे तो उस राष्ट्र का हित स्वत: ही हो जाता है। 

 

 

 

प्रश्न 16. रिंकी जी आप रचनाएँ किसी माँग (विषय/परिस्थिति) पर सृजित करना पसंद करती हैं या फिर स्वत: स्फूर्त सृजन को प्राथमिकता देती हैं?

 

रिंकी जी :-  कुछ घटनाएं ऐसी परिस्थितियां बना देती हैं कि लेखनी चल जाती है, 

अन्यथा मै स्वतः स्फूर्त सृजन ही पसंद करती हूँ। 

 

 

प्रश्न 17.  रिंकी जी आपके दृष्टिकोण में क्या रचनाओं में भावपक्ष एवं कलापक्ष का संतुलन होना आवश्यक है? यदि हां तो क्यों? अथवा प्रवाह के साथ रचना सृजन में इस संतुलन को पीछे छोड़ा जा सकता है, यदि हां तो क्यों?

 

रिंकी जी :-  कवि विहारी  जी का एक दोहा है- सतसैया के दोहरे, ज्यों नाविक के तीर। 

देखन  में  छोटे  लगें,  घाव करें गंभीर। 

मै भाव पक्ष को प्रधानता देती हूँ, क्योंकि प्रवाह छूट भी जाता है तो रचना का कलात्मक भाव पाठक को बहा ले जाने में सक्षम होता है। 

 

 

प्रश्न 18.  वर्तमान समय में हिन्दी भाषा की रचनाओं में अन्य भाषा के शब्दों का अधिक उपयोग किया जा रहा है, आप इस भाषाई मिश्रण को किस दृष्टिकोण से देखती हैं?

 

 रिंकी जी :-  ये समय की मांग कह सकते हैं, पर मिश्रण किसी भी भाषा के लिए सही नही है। अपनी रचना को सहजता से समझाने के लिए अधिकतर साहित्यकार ऐसे प्रयोग करते हैं, जो चिंतनीय है। 

 

 

प्रश्न 19. रिंकी जी, आधुनिक युग में काव्य रचनाओं के विष्लेषण के नाम पर तुलना किया जाना कुछ अधिक ही प्रचलित हो गया है, जिससे तुलना के स्थान पर छद्म आलोचना का माहौल बन जाता है। इस छद्म आलोचना का सामना कैसे किया जाना चाहिए?

 

 रिंकी जी :-  सृजनकार को अपने सृजन पर विश्वास दृढ़ होना चाहिए, किसी छद्म आलोचना को दरकिनार करना और अपने विचारों पर अडिग रहना  सहजता से इन आलोचकों को शांत बैठा देती है। 

मैंने कितनी ही बार ऐसे समय में सिर्फ मुस्कुराते हुए अपनी रचनाओ पर टिप्पढियाँ सुनी और सहज रही। 

 

 

प्रश्न 20.  क्या आप किसी एक ऐसे एतिहासिक पात्र को अपने दृष्टिकोण से उकेरने का प्रयास करेंगी जिसको आपके दृष्टिकोण से इतिहास के पन्नों में स्थान नहीं मिला है या एतिहासिक परिप्रेक्ष्य में उनके साथ न्याय नहीं हुआ है, यदि हां तो वह कौन हैं और आपको क्यों लगता है कि उनके साथ न्याय नहीं हुआ है?

 

  रिंकी जी :-  जी, मैं ऐसी प्रत्येक शख्शियत को अपने दृष्टिकोण से उकेरना चाहती हूँ, जिनको मैं खुद भी नही जानती। जो राजा महाराजाओं के इर्द गिर्द अपनी कहानी को रचते किसी भयावह चकरव्यूह मे उलझकर गुमनाम ही विदा हो गए। 

उनके साथ इतिहासकारों ने कोई अन्याय नही किया क्योंकि इस तरह प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँच नही बनाई जा सकती थी। 

यह मेरी एक कल्पना हो सकती है जिसे उकेरना भी काल्पनिक ही होगा। 

पर मैं इतिहास और इतिहास कारों से कोई शिकायत नही रखती। 

 

 

प्रश्न 21. श्री राधा गोपीनाथ बाबा की प्रमुखता में चल रहे कल्पकथा से आप लगभग आरम्भ से जुडी हुई हैं। आप कल्पकथा के साथ अपने अनुभवों को हमारे साथ साँझा करना चाहेंगी? साथ ही हम जानना चाहेंगे आप इससे कितनी प्रभावित हैं? 

 

 रिंकी जी :-  कल्पकथा मेरे लिए एक पाठशाला की तरह है, यहाँ जुड़ना मेरा सौभाग्य है और जितना सीखने यहाँ मिलता है उतना ही स्नेह भी यहाँ एक परिवार की तरह मिलता रहा है, 

कल्प कथा अब मेरे साहित्य सफर का एक अनन्य साथी है। 

 

 

 

प्रश्न 22. आप अपने पाठकों, हमारे दर्शकों, सभी लेखकों और समाज को क्या संदेश देना चाहती हैं?

 

रिंकी जी :-   एक इंसान होने के नाते इंसान से प्रेम और भाषा में मर्यादा सदैव ही बनाए रखना चाहिए। किसी भी तरह के सक्षम या किसी भी सत्ता धीश के सामने अगर सत्य न रख सकें तो बिना समझे झूंठ के साथ न खड़े हों रिश्ते हों समाज हो या सत्ता अगर हद के आगे तक आप झुक गए तो प्रलय कारक अंत होगा क्योंकि हमारे बर्दाश्त को सिर्फ हम नहीं हमारे सभी अपने भुगतान करते हैं, सहजता से दृढ़ता से या त्याग से जैसे भी हो गलत को अस्वीकार करना ही चाहिए। 

यह मेरा मत है और मै बहुत तुच्छ सी कलमकार हूँ मेरे छोटे से अनुभव से जो अहसास मिले वो यहाँ रखे। 

 

धन्यवाद! 

✍🏻  वार्ता : श्रीमती रिंकी कमल रघुवंशी “सुरभि”

 

 

         ये भेंटवार्ता रही विदिशा मध्यप्रदेश की उभरती लेखिका श्रीमती रिंकी कमल रघुवंशी “सुरभि” जी के साथ। आपको इनके बारे जानकर कैसा लगा? हमें आप कमेन्ट बॉक्स में अवगत कराएं। 

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https://www.youtube.com/live/lAqFOrTP_OA?si=uiMEoFwu-Lg3ZTq6

 

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राधे राधे 

✍🏻 प्रश्नकर्ता : कल्पकथा परिवार

कल्प भेंटवार्ता

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