!! “व्यक्तित्व परिचय : श्रीमती पूर्णिमा बेदार श्रीवास्तव जी” !!
- कल्प भेंटवार्ता
- 2024-10-03
- लेख
- साक्षात्कार
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!! “व्यक्तित्व परिचय” !!
!! “मेरा परिचय” !!
नाम :- श्रीमती पूर्णिमा बेदार श्रीवास्तव
माता/पिता का नाम :- स्व. श्रीमती सावित्री बेदार। स्व. श्री राजेश्वर सहाय बेदार।
जन्म स्थान एवं जन्म तिथि : शाहजहांपुर, उत्तर प्रदेश।
08.04. 1964
पति का नाम : श्री विश्व कांत श्रीवास्तव
बच्चों के नाम :- कु. प्रशस्ति श्रीवास्तव
शिक्षा :- परास्नातक, अंग्रेजी साहित्य।
व्यावसाय :- सेवानिवृत्त उपसचिव, उत्तर प्रदेश शासन।
वर्तमान निवास :- लखनऊ, उत्तर प्रदेश।
मेल आईडी :- bedarpoornima1@gmail.com
आपकी विशिष्ट कृति :- यादों जड़ी किताब
आपकी प्रकाशित कृतियाँ :-यादों जड़ी किताब एवम 12 से अधिक साझा संकलन।
पुरस्कार एवं विशिष्ट स्थान :-
1.रोटरी क्लब ,शाहजहांपुर द्वारा जिला स्तर पर आयोजित निबंध प्रतियोगिता में पुरस्कृत (1980)।
2 . विद्यालय और कॉलेज में प्रतियोगिताओं में प्रतिभाग , सम्मान।
3 . सेवाकाल में विभिन्न सेमिनार और आयोजनों में प्रतिभाग और प्रशस्ति पत्र।
4 . समय समय पर मानदेय से सम्मानित।
5 . उत्तर प्रदेश महोत्सव (2021) में प्रगति पर्यावरण संरक्षण ट्रस्ट द्वारा “समाज गौरव” पुरस्कार से सम्मानित।
6 . उत्तर प्रदेश साहित्य संस्थान द्वारा आयोजित काव्य प्रतियोगिता 2022 में श्रेष्ठ प्रदर्शन हेतु प्रशस्ति पत्र एवम सम्मानित।
7 . राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, उत्तर प्रदेश द्वारा वर्ष 2023 के डॉ शिव मंगल सिंह सुमन पुरस्कार (धनराशि रुपए 1 लाख) से अलंकृत।
!! “मेरी पसंद” !!
उत्सव :- दीपावली एवम अन्य सभी पारंपरिक उत्सव।
भोजन :- स्वादिष्ट चटपटा उत्तर भारतीय एवम दक्षिण भारतीय निरामिष भोजन।
रंग :- पीला और गुलाबी।
परिधान :- भारतीय पोशाक, सलवार सूट, साड़ी आदि।
स्थान एवं तीर्थ स्थान :- वैष्णो देवी (कटरा), शिरडी।
लेखक/लेखिका :- राम चंद्र शुक्ल, यशपाल, महादेवी वर्मा, शेक्सपियर, बेकन।
कवि/कवयित्री :- जयशंकर प्रसाद, हरिवंश राय बच्चन, सुभद्रा कुमारी चौहान , वर्डस्वर्थ, कीट्स, बायरन आदि
उपन्यास/कहानी/पुस्तक :- गोदान, परदा,
कविता/गीत/काव्य खंड :- मेरा नया बचपन (सुभद्रा कुमारी चौहान)
खेल : कैरम।
मूवीज/धारावाहिक (यदि देखती हैं तो) :-
बागवान, अवतार
साईबाबा, उड़ान।
आपकी लिखी हुई आपकी सबसे प्रिय कृति :- “यादों जड़ी किताब”
!! “कल्पकथा के प्रश्न” !!
प्रश्न 1. पूर्णिमा जी, सबसे पहले आपके व्यक्तिगत एवं साहित्यिक परिवेश के बारे में हमें बताइये।
पूर्णिमा जी :- धन्यवाद मेम। सर्वप्रथम इस मंच पर आमंत्रण हेतु आपका और आपकी पूरी टीम का धन्यवाद।
मेरा जन्म शाहजहांपुर के एक प्रतिष्ठित शिक्षक परिवार में हुआ था। मेरे पिता जी श्री राजेश्वर सहाय बेदार, स्थानीय डिग्री कॉलेज में अंग्रेजी के प्रवक्ता थे। साहित्यिक परिवेश और मेरे पिताजी की सकारात्मक सोच, विपरीत परिस्थितियों में भी दृढ़ रहना, हार न मानने की ज़िद आदि बातों ने हमारे व्यक्तित्व को मजबूत बनाया। घर में अनुशासन और पठन पाठन का माहौल सदैव ही बना रहता था। कॉलेज के टीचर्स और अन्य विद्वान भी समय समय पर आते रहते थे , उनसे भी अनजाने में कुछ न कुछ नया सीखने को मिलता रहता था। पढ़ने लिखने में भी अनुशासन का पालन करना था। बिना मार्जिन छोड़े लिखा गया पेज काट दिया जाता था और पुनः लिखना पड़ता था। बिना डेट कोई भी लिखावट नहीं हो सकती थी। इन तमाम छोटी छोटी बातों ने व्यक्तित्व विकास में बहुत मदद की।
प्रश्न 2. पूर्णिमा जी, आप कल्पकथा के साथ इस भेंटवार्ता को कैसे देखती हैं? क्या आप उत्साहित हैं?
पूर्णिमा जी :- जी, निश्चय ही इस भेंटवार्ता को लेकर मैं काफी उत्साहित हूं। ये एक अच्छा साहित्यिक पटल है जो विविधता से परिपूर्ण है।
प्रश्न 3. पूर्णिमा जी, आप ऐतिहासिक, धार्मिक और साहित्यिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण एवं प्रादेशिक राजधानी नगर लखनऊ की रहने वाली हैं। इस नगर के बारे में अपने शब्दों में कुछ बताइये।
पूर्णिमा जी :- निश्चय ही यह मेरा सौभाग्य है कि मैं प्रदेश की राजधानी का एक हिस्सा हूं। ऐतिहासिक ,धार्मिक और साहित्यिक दृष्टि कोण के अतिरिक्त वास्तु, स्थापत्य, व्यवसाय, पर्यटन, जिंदादिली, विनम्र व्यवहार और खान पान की दृष्टि से भी ये नगर अपनी अलग पहचान रखता है। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन का गढ़ रहा लखनऊ काकोरी काण्ड के लिए भी जाना जाता है।
हनुमान सेतु, मनकामेश्वर मंदिर, बुद्धेश्वर मंदिर जैसे धार्मिक स्थलों के अलावा लखनऊ विश्व विद्यालय, केजीएमयू, भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय, हिंदी साहित्य संस्थान , राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान , राजार्षी टंडन मुक्त विश्व विद्यालय,इंदिरा गांधी मुक्त विश्व विद्यालय,उर्दू अकादमी आदि अति प्रसिद्ध हैं।
प्रश्न 4. पूर्णिमा जी, आप विभिन्न राजकीय एवं प्रशासनिक कार्यो में संलग्न रहीं हैं और वहीं से सेवानिवृत्ति भी ली है। ऐसे में आपके कार्यकारी क्षेत्र को देखते हुए एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि आपकी रुचि साहित्य सृजन में कैसे जागृत हुई?
पूर्णिमा जी :- जी, बिलकुल ही सहज प्रश्न है। प्रदेश की सर्वोच्च संस्था में काम करने का अवसर मुझे मिला। यहां काम के साथ समय निकाल पाना काफी मुश्किल रहा। शासन में मुख्यतः नीति निर्माण संबंधी मामलों पर कार्य होता है। पूरे प्रदेश का बजट, योजनाओं का निर्माण, कोर्ट केस और पेचीदे मामलों पर कार्य करना होता है। ऐसे में साहित्य के लिए समय निकाल पाना कठिन अवश्य होता है। अक्सर लेट सिटिंग भी करना पड़ती थी, मीटिंग्स में भी व्यस्तता रहती है किंतु जहां चाह होती है, राह निकल ही आती है।
यहां स्पष्ट करना चाहूंगी कि साहित्य में अभिरुचि मुझे पहले से थी। स्कूल कॉलेज के दिनों में कभी कभी मैग्जीन में कुछ लिखने का प्रयास किया था। समाचार पत्र में पाठकों के पत्र कॉलम में लिखना अच्छा लगता था। प्रतियोगी परीक्षाये देते समय प्रतियोगी पत्रिकाओं में भी लेख लिख कर पुरस्कृत भी होती रही। किंतु शासन में “समीक्षा अधिकारी” के पद पर चयन के बाद जीवन में आई व्यस्तताओं के चलते लेखन कार्य से लगभग दूर सी हो गई।
मन में लिखने की इच्छा सुसुप्त रूप में दबी थी। सन् 2014 में “राजपत्त्रित अधिकारी संघ” के संपर्क में आने के बाद लिखने की इच्छा बलवती हुई और तब से लगातार लिख रही हूं। उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान की भूमिका भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।
प्रश्न 5. पूर्णिमा जी, आपने अपनी साहित्यिक यात्रा के अंतर्गत अन्यान्य मंचों से जुड़कर उनको गौरवान्वित किया है। यहां हम उस पहले मंच के बारे में जानना चाहेंगे जिसको आप अपनी साहित्यिक यात्रा की प्रथम सीढ़ी मानती हैं।
पूर्णिमा जी :- राजपत्त्रित अधिकारी संघ, उत्तर प्रदेश शासन जो प्रतिवर्ष “सचिवालय साहित्यकी” नामक अपनी एक पत्रिका निकालता है उसमें पहली बार “बोंजाई” नामक एक कहानी भेजी जिसे बहुत सराहना मिली। उसके बाद उसके संपादक महोदय हर बार मुझसे एक रचना प्रकाशित कराने के लिए मांग लिया करते थे।
प्रश्न 6. आप अपनी अन्य विशिष्ठ प्रतिभाओं के साथ – साथ एक विशिष्ट सृजन की शैली की कवियित्री के रूप पहचान रखती हैं। आपकी अब तक की साहित्यिक यात्रा कैसी रही? साथ ही हम आपकी कोई एक कविता सुनना चाहेंगे।
पूर्णिमा जी :- साहित्यिक यात्रा बहुत ही सरस और प्रेरणादायक रही। समय समय पर होने वाली साहित्यिक बैठकों में तमाम वरिष्ठ साहित्यकारों से परिचय हुआ और मुझे भी पहचान मिली और ज्ञान प्राप्त करने के अवसर भी।
जी कविता, मैं अपनी पुस्तक यादों जड़ी किताब से शीर्षक कविता सुनाना चाहूंगी।
धूल झाड़ कर जब पढ़ी यादों जड़ी किताब
हर पन्ने पर मिल गए सूखे हुए गुलाब……..
प्रश्न 7. पूर्णिमा जी, कहते हैं बचपन सदैव मनोहारी होता है। हम जानना चाहेंगे आपके बचपन का बाल विनोद भरा वो किस्सा, जो आपको आज भी मुस्कुराने पर विवश कर देता है।
पूर्णिमा जी :- बचपन में हम सब खूब शरारत करते थे। एक बार नकली नोट को सड़क पर डाल कर उसे महीन धागे से बांधकर हम लोग ड्राइंग रूम में ओट कर बैठ गए, ज्यों ही किसी व्यक्ति ने उसे उठाने का प्रयास किया, हम लोगों ने धागा खींच लिया और फिर खूब हंसे। एक बार ये किस्सा एक परिचित धनी, पड़ोसी चाचाजी के साथ हुआ। वे भी बोर हो गए और हम लोगों को भी बुरा लगा। फिर इस घटना को को कभी नहीं दोहराया। उसे याद करके आज भी हम सबके चेहरों पर मुस्कान आ जाती है।
प्रश्न 8. समय परिवर्तनशील है। स्वाभाविक है कि साहित्य जगत में भी परिवर्तन होते रहते हैं। आप इन परिवर्तनों को किस रूप में देखती हैं?
पूर्णिमा जी :- जी, बिलकुल। परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। साहित्य में आने वाले परिवर्तन भी इसी नियम के अंग हैं। साहित्य में आने वाली परिवर्तनशीलता को वर्तमान समय के ही सापेक्ष देखा जाना चाहिए।
प्रश्न 9. आप आज के समय के किस लेखक या कवि से सबसे अधिक प्रभावित हैं?
पूर्णिमा जी :- आज के समय में कुमार विश्वास को सुनना पसंद करती हूं। यदि कुछ पीछे जाऊं तो जयशंकर प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा जी, सुभद्रा कुमारी चौहान आदि से काफी प्रभावित हूं। विदेशी लेखकों में शेक्सपियर, वर्डस्वर्थ, शैली, कीट्स, बायरन से भी प्रभावित हूं।
प्रश्न 10. पूर्णिमा जी, हम आपका वो अनुभव जानना चाहेंगे, जब आपको लेखन क्षेत्र में पहला पुरुस्कार मिला?
पूर्णिमा जी :- जी, ये बहुत ही सुखद अनुभूति होती है। लेखन क्षेत्र में पहला पुरस्कार मुझे वर्ष 1980 में मिला था। रोटरी क्लब, शाहजहांपुर द्वारा जिला स्तर पर आयोजित निबंध लेखन प्रतियोगिता में मुझे तीसरा स्थान मिला। टॉपिक मिला था “Let service light the way”. तीसरा स्थान पाकर भी मेरी खुशी का पारावार नहीं था। आज भी वह पुरस्कार और प्रशस्तिपत्र चेहरे पर मुस्कान बिखेर देता है।
प्रश्न 11. आज चारों ओर सोशल मीडिया का प्रभाव आप देखती होंगी। साहित्य जगत में सोशल मीडिया का प्रभाव आप किस रुप में देखती हैं?
पूर्णिमा जी :- सोशल मीडिया आज आपसी संवाद और अपनी बात कहने का एक सरल और सहज माध्यम बन चुका है। यदि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो इसकी सकारात्मकता से इंकार नहीं किया जा सकता।
प्रश्न 12. पूर्णिमा जी, आजकल रचनाओं में भाषागत सम्मिश्रण बहुत अधिक हो गया है। इस भाषागत मिश्रण को लेकर आपके क्या विचार हैं? साथ ही हम आपकी वो कविता भी सुनना चाहेंगे, जो आपको विशेष प्रिय हो।
पूर्णिमा जी :- जी हां। भाषागत सम्मिश्रण इतना अधिक हो गया है कि हिंग्लिश अस्तित्व में आ गई है। किंतु इसके दो पहलू हैं। एक लंबे अंतराल में जब भाषा तमाम काल खंडों को पार करती हुई आगे बढ़ती है तो
प्रवाह में दूसरी भाषाओं के प्रचलित शब्द स्वतः ही भाषा में स्थान पा जाते हैं। दूसरे सायास स्वयं को अधिक शिक्षित दिखाने के लिए जबरदस्ती अंग्रेजी या दूसरी भाषा के शब्दों को वाक्य में पिरोने का प्रयास। यह दूसरा बिंदु स्वीकार्य नहीं है।
प्रश्न 13. आपने सार्वजनिक क्षेत्र में देश के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य किया है। हम जानना चाहेंगे कि आपका सार्वजनिक जीवन का अनुभव कैसा रहा?
पूर्णिमा जी :- सचिवालय में काम करते हुए पूरे उत्तर प्रदेश के विभिन्न प्रकार के कार्यों को सकारात्मक दिशा में करने का अनुभव प्राप्त हुआ। इसमें खट्टे और मीठे दोनों प्रकार के अनुभव मिले। क्योंकि सचिवालय में बिना गेट पास के कोई भी अंदर नहीं आ सकता इसलिए सार्वजनिक क्षेत्र में काम पत्रावलियों के माध्यम से ही किया जाता है।
प्रश्न 14. काव्य विधा का आठ रसों में सृजन होता है। आप काव्य के कौन से रस में लिखना अधिक पसंद करती हैं?
पूर्णिमा जी :- यूं तो श्रृंगार रसों का राजा है। मैं श्रृंगार के साथ ही अन्य रसों पर भी लिखती हूं। मेरे लिए विषय प्रधान होता है,वह फिर चाहे किसी भी रस का हो।
प्रश्न 15. कहते हैं लेखन तभी सार्थक होता है, जब वो देशहित में कार्य करे। आप अपने लेखन को इस विचार के अनुसार कितना सफल मानती हैं?
पूर्णिमा जी :- बिल्कुल, सार्थक लेखन वही है जो समाज और देश को कुछ सकारात्मक दे, जिसमें समाज का नैतिक उत्थान निहित हो, गलतियों से सबक ले, सही दिशा दे। नकारात्मकता से भरा साहित्य सच्चे अर्थों में साहित्य की कोटि में नहीं आता।
प्रश्न 16. पूर्णिमा जी, आप रचनाएँ किसी माँग (विषय/परिस्थिति) पर सृजित करना पसंद करती हैं या फिर स्वत: स्फूर्त सृजन को प्राथमिकता देती हैं?
पूर्णिमा जी :- मैं स्वतः स्फूर्त सृजन को ही प्राथमिकता देती हूं।
प्रश्न 17. पूर्णिमा जी, आपके दृष्टिकोण में क्या रचनाओं में भावपक्ष एवं कलापक्ष का संतुलन होना आवश्यक है? यदि हां तो क्यों? अथवा प्रवाह के साथ रचना सृजन में इस संतुलन को पीछे छोड़ा जा सकता है, यदि हां तो क्यों?
पूर्णिमा जी :- मेरी दृष्टि में भावपक्ष सृजन की आत्मा है और कलापक्ष उसका शरीर।
आत्मा को संवारते हुए यदि शरीर भी संवर जाए तो उत्तम है किंतु शरीर के लिए आत्मा को नकारना उचित नहीं है।
प्रश्न 18. पूर्णिमा जी, आधुनिक युग में काव्य रचनाओं के विष्लेषण के नाम पर तुलना किया जाना कुछ अधिक ही प्रचलित हो गया है, जिससे तुलना के स्थान पर छद्म आलोचना का माहौल बन जाता है। इस छद्म आलोचना का सामना कैसे किया जाना चाहिए?
पूर्णिमा जी :- विश्लेषण के नाम पर तुलना किया जाना बिलकुल सही नहीं है, क्योंकि हर रचना की मौलिकता होती है। छद्म आलोचना किसी को नीचा करके स्वयं को उठाने का नकारात्मक प्रयास है।
ऐसे विश्लेषण की अनदेखी करना ही समझदारी है क्योंकि उसके विपक्ष में लिखना भी कहीं न कहीं उसे महत्व देने जैसा है।
प्रश्न 19. क्या आप किसी एक ऐसे एतिहासिक पात्र को अपने दृष्टिकोण से उकेरने का प्रयास करेंगी, जिसको आपके दृष्टिकोण से इतिहास के पन्नों में स्थान नहीं मिला है अथवा एतिहासिक परिप्रेक्ष्य में उनके साथ न्याय नहीं हुआ है, यदि हां तो वह कौन हैं और आपको क्यों लगता है कि उनके साथ न्याय नहीं हुआ है?
पूर्णिमा जी :- अनेक ऐसे पात्र हैं जिनके साथ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में न्याय नहीं हुआ। मैं भरत की पत्नी मांडवी का नाम लेना चाहूंगी जो अयोध्या के राजमहल में रहते हुए भी एकाकी, परित्यक्तता का सा जीवन बिताने को विवश हुई। ऐसा ही एक पात्र उर्मिला भी हैं किंतु मैथिली शरणगुप्त जी ने उन्हें यथोचित स्थान देकर उसके बलिदान को रेखांकित किया है।
प्रश्न 20. लेखन के अतिरिक्त ऐसा कौन सा कार्य है, जो आप को विशेष प्रिय है?
पूर्णिमा जी :- मुझे ड्राइंग और स्केचिंग करने, संगीत सुनने के अतिरिक्त गार्डेनिंग में अभिरुचि है।
प्रश्न 21. पूर्णिमा जी, आप विशिष्ट कौशल सम्पन्न हैं। क्या आपको लगता है कि आपके इस कौशल को अन्य लोगों तक विस्तारित करना चाहिए?
पूर्णिमा जी :- आपका ऐसा मानना मेरे लिए हर्ष का विषय है किंतु मुझे लगता है कि मैं कोई कौशल संपन्न नहीं हूं। बस छोटी सी कलम हूं। आप लोगों से सीखते हुए आगे बढ़ रही हूं और मेरी लेखनी से लोगों को यदि कुछ सकारात्मक मिलता है तो ये मेरे लिए गर्व की बात होगी।
प्रश्न 22. श्री राधा गोपीनाथ बाबा की प्रमुखता में चल रहे कल्पकथा से काफी समय से जुडी हुई हैं। आप इस के साथ जुडे अपने अनुभव बताइये।साथ ही हम जानना चाहेंगे आप इसके कार्यों से कितनी प्रभावित हैं?
पूर्णिमा जी :- जी,बिलकुल। ये मंच सफलतापूर्वक संचालित हो रहा है। कार्यक्रमों में विविधता है जिससे हर प्रकार की लेखन विधा वाला साहित्य प्रेमी इस से जुड़ सकता है।
प्रश्न 23. आप अपने पाठकों, हमारे दर्शकों, सभी लेखकों और समाज को क्या संदेश देना चाहती हैं?
पूर्णिमा जी :- मैं सभी पाठकों और साहित्यप्रेमियों से बस इतना कहना चाहती हूं कि उच्च कोटि का साहित्य पढ़े, अच्छा होगा यदि किताबों से पढ़े। अच्छा पढ़कर हम और अच्छा लिख पाते हैं। आपके पठन पाठन का प्रभाव घर के सम्पूर्ण वातावरण पर पड़ेगा। बच्चे भी पुस्तक प्रेमी होंगे। अच्छी किताबों से बेहतर कोई दोस्त नहीं होता। अनावश्यक आलोचना से बचें।
✍🏻 भेंटवार्ता : श्रीमती पूर्णिमा बेदार श्रीवास्तव जी
राधे राधे 🙏 🌷 🙏
तो ये सम्वाद रहा हमारे साथ भेंटवार्ता के दौरान जुड़ीं श्रीमती पूर्णिमा बेदार श्रीवास्तव जी से हुए प्रश्नोत्तर में। इनके राष्ट्रहित में विचार जानकर हम सब अभिभूत हैं। कमेन्ट बॉक्स में आप के विचारों का स्वागत रहेगा।
पूर्णिमा जी का साक्षात्कार देखने के लिए लिंक पर जाएं :
https://www.youtube.com/live/d422oooQfv8?si=An4yjgj1dAZLKci0
अगली भेंटवार्ता में आप सभी को मिलवाते हैं एक और साहित्यकार से। साथ ही आपसे अनुरोध है कि यदि आप किसी साहित्यकार का साक्षात्कार विशेष रूप देखना और पढना चाहते हैं तो अपने सुझाव हमें कमेन्ट बॉक्स में लिखकर दें।
निवेदक एवं संचालक
✍🏻 प्रश्नकर्ता : कल्पकथा परिवार
One Reply to “!! “व्यक्तित्व परिचय : श्रीमती पूर्णिमा बेदार श्रीवास्तव जी” !!”
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पवनेश
राधे राधे,
आदरणीया पूर्णिमा जी के साथ संवाद बहुत रुचिकर रहा।
सादर 🙏🌹🙏