
व्यक्तित्व परिचय श्रीमती मीरा परिहार मंजरी जी
- कल्प भेंटवार्ता
- 12/09/2024
- लेख
- साक्षात्कार
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*!! “व्यक्तित्व परिचय” !!*
*!! “मेरा परिचय” !!*
नाम :- मेरा नाम मीरा है ,पहले चौहान थी अब परिहार हूँ।
माता/पिता का नाम :-माँ का नाम बिटोली उर्फ श्रीमती लक्ष्मी देवी एवं पिता का नाम श्री ईमान सिंह उर्फ मानसिंह चौहान।
जन्म स्थान एवं जन्म तिथि :-आगरा 07/03/1958
पति का नाम :- श्री जवाहर सिंह परिहार
बच्चों के नाम :– ऋचा एवं अभिलाषा
शिक्षा :- एम.ए.राजनीति शास्त्र एवं विधि स्नातक
व्यावसाय :- गृहकार्य
वर्तमान निवास :- आगरा गणेश नगर, लायर्स काॅलोनी
मेल आईडी :- meeraparihar7691@gmail.com
आपकी कृतियाँ :-बाल कविताएं, परछाई,मेरी सौ कविताएं, टर्निंग प्वाइंट 2023, मीरा परिहार की लोकप्रिय कहानियां,चिमटा -चिमटा , श्रीमद्भागवत गीता काव्यांजलि, कहानियां सुनी अनसुनी सी, मीरा मंजरी , ग़ज़ल गुलिस्तां
आपकी विशिष्ट कृतियाँ :- जो छप गयी हैं वहीं विशिष्ट हैं।
आपकी प्रकाशित कृतियाँ :-दस
पुरूस्कार एवं विशिष्ट स्थान :-प्रतिलिपि से कलमकार सम्मान, डायरी लेखन नवां स्थान आने पर प्रमाण पत्र,
*!! “मेरी पसंद” !!*
उत्सव :- मुझे सभी उत्सव पसंद हैं ,होली ,दीवाली ,सावन , नवदुर्गा, दशहरा टेसू ,झांझी
भोजन :-सादा दाल, सब्जी ,रोटी , पूड़ी,परांठा ,लिट्टी चोखा, खीर,बूंदी का रायता
रंग :- मेहरून आसमानी , पीला
परिधान :- आजकल सलवार सूट, वैसे मैं साड़ी ही पसंद करती हूँ
स्थान एवं तीर्थ स्थान :-समुद्र जिसमें पांडिचेरी बहुत अच्छा लगा ,पोरबंदर , तमिलनाडु में रामेश्वरम, पहाड़ों में पिथोरागढ़, मुनस्यारी, नारायण आश्रम, गुफाएं अरुवेली आश्रम , भोपाल में भित्ति चित्र, दिल्ली का लाल किला, कुतुब मीनार,केबडि़या का बल्लभभाई पटेल स्टेच्यू, महात्मा गांधी का आवास , चंडीगढ़,गोवा ,नागोआ बीच ,द्वीव दमन
जगन्नाथ पुरी, द्वारका, पद्मनाभ स्वामी मंदिर, सोमनाथ, श्रीनगर में आदिशंकराचार्य मंदिर, मथुरा, वृंदावन, काशी-विश्वनाथ, कालकाजी, छतरपुर दिल्ली,लोटस टेम्पल बहाई धर्म, अम्बा जी , माउंट आबू
लेखक/लेखिका :– शरतचंद्र, प्रेम चन्द जी , देवदत्त पटनायक, शिवानी, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान,रूसी लेखकों में मक्सिम गोर्की, रविन्द्र नाथ टैगोर,
कवि/कवयित्री :-श्री गोपाल दास नीरज जी , हमारे शहर की शशि तिवारी जी, रमा वर्मा श्याम जी , डाक्टर सुषमा सिंह जी ,
उपन्यास/कहानी/पुस्तक :- आजकल मैंने देवदत्त पटनायक जी की जय और सीता पढ़ी हैं। ये बहुत अच्छी तरह से लिखी गयी पुस्तकें हैं। बड़ी हैं तो पूरी तरह से नहीं पढ़ पायी हूँ। मैत्रेई पुष्पा जी की इदन्नमम,अभी हाल ही में श्री धर्म वीर भारती जी की गुलकी बन्नो कहानी पढ़ी है। नवोदित शिखा श्रीवास्तव की
सुनो तुम्हें प्रेम बुलाता है। डाक्टर मिथिलेश दीक्षित जी की बहुत सी पुस्तकें निबन्ध , हाइकु रचनाएं, उन्हें हाइकु विधा का मास्टर कह सकते हैं। शैलबाला जी की अभी कहानियों की पुस्तक मुक्ति पर्व पढ़ी है।
कविता/गीत/काव्य खंड :- फिलहाल डॉ सुषमा सिंह जी का रामकथा हाइकु के झरोखे से उत्तर प्रदेश विश्वमैत्री मंच पर मैं पढ़ने के लिए लगा रही हूँ । पेज में पूरी रामायण हाइकु में लिखी है उन्होंने।
खेल :-चैस , सुडोकू, आदि लेकिन अब खेल कहां रहे हैं अब तो वाट्सएप और फेसबुक में ही उलझे रहते हैं।
मूवीज/धारावाहिक (यदि देखती हैं तो) :- अभी फिलहाल नहीं देख रही हूँ । जब बेटी के पास जाती हूँ तब देख लेती हूँ । पंचायत और गुल्लक मुझे अच्छे लगे ।
आपकी लिखी हुई आपकी सबसे प्रिय कृति :-
,श्रीमद्भागवत गीता काव्यांजलि , परछाई और टर्निंग प्वाइंट 2023, चिमटा -चिमटा
*!! “कल्पकथा के प्रश्न” !!*
प्रश्न 1. मीरा जी, सबसे पहले आपके व्यक्तिगत एवं साहित्यिक परिवेश के बारे में हमें बताइये।
आदरणीया मीरा परिहार मंजरी जी -मेरा व्यक्तिगत परिवेश साहित्यिक नहीं रहा है। लेकिन पिताजी मेरे लिए किताबें लाते थे। जिनमें रूसी साहित्य, कल्याण तथा अन्य पुस्तकें जिनमें गोपीचंद, राजा हरिश्चंद्र, हमारे नेता जवाहरलाल नेहरू,गांधी जी , सुभाष चन्द्र बोस, भगतसिंह, महाराणा प्रताप आदि थे ।
रामायण, जय बजरंगबली,संत ज्ञानेश्वर,गुड्डी ,सती अनसुइया जैसी फिल्में भी दिखाई थीं। एक रिश्ते की नानी थीं उनके यहाँ महाभारत बड़े बक्से में रखी रहती थीं। उन्हें लाकर सोलह सत्रह साल की उम्र में पढ़ा था।
प्रश्न 2. मीरा जी, आप कल्पकथा के साथ इस भेंटवार्ता को कैसे देखती हैं? क्या आप उत्साहित हैं?
आदरणीया मीरा परिहार मंजरी जी – कल्पकथा के साथ भेंटवार्ता से हमें लेखकों के बारे में रूबरू विस्तार से जानकारी मिलती है। कह सकते हैं कि पूरे व्यक्तित्व की झलक दिखाई पड़ जाती है। हाँ जी मैं भी उत्साहित हूँ । ऐसे अवसर कहाँ मिलते हैं कि कोई हमसे भेंटवार्ता करें । यह तो कल्पकथा ग्रुप का स्नेह है जो मुझे इस काबिल समझा। जया जी, राधा जी का हार्दिक धन्यवाद जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से मुझे इस भेंट वार्ता के लिए प्रेरित किया है।
प्रश्न 3. मीरा जी, आप आगरा जैसे पौराणिक, आध्यात्मिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक नगरी की रहने वाली हैं। उस नगर के बारे में अपने शब्दों में कुछ बताइये।
आदरणीया मीरा परिहार मंजरी जी – आगरा मुगलों की राजधानी रही है शाहजहाँ ने इसे दिल्ली स्थानांतरित किया। अंग्रेजों के समय आगरा-अवध संयुक्त प्रांत था जिसकी राजधानी लखनऊ थी। हाई कोर्ट उस समय आगरा में ही था। श्री मोतीलाल नेहरू जी ने आगरा में ही प्रैक्टिस की है बाद में यह इलाहाबाद चले गये।
बहुत से स्वतंत्रता सेनानी आगरा में पैदा हुए हैं। इसका स्वतंत्रता संग्राम में बड़ा योगदान रहा है। श्री कृष्ण दत्त पालीवाल जी, प्रेम दत्त पालीवाल जी, शंभू नाथ चतुर्वेदी, श्री जगन प्रसाद रावत, श्री हुकम सिंह परिहार, श्री हृदयनाथ कुंजरू जो कि संविधान सभा की सदस्य भी रहे। श्री लक्ष्मी नारायण बंसल, श्री भोगीलाल मिश्रा श्री करुणेश गुप्ता जी आदि।
आगरा लेखकों की भी जन्मभूमि रही है। श्री उल्फत सिंह निर्भय, श्री रणवीर सिंह चौहान, श्री सोम ठाकुर, श्री अमृतलाल नागर, श्री द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, श्री पदम सिंह शर्मा कमलेश, श्री बनारसी दास चतुर्वेदी फिरोजाबाद से, श्री राम विलास शर्मा जो की हिंदी साहित्य के प्रमुख आलोचकों में
गिनती होती है। श्री गोपाल दास नीरज, मशहूर शायर ग़ालिब भी आगरा में रहे हैं।
आगरा शहर की डॉ शशि गोयल साहित्य भूषण सम्मान से सम्मानित हैं।
ताज नगरी की शिक्षाविद् और हिंदी साहित्यकार डॉ. उषा यादव पद्मश्री से सम्मानित हैं ।
प्रश्न 4. मीरा जी, आप स्त्री की विभिन्न भूमिकाओं को निभाते हुए अतुलनीय कवयित्री हैं। आप अपने दायित्वों का निर्वहन करते हुए समय प्रबंधन कैसे करती हैं?
आदरणीया मीरा परिहार मंजरी जी – सबसे पहले तो मैं यह कहूँगी कि मैं कोई बड़ी लेखक या कवियत्री नहीं हूँ । अपने शौक के लिए विभिन्न संस्थाओं से जुड़ी हुई हूँ । उन संस्थाओं में सुनाने के लिए कुछ लिखना-पढ़ना और बोलना भी पड़ता है। इस तरह से लेखन कार्य हो जाता है। कोई व्यवस्थित दिनचर्या नहीं है। क्यों कि मैंने अभी यह साबित नहीं किया है कि मैं एक लेखिका हूँ। तो लोग मुझे स्पेस दें कि नहीं जी आप लिखिए, हम अन्य काम देख लेंगे। सब समझते हैं कि मैं फोन पर अधिक समय बिताने लगी हूँ।
ये काम समय चुरा कर करना पड़ता है। सभी ड्यूटी पहले हैं। लेखन मनोविलास बाद में।
प्रश्न 5. आप लेखिका और कवयित्री की पहचान रखती हैं। आपकी अब तक की साहित्यिक यात्रा कैसी रही? साथ ही हम आपकी कोई एक कविता सुनना चाहेंगे।
आदरणीया मीरा परिहार मंजरी जी – अभी मेरी पहचान सिर्फ अपने समूहों में ही है। प्रोफेशनल कोई काम नहीं कर रही हूँ। जैसे कि किसी को कविता करने बुलाया जाता है या संचालन ,समीक्षा का काम दिया जाता है तो मैंने सुना है कि यह कार्य लिफाफा लेकर किया जा रहा है। अभी मैं इस लायक नहीं हूँ कि लोग मुझे बुलाकर मंच दें या काव्यपाठ करवाएं। हमें विषय बता दिया जाता है तो उस पर अपने विचार व्यक्त कर देते हैं और मिलना जुलना हो जाता है।
हर संस्था की वार्षिक पत्रिका निकलती है। उसके लिए रचनाएं भेज देते हैं तो सामूहिक संकलन छप जाते हैं।
जहाँ तक समय प्रबंधन की बात है, जब बच्चे छोटी थे, तब उन्हें स्कूल भेजने के बाद लिखना-पढ़ना होता था। बच्चों को जब प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए सफर करती थी तब रेलवे स्टेशन, रेल ,पार्क में कुछ ना कुछ लिखना चलता रहा है। मेरी हमेशा से ही पढ़ने में रुचि रही है इसलिए मुख्य-मुखय बिंदु अपनी डायरी में भी नोट करती थी जब बच्चे पढ़ने के लिए बाहर चले गए तब मैंने ज्यादा समय साहित्य को देना शुरू किया 2007 से विविध मंचों से जुड़ी हूँ।
सबसे पहले मैं उत्तर प्रदेश लेखिका मंच से जुड़ी , आगरा यूनिवर्सिटी की कुलपति डॉ प्रतिमा अस्थाना जी का का विशेष स्नेह मुझे मिला। उनकी लिखी एक पुस्तक अब भी मेरे पास है,उत्तर प्रदेश की प्रमुख महिलाएं।
वहीं आरबीएस डिग्री कालेज की प्राचार्या डाॅ सुषमा सिंह जी, कवियत्री रमा वर्मा श्याम जी से वहीं पर मुलाकात हुई। दोनों का स्नेह मुझे इतना मिला कि जब भी किसी गोष्ठी में जाती थीं तो मुझे साथ लेकर जाती थीं। आज भी ऐसा ही है। आपका साहित्य के प्रति समर्पण इस क़दर है कि अपने घर गोष्ठी आयोजित करती हैं।
प्रश्न 6. मीरा जी, कहते हैं बचपन सदैव मनोहारी होता है। हम जानना चाहेंगे आपके बचपन का बाल विनोद भरा वो किस्सा, जो आपको आज भी चहचहा देता है।
आदरणीया मीरा परिहार मंजरी जी – जब मैं पांचवीं कक्षा में थी तब हमें पत्र लिखना सिखाया गया था। जिसमें अपने परिवार के किसी सदस्य के बीमारो होने की सूचना देते हुए पत्र लिखना था। मेरी सहेली थी रानी उसने कहा,अपनी नानी के लिए पत्र लिखते हैं। मेरी नानी तो थी नहीं तब रानी की नानी को चिट्ठी लिखी,” मम्मी की तबीयत खराब है। आप जल्दी से मिलने आ जाओ। इसके बाद उस पेज को मोड़ कर पास ही के डाकखाने में डाल दिया।
कुछ दिन बाद रानी की नानी आ गयीं । जब सब बात पता चली तो रानी की मम्मी मास्टर साहब को खरी खोटी सुनाने आ गयीं। आप यही पढ़ाते हैं बच्चों को। मास्टर साहब की समझ में भी कुछ नहीं आया। सब बातें पता चलीं तो किसी तरह से उन्हें शांत कराया।
प्रश्न 7. समय परिवर्तनशील है। स्वाभाविक है कि साहित्य जगत में भी परिवर्तन होते रहते हैं। आप इन परिवर्तनों को किस रूप में देखती हैं?
आदरणीया मीरा परिहार मंजरी जी -परिवर्तन प्रकृति का नियम है। यह स्वाभाविक है। आज के सृजन में यदि पत्नी स्वयं को पति की दासी कह कर संबोधित करेंगी तो लेखक को दकियानूसी समझा जाएगा। ऐसे ही यदि एक वस्त्र की ग़रीबी दिखाई जाए कि किसी महिला के पास पहनने के लिए एक ही साड़ी थी ,वह रात को उसे धोती थी और सुबह फिर पहन लेती है। यह भी अतिवादी लेखन की श्रेणी में आएगा। आज गाँव में भी लड़कियां पढ़ कर डाक्टर, वकील,सिपाही , शिक्षिका बन रही हैं तब उन्हें शोषित और पीड़ित प्रस्तुत किया जाए तो यह हमारी मानसिक सोच का आइना है जिसमें आज भी एक वर्ग यह मानने को तैयार नहीं है कि स्त्री मानसिक और शारीरिक रूप से पुरुष के समकक्ष ही है। वही वर्ग उनके साथ बलात्कार या बल प्रयोग करके यह साबित करना चाहते हैं कि देखिए ! कहां है बराबरी ? मैंने जो किया है क्या वह तुम कर सकती हो ? देखो मैं बलात्कार कर रहा हूँ बदनामी तुम्हारी होगी , अनचाहा गर्भधारण तुम करोगी ,बोलो कहां है बराबरी ?
परिवर्तन हमेशा हमारा मार्ग प्रशस्त करता है। यद्यपि इसे स्वीकार करने में समय लग सकता है। आज हम अपनी पौराणिक कथाओं पर तर्क कर सकते हैं। लेकिन एक समय ऐसा था जब इसकी इजाजत नहीं थी। आज भी भक्ति मार्गी हैं लेकिन तर्क़ मार्गियों के मार्ग भी खुल रहे हैं।
मेरे लिए परिवर्तन विकास की प्रक्रिया है। भले ही कुछ कालखंड ऐसे आ जाते हैं जब लगता है की प्रगति की जगह अवनति हो रही है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय साहित्य प्रारंभिक अवस्था में था तभी भारत दुर्दशा लेख लिखा गया और कबीर तुलसी को यदि छोड़ दिया जाए तो हिंदी साहित्य की उपस्थिति नगरनिया थी क्योंकि पहले संस्कृत में साहित्य लिखा जाता था हिंदी की परंपरा आगे चलकर शुरू हुई और फिर जयशंकर प्रसाद प्रेमचंद जी ने हिंदी साहित्य को बहुत ऊंचाई तक पहुंचा दिया स्वतंत्रता के बाद मैथिली शरण गुप्त माखनलाल चतुर्वेदी सूर्यकांत त्रिपाठी निराला सुमित्रानंदन पंत महावीर प्रसाद द्विवेदी में गद्य में हजारी प्रसाद द्विवेदी का महत्वपूर्ण स्थान है महादेवी वर्मा दोनों ही विद्या में लिखती थी सुभद्रा कुमारी चौहान स्कूल कैसे भूल सकते हैं जिन्होंने रानी लक्ष्मी बाई पर कॉल जय रचना लिखी।
साहिर लुधियानवी ने कहा है मुझसे बेहतर कहने वाले तुमसे बेहतर सुनने वाले पहले वाली पीढ़ी से आने वाली पीढ़ी बहुत आगे होती है चाहे साहित्य हो या विज्ञान हो।
प्रश्न 8. मीरा जी, आप अपने लेखन में कितनी अनुशासित हैं?
आदरणीया मीरा परिहार मंजरी जी – अनुशासन सिर्फ यही है कि मैं अश्लीलता से बचती हूँ । चूंकि लेखक नहीं हूँ इसलिए एक व्यवस्थित कौना भी मेरे पास घर में नहीं है । कभी बरामदे में,कभी घर के बाहर , बिस्तर पर,जहाँ मुझे लगता है कि लिख दूं तो कर लेती हूँ।
प्रश्न 9. आज चारों ओर सोशल मीडिया का दबदबा आप देखती होंगी? ये साहित्य जगत के लिए किस प्रकार सहायक सिद्ध हों सकता है?
आदरणीया मीरा परिहार मंजरी जी – आप देख ही रही हैं सोशल मीडिया की पहुँच। हम पता नहीं कहां-कहां से एक दूसरे को जानते हैं। हर काम के दो पहलू होते हैं। जब इसका चस्का लग जाता है तो प्रतिस्पर्धा भी बढ़ जाती है। कभी-कभी हम आत्ममुग्धता में खोने लगते हैं। हमारे इतने लाइक्स, फोलोअर्स, सब्सक्राइबर हैं… लेकिन जब ये नहीं होते हैं तो डिप्रेशन में भी आ जाते हैं। साहित्य में तरक्की के लिए हमें साहित्यिक ग्रुप्स से ही जुड़ना चाहिए। यहाँ भी दादागिरी होती है। ग्रुप बनाने वाले तो आराम से शांतिपूर्वक अपना निजी काम करते रहते हैं और वे अन्य लोगों की रचनाओं पर कोई प्रतिक्रिया भी नहीं देते। बहुत दिनों तक दिखाई नहीं देंगे। जैसे ही उन्हें कोई उपलब्धि होती है तब ग्रुप पर आ जाएंगे और उन्हें अन्य की किसी उपलब्धि से कोई सरोकार ही नहीं होता है। तब इसके साफ मायने में होते हैं कि अपनी प्रमुखता और आत्मप्रशंसा के लिए ही ये ग्रुप बनते हैं। अगर अन्य लोग सक्रिय नहीं होते हैं तो नाराज़ हो जाते हैं।
अपनी उपलब्धियों पर शेयर आदि के लिए दबाव बनाते हैं। उस समय उनकी सक्रियता देखते बनती है। तब मालिक और इम्प्लायी की फीलिंग आती है। इसलिए समझदार लोग इन ग्रुप से दूर रह कर अपना सृजन करते हैं और पुस्तकें पढ़ते हैं। हर इंसान की क्षमता होती है,कौन कितना पढ़े, कितने वीडियो देखें। एक बाढ़ जैसी आ गयी है। ये असर प्रतियोगिताओं पर साफ देखने को मिल रहा है। क्वालिटी न देखकर लाइक्स के आधार पर डिसिजन हो रहे हैं।
प्रश्न 10. मीरा जी, हम देखते हैं कि आजकल रचनाओं में भाषागत सम्मिश्रण बहुत अधिक हो गया है, जैसे हिन्दी भाषा में ऊर्दू, अरबी, आदि के शब्द बहुतायत में मिल जाते हैं, आप इस विषय पर क्या सोचती हैं सकारात्मक या नकारात्मक, और क्यों? साथ ही हम आपकी वो कविता भी सुनना चाहेंगे, जो आपको विशेष प्रिय हो।
आदरणीया मीरा परिहार मंजरी जी जब लोग बहु भाषी हैं तो यह स्वाभाविक ही है। यदि व्यक्ति एक ही भाषा पर अधिकार रखता है तब भाषा की शुद्धता बनी रहती है। लेकिन जब व्यक्ति उर्दू, अंग्रेजी, पंजाबी आदि बोलते हैं तो भाषा का मिश्रण स्वाभाविक हो जाता है। फिर भी यदि हिन्दी के बारे में बात करते हैं तो जब प्रकृति चित्रण हिंदी में कर रहे हैं तब उर्दू के शब्द कायनात,आबसारे ,उल्फत आदि शब्द आ जाएं तो काव्य सौंदर्य जाता रहता है। गद्य में चल जाता है। ग़ज़ल में खूबसूरती बढ़ जाती है। एक उदाहरण देखिए
किसी मुक़द्दस नबी का इंतजार करती ये राहें।
अपनी बेबसी या बेकसी का इजहार करती ये राहें।
भूमि यह देवों की ,देवालय उत्तराखंड।
पर्वत, उत्तुंग नदियां, विस्तृत हिमखंड।।
दामन में बहें सरिता, कल-कल निनाद मय।
झरने विरल निरंतर धरनि पर हों विलय।।
कहीं शांत ये धाराएं, कहीं बहती है प्रचंड ।
भूमि यह देवों की, देवालय उत्तराखंड।।
पर्वत शिखर पर खेलें रवि रश्मियों के रंग।
फ्यूली, बुरांश, कांफल, देवदार, चीड़, भंग।।
भट्ट, गहत, मरुआ किस्में हैं बहु अनन्त।
भूमि यह देवों की देवालय उत्तराखंड।।
नंदा देवी ,पंचाचूली, मुंस्यारी ,बेरीनाग।
चंडाक, मुष्टमानु, मायावती, रीठा साहब ।।
पांगु ,नारायण आश्रम, हिमनद, शैलखंड ।
भूमि यह देवों की देवालय उत्तराखंड….
यहीं गंगोत्री ,यमुनोत्री ,बद्री, केदारनाथ।
दन ,चुटकों को बनाते नर नारी साथ-साथ।।
कद्दू ,खीरों को सुखाकर करते सब प्रबंध।
भूमि यह देवों की देवालय उत्तराखंड….
हों छोलियों का नर्तन ,इतिहास के प्रसंग ।
घुघुतिया मनाएं बच्चे, घर-घर में हो प्रसन्न।।
बाघों के गढ़ में घूमते ,मृग बकरियों के झुंड।
भूमि यह देवों की देवालय उत्तराखंड….
वादियों में बादल कहीं बादलों में धुंध ।
उत्सव सभी मनाते गा-गा पहाड़ी धुन।।
कर पकड़ करते नर्तन,गा-गा कर अभंग।
भूमि यह देवों की देवालय उत्तराखंड…
पर्वत उत्तुंग नदियां, विस्तृत हिमखंड…
भूमि यह देवों की, देवालय उत्तराखंड..
मीरा ‘मंजरी’
प्रश्न 11. काव्य विधा का आठ रसों में सृजन होता है। आप काव्य के कौन से रस में लिखना अधिक पसंद करती हैं और क्यों?
आदरणीया मीरा परिहार मंजरी जी – प्रकृति पर लिखना पसंद करती हूंँ। रस कौन सा होगा ध्यान नहीं आ रहा है
– दोनों , सोशल मीडिया पर लिखने से पहले सब कुछ स्वप्रेरित ही होता था। इस समय सोशल मीडिया के चक्रव्यूह की गिरफ्त में हूँ। स्वतःस्फूर्त के लिए हमें हमेशा पेन पेज या फोन के सम्पर्क में रहना पड़ता है। जैसे ही कोई खूबसूरत लाइन दिमाग की बत्ती जलाती है। मन करता है नोट किया जाए जब नहीं हो पाता तो वह लाइन परिंदे की तरह उड़ जाती है। पकड़ में नहीं आती।
प्रश्न 13. मीरा जी, आपके दृष्टिकोण में क्या रचनाओं में भावपक्ष एवं कलापक्ष का संतुलन होना आवश्यक है? यदि हां तो क्यों? अथवा प्रवाह के साथ रचना सृजन में इस संतुलन को पीछे छोड़ा जा सकता है, यदि हां तो क्यों?
आदरणीया मीरा परिहार मंजरी जी -जी कला पक्ष और भाव पक्ष का संतुलन आवश्यक है।हम देखते हैं कि आज छंद रहित रचनाओं का दौर है। उनमें भाव पक्ष प्रबल होता है तो वह बहुत पसंद की जाती है। छंदवद्ध रचनाएं शाश्वत होती हैं। उनका असर श्रोता पर अच्छा पड़ता है और बार- बार सुनने का मन करता है। लेकिन इसमें भी भाव की प्रधानता होगी तभी वह असर करेगी।
प्रश्न 14. मीरा जी, आधुनिक युग में काव्य रचनाओं के विष्लेषण के नाम पर तुलना किया जाना कुछ अधिक ही प्रचलित हो गया है, जिससे तुलना के स्थान पर छद्म आलोचना का माहौल बन जाता है। इस छद्म आलोचना का सामना कैसे किया जाना चाहिए?
आदरणीया मीरा परिहार मंजरी जी – जब हम प्रतिस्पर्धा में आ जाते हैं तब तुलना-आलोचना सभी कुछ होती है। यदि हम सीखना चाहते हैं तो सीख सकते हैं। यदि नहीं तो यह मान लेना चाहिए कि सामने वाले के समक्ष हमें ज्ञानी बनकर नहीं विद्यार्थी बन कर जाना चाहिए। या फिर तुलना आलोचना को सकारात्मक लेना चाहिए। छद्मालोचना का सामना वही करते हैं जिन्हें लोग अपने बराबर समझते हैं और भयभीत रहते हैं कि कहीं ये हमसे आगे न बढ़ जाए। तब हमें वहाँ से खिसक लेना चाहिए। अपने कार्य में मुस्तैदी से लगे रहना चाहिए। कुछ लोगों की आलोचना प्रशंसा से कोई व्यक्ति स्वयं को क्यों रोके।
हाल की घटना देखिए ममता बनर्जी को कितना घेरने की कोशिश की गयी , लेकिन वह हार मानने वाली महिला नहीं हैं मैंने उन्हें संसद में बहुत बार सुना है। बंगला, हिंदी, अंग्रेजी सभी बढ़िया बोलती हैं। सबसे पहले अपराजिता बिल पास कर लिया विधान सभा में।
प्रश्न 15. क्या आप किसी एक ऐसे ऐतिहासिक पात्र को अपने दृष्टिकोण से उकेरने का प्रयास करेंगी, जिसको आपके दृष्टिकोण से इतिहास के पन्नों में स्थान नहीं मिला है या एतिहासिक परिप्रेक्ष्य में उनके साथ न्याय नहीं हुआ है, यदि हां तो वह कौन हैं और आपको क्यों लगता है कि उनके साथ न्याय नहीं हुआ है?
आदरणीया मीरा परिहार मंजरी जी – जो ज्ञात इतिहास है। उसके बारे में यह कहना कि उन्हें वह स्थान नहीं मिला जो मिलना चाहिए था। तब प्रश्न यह उठता है कि हमें उनके बारे में इतिहास से पता नहीं चला तो फिर ऐसा कौन सा स्रोत है जिससे उन्होंने यह जानकारी हासिल की है। यदि ऐसा कोई आक्षेप है तो उसके निराकरण के लिए काम करना चाहिए।
उदाहरण के लिए जब एक बुद्धि जीवी वर्ग भी यह पक्का विश्वास करने लगा है कि नेहरू जी और उनके पूर्वज मुस्लिम थे। अन्य बहुत सी बातें हैं जो मैं गोष्ठियों में सुनती हूँ। तब लगता है कि ज्ञानी के साथ तर्क़ किया जा सकता है एक आस्थावादी के साथ हरगिज नहीं। वह तो चमत्कार करने के लिए नेहरू जी की दूसरी पत्नियां और बच्चे भी हमारे समक्ष उपस्थित कर देंगे। रीमिक्स के जमाने में दो तस्वीरें जोड़ कर उनकी अश्लील फोटो भी बना देते हैं। लेकिन मैं एक बात कहूँगी कि किसी के विषय में अनर्गल कहने से पहले सौ बार इसे जांच कर लेना चाहिए जिससे हमें अपने ऊपर शर्मिंदा न होना पड़े। आस्था और इतिहास दोनों अलग हैं।
पहले जो इतिहास है उसे ही पढ़ लिया जाए। क्यों कि इतिहास भी व्यक्ति की निष्ठा से लिखे जाते हैं। मैं शायद यह काम नहीं कर सकूंगी।
प्रश्न 16. लेखन के अतिरिक्त ऐसा कौन सा कार्य है, जो आप को विशेष प्रिय है?
आदरणीया मीरा परिहार मंजरी जी – पेड़ पौधे लगाना , उनके अनेक पौधे बनाना । फिर एक दूसरे को देना, लेना। जब कहीं जाते समय गमले नहीं रखती हूँ तो गाड़ी चालक कहते हैं आंटीजी पौधे नहीं ले चल रहीं इस बार।
प्रश्न 17. मीरा जी, आप विशिष्ट कौशल सम्पन्न हैं। क्या आपको लगता है कि आपके इस कौशल को लोगों तक विस्तारित करना चाहिए? यदि हां तो क्या आपकी इस संदर्भ में कोई कार्ययोजना है?
आदरणीया मीरा परिहार मंजरी जी -यही मैं कहती हूँ कि मेरे पास अभी कोई कौशल नहीं है। यदि होता तो , अखबार, मैगजीन की कहानियों या रचनाओं में मेरी रचनाएं भी स्थान पातीं।
जितना मेरा सामर्थ्य है मैं कोशिश करती हूँ कि मेरा यह कौशल पहचान पाए और निरंतर लगी रहती हूँ। श्री कृष्ण के कहे अनुसार कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि” का मतलब है, “कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, कर्म के फलों में कभी नहीं… इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो”. यह वाक्य भगवद गीता के दूसरे अध्याय का 47वें श्लोक
प्रश्न 18. मीरा जी, आपने एक कहानी लिखी है “दुनियाँ रंग रंगीली”, आप उस कहानी के विषय में कुछ बताइये।
आदरणीया मीरा परिहार मंजरी जी – यह कहानी प्रतिलिपि फेलोशिप प्रोग्राम के तहत लिखी गयी है। जब मैं लखनऊ में थी तब पतिदेव ने बताया कि चिमटा टूट गया है। मैंने कहा,दूसरा खरीद लीजिए या जो काम करने आती हैं, उनसे पैसे देकर मंगवा लीजिए।
सौ एपीसोड चक-चक चकल्लस लिखने के बाद मुझमें लिखने की बिल्कुल हिम्मत नहीं थी।न ही कोई थीम दिमाग में आ रही थी। तब मुझे लगा कि इस चिमटा प्रकरण पर ही कुछ लिखती हूँ । अगर पूरा होगा तो ठीक है, नहीं तो कोई बात नहीं।
तब यह कहानी अपने सामाजिक परिवेश, घटनाओं आदि के मिश्रण से मैंने लिखी है। चूंकि उस समय मैंने भुवनेश्वर की यात्रा की थी और कोणार्क मंदिर देखा था उसे भी अपनी कहानी का हिस्सा बना लिया था। अब उसे छपवा लिया है। चिमटा-चिमटा शीर्षक से।
प्रश्न 19. मीरा जी, “रामजस की दुल्हिन” कौन है?
आदरणीया मीरा परिहार मंजरी जी यह कहानी प्रतिलिपि पर दिए गये किसी हारर विषय पर लिखनी थी । जिसका आधार ब्लडी मैरी बताया गया था। मैंने गूगल पर ब्लडी मैरी पढ़ी । मुझे लगा नहीं लिखना है। क्यों कि यह डरावनी स्टोरी है। पढ़ते-पढ़ते मेरी आँख लग गयी । शाम के चार बजे मैंने देखा कि कि एक महिला हमारे घर के सामने बनी बिल्डिंग की पांचवीं मंजिल पर सफेद कपड़ों में पंजों के बल बाउंड्री बाल पर इधर से उधर उछल कूद कर रही है। मैंने सोचा हे भगवान! यदि ये गिर गयी तो क्या होगा ? जैसे ही मेरी आंख खुली मैं बाहर देखने गयी , वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था। लेकिन वह दृश्य मुझे बहुत परेशान कर रहा था। रात हो गयी पर उस सपने का असर बना रहा। मैंने मन बनाया कि अब लिखती हूँ। तभी नींद आएगी। उसके दूसरे दिन ही कहानी लिखने की लास्ट डेट थी। रात के बारह बजे मेरा डाटा समाप्त हो गया। सुबह बच्चों को बताया कि मेरा रिचार्ज कर देना। हाँ कहकर वे अपने काम में व्यस्त हो गए लेकिन मेरा टेंशन बढ़ रहा था। किसी तरह मैंने इसे दूसरे फोन पर लिखा। जिसमें समसामयिक घटनाओं और अपने समाज की विचारधारा को इसमें जोड़ दिया। होना क्या चाहिए,यह भी संदेश इसमें है। बांझपन का दंश या ठप्पा स्त्री पर ही क्यों लगे ?
प्रश्न 20. मीरा जी, आपके “बंद दरवाजे” के पीछे क्या रहस्य है?
आदरणीया मीरा परिहार मंजरी जी कोई रहस्य नहीं है। प्रतिलिपि पर विषयों पर लिखने का परिणाम है।
खूबसूरत /
एक था दरवाजा /
लिखा था बंद /
लोग देखते/
पढ़ते, लौट जाते/
अपने घर/
सोचने लगा/
जिसने नहीं पढ़ा/
अनपढ़ था/
आगे बढ़ के/
दरवाजा धक़ेला/
खुला ही तो था/
हाँ वह घुसा /
लोगों से मिला जुला/
जो अपढ़ था/
घर , मंदिर/
बहुत सुंदर था/
पूरा खुला था/
लिखा हुआ था/
अंदर की तरफ/
स्वागत है जी/
खटखटाएगा/
वह पाएगा यहाँ/
विश्राम सुख/
मीरा परिहार…
प्रश्न 21. मीरा जी, आपकी एक अन्य और बहुत महत्त्वपूर्ण पहचान पाक कला विशेषज्ञ की है, क्या अपनी इस विशिष्ठ पहचान के किसी सुखद अनुभव को हम सभी से साझा करना चाहेंगी?
आदरणीया मीरा परिहार मंजरी जी – ऐसा कुछ नहीं है। हर घर में जो बनाया जाता है,वही मैं भी बनाती हूँ । प्रयोग तो सभी गृहणियां करती हूँ , मैं भी करती रहती हूँ। मेरा मकसद सिर्फ यह रहता है कि जो उपलब्ध है उसका बेहतर उपयोग होना चाहिए। पपीते के पेड़ में जब पपीते लगे थे, उन्हें पक्षियों और बंदरों की वजह से पका तो नहीं सकते लेकिन कच्चे पपीते का क्या किया जाए,इसके लिए मैंने उनकी सब्जी ,अचार , परांठे, कबाब आदि बनाए। इसके बाद भी वे बहुतायत में थे । तब उन्हें तेज धूप में चिप्स बना लिए और उन्हें ग्राइंडर में पीस कर पावडर बना लिया। थोड़ा उसे कभी आटे मिला दिया तो कभी रसेदार सब्जी में। इसी प्रकार अंगूर होते हैं , उनमें बीज होते हैं तो कोई खाना नहीं चाहता है। पर वे पकने से पहले ही गिलहरियां खा जाती हैं। तब इसका उपाय भी यही निकला कि ताजे हरे अंगूर हल्के क्रश करके शरबत ,पना बना कर पिया। इसे सभी पसंद करते हैं। जो मीठा नहीं खाते हैं उनके लिए अचार बनाया। जैली ,खट्टी-मीठी सोंठ बनायी। अमरूद लगे तो उसकी चटनी,जैली , शरबत बनाकर पिया। यही सब करने में समय बीत जाता है
प्रश्न 22. श्री राधा गोपीनाथ बाबा की प्रमुखता में चल रहे कल्पकथा के कार्यों को तो आप देख ही रहीं हैं। क्या आपको लगता है कि ये कार्य समाज और साहित्य के हित में हैं? साथ ही हम जानना चाहेंगे आप इससे कितनी प्रभावित हैं?
आदरणीया मीरा परिहार मंजरी जी – सबसे पहले श्री बाबा गोपीनाथ जी की जय ।
बिल्कुल हित में है। समाज विचार और उनके संप्रेषण से बनता है। जिनमें कुछ अलग करने का जुनून होता है,वे कुछ अपने समाज और अपनी अभिरुचि के अनुरूप कार्य करते हैं।
समाज और साहित्य के हित में इसलिए है कि इससे जो साधारण या अप्रचलित सृजन कर्ता हैं उन्हें लोग पहचानते हैं। उनके विचारों को समझते हैं। लेखक का लेखकीय कर्म और उसकी पहचान की जानकारी समाज को होती है । मुझे लगता है कि जया जी ने मेरा साक्षात्कार प्रतिलिपि पर डाला हुआ है उसे सौ लोगों ने पढ़ा होगा तो सौ लोगों ने मेरे बारे में जाना। मेरे प्रोफाइल पर जाकर रचनाएं भी देखी होंगी। यही रचनाकार का उद्देश्य होता है कि व्यक्ति उसका लिखा हुआ पढ़ें और अपनी राय दें।
जहाँ तक मेरा प्रश्न है मैं भी सोशल मीडिया के माध्यम से ही खुद को स्थापित कर रही हूँ। अपने लिखे को छपवाने के लिए सोशल मीडिया पर सस्ता प्रकाशक ढूंढती हूँ और कुछ किताबें छपवा ली हैं। मगर यहां धोखा खाने की भी संभावना रहती है। क्यों कि हम किसी को जानते तो हैं नहीं ,महज विश्वास पर ही सब चलता है।
प्रश्न 23. आप अपने पाठकों, हमारे दर्शकों, सभी लेखकों और समाज को क्या संदेश देना चाहती हैं?
आदरणीया मीरा परिहार मंजरी जी – मेरा यही संदेश है कि साहित्यकार पर एक बड़ी जिम्मेदारी होती है। वह अपने समाज का आइना बन जाता है युगों-युगों तक।
लेखन से समाज हानिकारक घटनाओं से सबक लेता है और आगे सब अच्छा हो इसके लिए प्रयास करता है।। हमारे वेद पुराण, गीता, रामायण विक्रय के लिए या लाभ के लिए नहीं लिखे गये हैं। ये ज्ञान है जो अनवरत चलता रहेगा। लोग अपने स्वभाव अनुसार इनसे सीखे लेंगे। समाज के हित हेतु लिखा गया साहित्य ही साहित्य की श्रेणी में आता है। डिमांड एंड सप्लाई बिजनेस की तरह चलता है जिसमें उतार चढ़ाव, बदलाव आते हैं लेकिन अचछा साहित्य शाश्वत होता है।
✍🏻 प्रश्नकर्ता : कल्पकथा परिवार
मीरा परिहार
मीरा परिहार मंजरी जी की कुछ कविताएँ
नारी अस्मिता पर इक्कीसवीं सदी में भी सवाल उठाए जा रहे हैं, चिंता व्यक्त की जा रही है तब हमें भली-भांति जान लेना चाहिए कि हम अभी मूल रूप से कितनी तरक्की कर पाए हैं, इतिहास का बहाना बना कर अपनी जिम्मेदारियों से हम आज नहीं बच सकते,अब समय है कि लड़कों पर अंकुश लगाया जाए , उन्हें पढ़ाने के नारे दिए जाएँ ,तभी देश तरक्की करेगा,उनकी निगरानी की जाए कि उनकी संगति कैसी है,और वह घर से बाहर समय बिताने पर क्या करते हैं।
प्रस्तुत है मेरी एक रचना#
*स्त्री*
चक्रव्यूह तोड़ना
चक्रव्यूह गढ़ना
फितरत है
मनुज की
कभी राम हैं
उसकी परिधि में
तो कभी सीता
कभी पांडव हैं
तो कभी अभिमन्यु
कभी स्त्री ,कभी पुरुष
सभी को सीखनी होती है कला
इन चक्रव्यूह को तोड़ने की
अपने लिए सदा
स्त्री ने भी सीखे हैं
पराधीनता से मुक्ति के
आर्थिक समृद्धि के
अपने आजादी मंत्र
कौन कह सकता है ?
नहीं कहा न !….कि
पांडव जुआरी थे
भीष्म , दुर्योधन
दुशासन, धृतराष्ट्र
महज सत्ताधारी थे
किसने बताया ?
कि …
इन्द्र था दोषी
अहिल्या का
किसने कहा?
लक्ष्मण भी थे दोषी
स्वरूपनखा के!!
जिसका दाव लगा
वही है खिलाड़ी
आज भी सिर्फ खबरें हैं
मरती, मारी जाती हैं
लड़कियांँ बहाने से
कभी होतीं कत्ल
कभी मदान्धता का शिकार.
हानि-लाभ समीकरण
हल कर रहे हैं हम
स्त्री की अस्मिता पर!…
प्रश्र चिन्ह भी उसी पर…?
जन्म लेकर भूले
रोटी खाकर भूले
बाहों के झूले भूले
मगर याद रखिए!!
स्त्री का दूसरा नाम है,सृजन
वह सहेजती है
वह सब जो
उसे सहेजना चाहिए
जैसे प्रकृति ने सहेजा है,,,,
पहाड़ों ने बर्फ
बादल ने पानी
प्रकृति ने हरीतिमा
झील ने गहराई
नदी ने बहना
सागर में रहना
खारापन सहना
सहेजा है न उसने!?
प्रकृति और स्त्री
स्त्री और प्रकृति
समरूप हैं
नहीं मिटेगा
अस्तित्व ..
कोख उजाड़ो
दहेज को मारो
तेजाब फैंको
बलात्कारी बनो
शराबी बनो
अहंकारी बनो
बनो पक्षधर
पुत्रों के….
लेकिन!!ये पुत्र …
जन्म कहाँ लेंगे?
सोचा किसी ने?
स्त्री हैं सीता …!
गढ़ती है मानदंड…
धनुष को हटा
स्त्री है गार्गी !
करेगी शास्त्रार्थ
स्त्री है पांचाली..!
सम्भाल लेगी पांँच पति
स्त्री है अनसुईया..!
बना देगी बच्चे
भगवानों को
स्त्री है जीजाबाई…!
पन्ना धाय
रानी लक्ष्मीबाई….!
चंडी और काली…!
बंद करो !!
आँसू बहाती
गिड़गिड़ाती
औरत दिखाना
वरना लामबंद होंगी वे
साजिशों के विरुद्ध
अन्याय के विरुद्ध
घास की मानिंद हैं ये
काटी जाती हैं बार- बार
उग आती हैं आर-पार
कभी लगता है कि, हाँ
सूख गयी हैं, वे शायद
मृतप्राय ,अस्तित्व हीन
किन्तु मरती नहीं वे
जी उठती हैं बार-बार
कदमों तले रहकर भी
तिरस्कार सहकर भी
अनन्त को ताकतीं चेतना मय
खुद को अक्षुण्ण करतीं
होकर जड़ मय
कुचली जाती हैं ,पैरों तले
वे जमा लेती हैं, अपनी जड़ें
पुख्ता जमीन में और गहरे
कतर दी जाती हैं जब
वह उगती द्विगुणित हो
क्यों कि जानती हैं वे स्वयं को
अपने अस्तित्व को
जिन्दा रहती हैं
मनुज की चेतना में
वह हैं सृष्टि की जनक
वे बचेगीं तो बचेगा सब
इसीलिए वह उगती हैं हर बार
सहकर तिरस्कार बार-बार
ये स्त्रियाँ हैं सृजनहार
घास की मानिंद जड़मय
आंधियों में गिरने वाला
विशालकाय वृक्ष नहीं
समाहित हैं उसी के गर्भ में
सभी वृहत्तर के बीज
वह संरक्षक है सृष्टि की
हारना नहीं है उसे
जमे रहना है घास की तरह
जमा कर जड़ें
जड़ता के बाबजूद
क्यों कि नारी है वह …..
कभी न हारी है वह……
स्वरचित मौलिक
मीरा परिहार मंजरस्त्रियाँ
घास की तरह होती हैं वे
काटी जाती हैं बार बार
उग आती हैं आर पार
कभी लगता है कि, हाँ
सूख गयी हैं वह शायद
मृतप्राय अस्तित्व हीन
किन्तु मरती नहीं वे
जी उठती हैं बार बार
कदमों तले रहकर भी
तिरस्कार सहकर भी
अनन्त को ताकतीं चेतना मय
खुद को अक्षुण्ण करतीं हो जड़ मय
कुचली जाती हैं पैरों तले
वे जमा लेती हैं अपनी जड़ें
पुख्ता जमीन में और गहरे
कतर दी जाती है जब
वह उगती द्विगुणित हो
क्यों कि जानती हैं वे स्वयं को
अपने अस्तित्व को
जिन्दा रहती हैं
मनुज की चेतना में
वह हैं सृष्टि की जनक
वे बचेगीं तो बचेगा सब
इसीलिए वह उगती हैं हर बार
सहकर तिरस्कार बार बार
वह स्त्री हैं सृजनहार
घास की मानिंद जड़मय
आंधियों में गिरने वाला
विशालकाय वृक्ष नहीं
समाहित हैं उसी के गर्भ में
सभी वृहत्तर के बीज
वह संरक्षक है सृष्टि की
हारना नहीं है उसे
जमे रहना है घास की तरह
जमा कर जड़ें, जड़ता के बाबजूद
मीरा मंजरी
तेरे पथ की अनुगामिनी
तेरे पथ की अनुगामिनी तुम साथ नहीं चल पाते हो।
मैं जब भी पुकारू नाम तेरा,तुम दूर कहीं छुप जाते हो।।
मेरी सांसों में है ध्यान तेरा ,धड़कन में गूंजे नाम तेरा।
मेरा रोम-रोम है गीत तेरा संपूर्ण समर्पण प्रीत भरा।।
फिर क्यों मेरी मन वीणा में, झंकार नहीं भर पाते हो ।
मैं तेरे पथ की अनुगामिनि, तुम साथ नहीं चल पाते हो।।
तुम साथ चलो पावन होंगे,पथ अवरोधों को हटा प्रिये। अलभ्य क्षितिज की बातें क्यों,जब अवनि पर न पाऊं हिये।।मैं राह निहारूं ड्योढ़ी पर, तुम नजर कहीं न आते हो ।
मैं तेरे पथ की अनुगामिनी, तुम साथ नहीं चल पाते हो ।।
मैं अमर प्रेम की कथा पढ़ूँ,धरती , अम्बर,निर्झर,नंद में।
अमृत घट केवल चाहूँ,जग गरल भरे कलुषित मन में।।
तुम तोड़ कलश विश्वासों के, मुझे दीन,हीन कर जाते हो।
मैं तेरे पथ की अनुगामिनि तुम साथ नहीं चल पाते हो।।
अभिमान मेरे जब चढ़े उतुंग, दिनमान मेरे जब मेरे संग।
चंदन सांसें, बन गयी हैं छंद, मैं सुनूं चतुर्दिक गान अभंग।।
तुम मान मेरा मर्दन करके, मोहे पीर नीर दे जाते हो।।
मैं तेरे पथ की अनुगामिनि ,तुम साथ नहीं चल पाते हो।।
[10/09, 09:50] Meera Parihar: सीमा प्रहरियों की पत्नियों का गीत*
प्रिय आ जाओ, प्रिय आ जाओ
अब यादों से हैं नयन सजल
यहाँ सरिताओं में आया है
तेरी कर्म भूमि से हिम पिघल
*
तुम रहो हिमालय के आँगन
जान हथेली पर रखकर
मेरे आंगन केवल यादों के
मरुथल, मरुथल ,मरुथल
प्रिय आ जाओ, प्रिय आ जाओ
रितु बीत गयी, बरसात गयी
गया झूलता प्रिय सावन
घर आयीं मकरन्द समीरें
लेकर यादों का सम्बल
प्रिय आ जाओ, प्रिय आ जाओ
फूलों पर यौवन तरुणाई
ले अंगड़ाई,डोले वन वन
यदि आ जाओ तो जी लूंगी
निज जीवन के, स्वर्णिम पल
प्रिय आ जाओ, प्रिय आ जाओ
पिहू -पिहू पपीहा बोले
प्रणय गीतों का कलरव
मेरे प्रिय संवेगी मन है
विरहा का बस कोलाहल
प्रिय आ जाओ ,प्रिय आ जाओ
अब यादों से हैं, नयन सजल
मीरा ‘मंजरी’
*मैं धात्री*
मैं धात्री हूँ सकल विश्व ये मेरे आँचल में सोता है।
हिम शिखर भाल रवि, शशि भूषित पाँव समन्दर धोता है।
तुम बाँट लिए दामन मेरा,सीमाओं में बाँध दिया।
निज तृष्णा हित क्षुद्र मनुज भाई, भाई को बाँट दिया।।
रोपण कर नरमुण्ड गर्भ मम रंक्त बूँद से कर सिंचन।
पाक, साफ दामन मेरा ,निज बेटों के शव ढोता है।
क्षुधा मिटाने को तत्पर रत गात मेरा ये है उर्वर।
जल स्रोतों से प्यास बुझे,कल कल बहते हैं निर्झर।।
रहने को आवास मुझी से ,प्राप्त सभी सामान सुलभ।
करने को व्यापार जीविका,सब मेरे उर होता है।।
हरी- हरी धानी चूनर मम, जन लहु से रंगने को आकुल!
इस ओर खड़ी तेरी जननी,उस खड़ी उसकी व्याकुल।।
हरियाली की खुशहाली में बुनियाादी फसलें बो दो।
प्रेम, क्षमा ,सदभाव ,समन्वय नेह पगी नस्ले खोदो।।
ज्ञान अहिंसा की पोथी पर मानवता का विषय पढ़ो,
अविरल माँ के अश्रु विकल ,इस धरा हरेक
जल स्रोता है।
कुरुक्षेत्र से पानीपत तक युद्ध लडे़ तुमने कितने।
हार- जीत के प्रांगण में तुम जीत सके न मन अपने।।
इससे पहले कि खो जाये,जीवन से सबके आत्म तत्व।
रोको- रोको इस दावानल को,कोई छुप छुप रोता है।
मैं धात्री हूँ…..
मीरा ‘मंजरी
नवगीत
नव गीत लिखा करती हूँ मैं
बिन पंख उड़ा करती हूँ मैं
दिल से नहीं बुरी हूँ पर
कटुसत्य कहा करती हूँ मैं
कभी काँधे चढ़ बाबा हमने
गगन छुआ था अपनों का
पापा की उंगली पकड़ चले
आकाश चुना था सपनों का
अम्मा की लोरी की लय में
गुणगान सुना कितनों का
बुलबुले बना उन यादों के
नैनों से झरा करती हूँ मैं
बिन पंख उड़ा….…
कभी अबला के सम्मोहन में
कभी दुग्ध धार के दोहन में
कहीं विम्बों से हुई विदित
कहीं प्रतिविम्बों में हुई निहित
हानि- लाभ का लगा गणित
जब हुआ आंकलन कमतर में
कह-कह कर मैं हूंँ नहीं पतित
दुनिया से लड़ा करती हूँ मैं
बिन पंख उड़ा …..
कहीं कुंती को छले नर श्रेष्ठ
कहीं छली अहिल्या छद्म वेश
कहीं लगी द्रोपदी दांव-पेंच
कहीं सीता को नहीं गृह प्रवेश
हाय यह अपना कैसा देश
मिट न सका अब तक क्लेश
इतिहास बनी ये घटनाएं
प्रति दिन ही जिया करती हूँ मैं
कटु सत्य लिखा करती हूं मैं
बिन पंख उड़ा…….
मीरा ‘मंजरी’
गीत
धुंध हटी अम्बर से रश्मि चौखट लांघ चली।
दर,मुंडेर, छत तानी चूनरी शुभ्र,धवल ,मलमली।
है ये कैसी घाम सताती नहीं ह्रदय ना तन को।
मन प्रफुल्ल कर ओजस दे कर भरमाती मन को।।1
शुभ प्रभात सिन्दूरी सुनहला मूंगे माणिक जड़ित रुपहला।
धरती के आंचल से निकला नदियों में नहाने को मचला।
लगा- लगा गोते वारि में ,रवि नाप रहा दूरी भू नभ की।। 2
पिछवाड़े में चिहुंक-चिहुंक चर फुदक-फुदक खग आये।
मचा रहे हैं शोर नीम पर ,गुड़हल पर भवरें भनभनायें ।।
कहीं नाचते मोर बाग वन, कहीं मोरनी खड़ी ठगी सी। 3
हुए मगन मद मस्त गगनचर ,बना रहे नित नूतन तृण घर।
कहीं प्रणय ,कहीं विरह, कहीं पर, वीत राग का विपुल समन्दर।
कोटि-कोटि संकल्प,स्वप्न*कर ,मुदित मही अहवात मयी सी।4
धानी धरती उन्मुख अंबर, वर्षा रितु का मदन महीना।
हर्षित हैं नर नारि देख कर हुआ सार्थक बहा पसीना।
सपने * लेंगे मूर्त रूप जब फसल कटेगी सोने सी।
स्वरचित
मीरा ‘मंजरी
मैं
धात्री*
मैं धात्री हूँ सकल विश्व मेरे आँचल में सोता है।
हिम शिखर भाल रवि,शशि भूषित पांव समन्दर धोता है।
तुम बाँट लिए दामन मेरा,सीमाओं में बाँध दिया।
निज तृष्णा हित क्षुद्र मनुज,भाई, भाई को बाँट दिया।।
रोपण कर नरमुण्ड गर्भ मम, रक्त बूँद से कर सिंचन।
पाक, साफ दामन मेरा ,निज बेटों के शव ढोता है।
क्षुधा मिटाने को तत्पर रत, गात मेरा ये है उर्वर।
जल स्रोतों से प्यास बुझे,कल कल बहते हैं निर्झर।।
रहने को आवास मुझी से ,प्राप्त सभी सामान सुलभ।
करने को व्यापार जीविका,सब मेरे ही उर होता है।।
हरी- हरी धानी चूनर मम, जन लहु से रंगने को आकुल!
इस ओर खड़ी तेरी जननी,उस खड़ी उसकी व्याकुल।।
हरियाली की खुशहाली में, बुनियाादी फसलें बो दो।
प्रेम, क्षमा ,सदभाव ,समन्वय,नेह पगी नस्लें खोदो।।
ज्ञान अहिंसा की पोथी पर मानवता का विषय पढ़ो,
अविरल माँ के अश्रु विकल ,इस धरा हरेक जल स्रोता है।
कुरुक्षेत्र से पानीपत तक युद्ध लडे़ तुमने कितने।
हार- जीत के प्रांगण में तुम जीत सके न मन अपने।।
इससे पहले कि खो जाए,जीवन से सबके आत्म तत्व।
रोको-रोको इस दावानल को,कोई छुप-छुप रोता है।
मैं धात्री हूँ…..
मीरा ‘मंजरी’
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