
!! “व्यक्तित्व परिचय : श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” !!” !!
- कल्प भेंटवार्ता
- 10/04/2025
- लेख
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!! “व्यक्तित्व परिचय : श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” !!” !!
!! “मेरा परिचय” !!
नाम :- पूजा शर्मा “सुगन्ध”
माता/पिता का नाम :-श्रीमती सुधा शर्मा/श्री गिरिराज शर्मा
जन्म स्थान एवं जन्म तिथि :-जन्मस्थान बुलंदशहर उत्तर प्रदेश एवं जन्मतिथि २४नवंबर १९७९
पति का नाम :- श्री नीरेश शर्मा
बच्चों के नाम :- पुत्री- कृति शर्मा, पुत्र- एकांश शर्मा
शिक्षा :- एम ए (गणित), बी एड
व्यावसाय :- शिक्षिका एवं गृहणी
वर्तमान निवास :- वसुंधरा, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश
मेल आईडी :- poojasharmasugandh@gmail.com
आपकी कृतियाँ :- नवगीत माला, हाइकू संग्रह, भावों के परिंदे, सखी सप्तक( साझा संग्रह ) , भावांजलि
आपकी विशिष्ट कृतियाँ :- भावांजलि , श्रीराम महाकाव्य(साझा संग्रह) और श्रीकृष्ण महाकव्य (साझा संग्रह)
पुरूस्कार एवं विशिष्ट स्थान :- *अमृत महोत्सव में देशभक्ति लोरी प्रतियोगिता में जिला स्तर पर प्रथम स्थान,
*विभिन्न मंचों पर कुशल संचालन के लिए सम्मान,
* प्रतिध्वनि , कलम की सुगंध, अर्णव कलश ऐसोसिएशन द्वारा आयोजित प्रतियोगिताओं में सर्वश्रेष्ठ सृजन सम्मान
*आनलाइन काव्य प्रतियोगिता में प्रथम स्थान
*दो साझा संग्रह में कुशल संपादन
!! “मेरी पसंद” !!
उत्सव :- दीपावली
भोजन :- चावल से संबंधित कोई भी शाकाहारी भोजन
रंग :- हरा
परिधान :- साड़ी, सूट
स्थान एवं तीर्थ स्थान :- श्रीनगर एवं तीर्थ स्थान मथुरा वृन्दावन जहाँँ से बुलावे की प्रतीक्षा है
लेखक/लेखिका :- प्रेमचंद जी
कवि/कवयित्री :- मैथिली शरण गुप्त जी , रामधारी सिंह दिनकर जी, हरिवंश राय बच्चन जी, महादेवी वर्मा जी
उपन्यास/कहानी/पुस्तक :- गोदान, मुग्धा
कविता/गीत/काव्य खंड :-
कविता… नर हो न निराश करो मन को मैथिलीशरण गुप्त जी द्वारा रचित
खेल :-सुडोकू, कैरम
मूवीज/धारावाहिक (यदि देखती हैं तो) :-
आपकी लिखी हुई आपकी सबसे प्रिय कृति :-भावांजली काव्य संग्रह और मुग्धा कहानी
!! “कल्पकथा के प्रश्न” !!
प्रश्न 1. पूजा जी, सबसे पहले आपके व्यक्तिगत एवं साहित्यिक परिवेश के बारे में हमें बताइये।
पूजा शर्मा “सुगन्ध” :- मैं पूजा शर्मा “सुगन्ध”, मूलतः एक शिक्षिका और गृहिणी हूँ, परंतु हृदय से एक रचनाकार। साहित्य से मेरा जुड़ाव आत्मिक है। लेखनी मेरे लिए केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं, यह आत्म-चिंतन और समाज से संवाद का सेतु है।
मेरे साहित्यिक परिवेश में संवेदना, सामाजिक यथार्थ, और भावनाओं की गहराई प्रमुख रही है।
“मन के भाव शब्दों में उतरते रहे
और यूँ ही, बस यूँ ही,
इंद्रधनुष पृष्ठों पर उभरते रहे
सुधिजनों के सानिध्य में लेखनी निखरती रही
मन भावों की सुगंध संग, सुगंध सँवरती रही…”
प्रश्न 2. पूजा जी, आप एतिहासिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण नगरी “वसुन्धरा, गाजियाबाद” की रहने वाली हैं। इस नगर के बारे में अपने शब्दों में कुछ बताइये।
श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” :- वसुन्धरा, गाजियाबाद केवल एक आवासीय क्षेत्र नहीं, बल्कि आधुनिकता और सांस्कृतिक मूल्यों का संगम है। यहाँ की धरती पर धार्मिक, सामाजिक और साहित्यिक गतिविधियाँ सजीव हैं। राजधानी दिल्ली से सटा होने के कारण यह नगर बौद्धिक संवाद और रचनात्मकता का केंद्र भी बनता जा रहा है। इस नगरी ने मुझे सोचने, समझने और लिखने की नई दृष्टि दी है।
वर्तमान समय में गाजियाबाद, कई प्रसिद्ध रचनाकारो की कर्मभूमि है जो हिंदी साहित्य को समृद्ध करने में अपना योगदान दे रहे हैं और नवांकुरों के लिए प्रेरणास्रोत हैं।
प्रश्न 3. पूजा जी, काव्य-सृजन की प्रेरणा आपके हृदय-सरोवर में किस प्रकार तरंगित होती है? क्या यह अंतःस्फुरणा है, या कोई विशिष्ट प्रसंग इसका उद्गम स्रोत बनता है?
श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” :- मेरे लिए काव्य-सृजन एक सहज प्रवाह है, जो कभी अंतःस्फुरणा से फूटता है तो कभी किसी सामाजिक या व्यक्तिगत प्रसंग से प्रेरणा पाता है। एक शब्द, एक दृश्य, या किसी की पीड़ा—सब कुछ कविता का बीज बन सकता है। भावनाओं की हल्की सी तरंग भी कभी-कभी विचारों के समंदर में बदल जाती है।
फिर परिणामस्वरूप सतरंगी आभा न केवल पृष्ठों को सजाती है वरन मन मस्तिष्क पर भी एक छाप छोड़ जाती हैं बस ऐसे ही सृजन सार्थक रूप लेता है।
प्रश्न 4. पूजा जी, यदि आपको कहा जाए कि भारत देश की स्वतंत्रता के पूर्व, स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव, एवं अमृत महोत्सव के पश्चात, में हिन्दी साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करें तो आप किस समय को सर्वश्रेष्ठ मानती हैं?
श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” :- मैं स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का समय अधिक प्रभावशाली मानती हूँ, क्योंकि उस काल में हिन्दी साहित्य ने स्वतंत्र सोच, सामाजिक यथार्थ और नवचेतना को प्रमुखता दी। जहाँ पूर्व-स्वतंत्रता काल में साहित्य राष्ट्रभक्ति, सामाजिक सुधार और जनजागरण से भरा था, वहीं स्वतंत्रता प्राप्ति का समय भावनात्मक और संवेदनशील था विभाजन की पीड़ा और स्वतंत्रता का हर्ष दोनों साहित्य में झलकते हैं।
परंतु स्वतंत्रता के पश्चात से अमृत महोत्सव तक उसमें व्यक्तिगत अनुभूतियाँ, सामाजिक चिंतन और प्रयोगधर्मिता का नया विस्तार हुआ।
अमृत महोत्सव के बाद लेखन में तकनीकी विकास तो हुआ है, पर गहराई कहीं-कहीं छूटी है ऐसा मुझे लगता है।
पर एक बात और जोड़ना चाहूँगी मुझे रचनाएं स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व और स्वतंत्रता प्राप्ति के समय की अधिक पसंद आती हैं। वो मन में जोश भरती हैं मानो निराशा मेंआशा की किरण।
प्रश्न 5. पूजा जी, आपकी लेखनी का कौन-सा स्वरूप अधिक प्रबल है – विचारों की तीव्रता, भावों की सरसता, अथवा अलंकारों की आभा?
श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” :- मेरी लेखनी में भावों की सरसता प्रमुख है। मैं मानती हूँ कि जब तक पाठक के हृदय को भावनाएँ नहीं छूतीं, तब तक लेखन केवल शब्दों का संयोजन रह जाता है। यद्यपि विचारों की तीव्रता और अलंकारिक सौंदर्य भी मेरी रचनाओं में रहते हैं, परंतु मेरी लेखनी का मूल भावनात्मक प्रवाह ही है।
प्रश्न 6. पूजा जी, आपकी एक रचना *“तलाक”* है। आपने उसमें स्त्री की किन विषम परिस्थितियों को उकेरा है?
श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” :- “तलाक” में मैंने एक स्त्री के टूटे रिश्ते के बाद, समाज की रूढ़ियों के बीच उसके आत्मबल की यात्रा को दर्शाया है। अमीना बेगम न सिर्फ तलाक़ को सहती हैं, बल्कि उसे अपनी बेटी के उज्ज्वल भविष्य की नींव बना देती हैं। यह रचना उस स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है जो टूटती नहीं, बल्कि खुद को तराशकर एक नई पहचान बनाती है। यहाँ तलाक़ कोई अन्त नहीं, बल्कि एक नई शुरुआत का नाम है।
प्रश्न 7. पूजा जी, कहते हैं बचपन सदैव मनोहारी होता है। हम जानना चाहेंगे आपके बचपन का बाल विनोद भरा वो किस्सा, जो आपको आज भी मुस्कुराने पर विवश कर देता है।
उत्तर :- मेरा बचपन गाँव की मिट्टी में बसा था—जहाँ ग्रीष्मावकाश त्योहारों से कम नहीं होते थे। पड़ोस के आँगन में जामुन का पेड़ था पर उसकी अधिकतर डालियाँ हमारे आँगन में फल वर्षा करती थीं, खेतों में गन्ने तोड़ने जाना और गन्ने का चयन करते समय अम्मा को खेत के अंदर तक ले जाना ….
अम्मा से रात को कहानियाँ सुनना..
और छत पर लेटकर तारों के नीचे रेडियो पर गीतमाला सुनना घर के गोदाम से चुपके से गेहूँ देकर कच्ची बर्फ वाली आइसक्रीम लेना—ये सब आज भी दिल में उस मासूम हँसी की गूंज छोड़ जाते हैं।
शरारतें कम थीं, लेकिन उन पलों में जो अपनापन और मिठास थी, वह आज भी मेरे अंदर जिंदा है।
प्रश्न 8. पूजा जी, आज भागदौड के समय में लेखकीय यात्रा को कई बिंदुओं पर भागदौड वाला ही बना दिया गया है। साथ ही शीघ्र प्रसिद्धि के लालच देकर अच्छा खासा व्यवसाय चलाया जा रहा है। आप इससे कितनी सहमत हैं?
श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” :- मैं इस बात से काफी हद तक सहमत हूँ। आजकल लेखन की आत्मा से अधिक उसकी “ब्रांडिंग” को महत्व दिया जा रहा है। बहुत से लेखक प्रसिद्धि पाने की जल्दी में भावों की गहराई और सच्चाई को पीछे छोड़ देते हैं।
लेखन व्यवसायिक हो सकता है, पर उसे आत्मिक बने रहना चाहिए। सच्चा साहित्य समय लेता है पर दीर्घकालीन प्रभाव छोड़ता है, जबकि दिखावे की रचनाएँ तात्कालिक तालियाँ तो बटोर सकती हैं पर स्थायित्व नहीं पा पातीं। मैं लेखन को साधना मानती हूँ, सौदा नहीं।
प्रश्न 9. पूजा जी, साहित्यिक परिशिष्ट में आप आज के लेखकों और कवियों का क्या भविष्य देखती हैं?
श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” :- मैं आज के लेखकों और कवियों में एक अद्भुत विविधता और नवीनता देखती हूँ। तकनीक ने उन्हें अभिव्यक्ति के नए मंच दिए हैं—ब्लॉग्स, ई-बुक्स, सोशल मीडिया इत्यादि। यह एक सकारात्मक संकेत है, लेकिन चुनौती यह है कि इस भीड़ में मौलिकता और संवेदना बनाए रखना आवश्यक है।
जो लेखक भावों की सच्चाई, भाषा की गरिमा और समाज की गहराई को साथ लेकर चलेंगे, उनका भविष्य उज्ज्वल है। साहित्य सतत विकासशील है—जो इसके साथ ईमानदारी से जुड़ा रहेगा, वही कालजयी कहलाएगा।
प्रश्न 10. पूजा जी, आपकी दृष्टि में कोई साहित्यिक रचना किस गुण के कारण कालजयी बनती है? क्या यह उसके भावपक्ष की प्रबलता है, भाषा वैशिष्ट्य, अथवा समाज पर उसकी छाप?
श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” :- जैसा आप मैंने पहले भी कहा, मेरे विचार में कोई भी रचना तब कालजयी बनती है जब उसमें भावों की सच्चाई, भाषा की गरिमा और समाज से जुड़ाव—तीनों का संतुलन हो।
भावपक्ष रचना को आत्मा देता है, भाषा उसे अभिव्यक्ति देती है, और समाज पर उसकी छाप उसे प्रासंगिकता देती है।
यदि कोई रचना समय, स्थान और पीढ़ियों की सीमाएँ पार कर पाठकों के अंतर्मन को छूती रहे—तो वही उसकी कालजयीता का प्रमाण है।
प्रश्न 11. पूजा जी, आपकी पुरस्कृत पुस्तक “भावांजली” के बारे में कुछ बताइए। साथ ही हम इस पुस्तक से एक कविता सुनना चाहेंगे।
श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” :- भावांजली” मेरे मन के भावों की एक ऐसी अंजलि है, जिसमें जीवन के विविध रंग—वेदना, संवेदना, सामाजिक सच्चाइयाँ, नारी मन की पीड़ा और समाज के उपेक्षित पक्ष, प्रेम भक्ति—एकत्रित हैं। इस संग्रह की कविताएँ केवल कल्पना नहीं, मेरे अनुभवों, देखी-सुनी सच्चाइयों और संवेदनाओं की अभिव्यक्ति हैं।
इस संग्रह की कुछ प्रमुख रचनाएँ हैं —
“भूख”, जिसमें सामाजिक असमानता और उपेक्षा की पीड़ा है,
“श्वास लिपटी चीथड़ों में”, जो बेघर बेसहारा जीवन की दर्दनाक सच्चाई को छूती है,
और “सुप्त कली “, जो स्त्री के साथ होने वाले शोषण और उसके मौन आक्रोश की अभिव्यक्ति है।
यही रचना मैं आपके समक्ष रख रही हूँ कविता के भाव यदि आप तक पहुँचे तो सृजन सार्थक हुआ …सुनिएगा
सुप्त कली
**********
सुप्त कली की गूँज अधर में
दावानल में खोई।
निज आँचल में भस्म समेटे
धरा बिलख कर रोई।
मर्यादा की बेड़ी पग में
मूक बधिर की श्रेणी।
अधिकारों के केश उखाड़े
गूँथ कर्म की वेणी।
देख विवशता गंगधार ने
असुअन माल पिरोई ।।….
निज आँचल में भस्म समेटे
धरा बिलख कर रोई।
पान मध्य में छिपा सुपारी
द्वार लगाया ताला।
कोमल कलिका सुकुमारी को
बड़े जतन से पाला।
क्रूर मनुज के चक्र व्यूह फँस
सिया धरा में सोई।।…
निज आँचल में भस्म समेटे
धरा बिलख कर रोई।
विलग शाख से हुई कुमुदिनी
कुटिल मना मुस्काए।
देख भयावह रूप मृगी का
मृत्यु मृत्यु को ध्याए।
बिना अनल के जली चिता फिर
पाया रोक न कोई।।..
निज आँचल में भस्म समेटे
धरा बिलख कर रोई।
#पूजा शर्मा सुगन्ध
प्रश्न 12. पूजा जी, आप स्वयं में निस्संदेह एक विशिष्ट श्रेणी की लेखिका हैं। क्या आपको किसी और लेखक या कवि ने कभी प्रभावित किया है? कोई ऐसी विशिष्ट रचना जो आपने न लिखी हो, किंतु आपको बहुत प्रिय हो?
श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” :- जी हाँ, मेरी साहित्यिक यात्रा में कई रचनाकारों की लेखनी ने मुझे प्रेरित किया है, एक नाम लेना संभव नहीं रामधारी सिंह दिनकर जी, मैथिली शरण गुप्त जी , महादेवी वर्मा जी और भी ऐसे अनेक महान साहित्यसाधक हैं जिनकी रचनाएं मेरे मन मस्तिष्क पर सर्वाधिक प्रभाव डालती हैं। इनकी कविताओं में जो ओज, जागरण और सामाजिक चेतना है, वह मेरे विचारों से गहराई से जुड़ती है।
राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त जी “की रचना ” नर हो न निराश करो मन को “ जिससे सभी प्रभावित हैं इसकी ये पंक्तियाँ
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो,
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को …”
मेरे हृदय के अत्यंत निकट है। यह कविता केवल आत्ममंथन नहीं, बल्कि जीवन के उद्देश्य को सार्थक करने का आह्वान भी है। जब-जब मैं लेखनी थामती हूँ, कहीं न कहीं यह भावना जागृत रहती है कि मेरी रचना केवल भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं, समाज के लिए भी सार्थक संदेश बने।
प्रश्न 13. पूजा जी, यूँ तो अपनी लिखी सभी रचनायें विशेष प्रिय होती हैं। फिर भी हम आपकी स्वरचित एवं विशेष प्रिय कविता सुनना चाहेंगे। साथ ही जानना चाहेंगे कि वो आपको इतनी प्रिय क्यों है?
श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” :- जी हाँ, ये बात सत्य है कि सभी रचनाएँ मेरे हृदय के समीप हैं, जैसे मां को अपनी हर संतान प्यारी होती है बस उसी प्रकार ….
परंतु यदि किसी एक रचना को चुनना हो, तो मेरी कविता “कोमल कलिका रूप त्याग अब” मुझे अत्यंत प्रिय है।
यह रचना केवल एक गीत नहीं, बल्कि नारी चेतना की हुंकार है — यह कोमलता से जुझारूपन की यात्रा है। इसमें सीता और द्रौपदी के ऐतिहासिक प्रसंगों के माध्यम से आज की नारी को संघर्ष, सजगता और स्वाभिमान का प्रतीक रूप देते हुए, आत्म-सुरक्षा और आत्मबल की प्रेरणा दी गई है।
इस कविता में पीड़ा है, प्रतिरोध है, पराजय की राख में से उठती प्रेरणा की चिंगारी भी है। यह मुझे प्रिय इसलिए है क्योंकि यह सिर्फ भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि एक सामाजिक आह्वान है — नारी से उसके भीतर की शक्ति को पहचानने का आग्रह।
इसकी कुछ पंक्तियां आपके समक्ष रख रही हूँ
कोमल कलिका रूप त्याग अब
नागफनी अंतस उपजा।
पग के नीचें रोंद सिसकियाँ
खड्ग कटारी हस्त सजा।
सीता बन वन वन में भटकी
अंत धरा की गोद मिली।
स्वजनों के कारण द्वापर में
द्रुपद सुता फिर गई छली।
रौद्ररूप धर गर्जन कर अब
दमक दामिनी आज लजा।।
पग के नीचें रोंद सिसकियाँ
खड्ग कटारी हस्त सजा।।
जाल बिछाए खड़े शिकारी
नोंच नोंच तन खाऐंगे।
कलियुग में रक्षण करने अब
कोई कृष्ण न आऐंगे।
छीन नियति से पासे अपने
बिगुल युद्ध का आज बजा।।
पग के नीचें रोंद सिसकियाँ
खड्ग कटारी हस्त सजा।।
उजियारे की प्रतिछाया बन
बाती सम जलती रहती
मुस्कानों की ओढ चुनरिया
नित कंटक पर पग धरती।
लक्ष्मी बनकर सहती आई
बन काली ले हस्त ध्वजा।।
पग के नीचें रोंद सिसकियाँ
खड्ग कटारी हस्त सजा।।
पूजा शर्मा “सुगन्ध”
प्रश्न 14. पूजा जी, आप एक गृहिणी एवं शिक्षिका हैं। ऐसे में निरंतर साहित्य सृजन, साहित्यिक गतिविधियों को कैसे व्यवस्थित करती हैं?
श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” :- साहित्य मेरे लिए केवल एक रुचि नहीं, आत्मिक आवश्यकता है। गृहिणी और शिक्षिका के रूप में मेरी जिम्मेदारियाँ भले ही अनेक हों, किंतु सृजन मेरे जीवन का संतुलन बनाता है। समय सीमित होता है, लेकिन जब मन में भाव उमड़ते हैं तो मैं उन्हें शब्दों में ढालने का अवसर खोज ही लेती हूँ। कभी रात्रि के सन्नाटे में, कभी चाय की प्याली के संग, तो कभी कक्षा के अंत में मौन क्षणों में भी — कविता अपने आप उतर आती है।
साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय रहने के लिए मैंने ऑनलाइन मंचों को प्राथमिकता दी है। ऑनलाइन कव्यपाठ, साझा संकलनों में सहभागिता, ब्लॉग लेखन और सोशल मीडिया मंचों के माध्यम से निरंतर साहित्य से जुड़ी रहती हूँ।
मैं मानती हूँ कि जब रचना भीतर जन्म लेती है, तो वह अपने लिए समय और स्थान स्वयं बना लेती है। बस ज़रूरत है उस पुकार को पहचानने और अपनाने की।
प्रश्न 15. पूजा जी, कविता कई बार हमारे जीवन को एक दिशा दे जाती हैं। क्या आपके जीवन में दिशा निर्देशक कोई कविता है? हम उसे सुनना चाहेंगे।
श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” :- जी हाँ, कई रचनाएँ हैं जिन्होंने मुझे विपरीत परिस्थितियों में मार्गदर्शन दिया, जैसे मैंने पहले भी आपको बताया राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त जी की रचना ‘नर हो न निराश करो मन को’
जीवन के उद्देश्य को साधने में सहायक है, प्रेरणास्रोत है
पर यदि एक ऐसी कविता चुननी हो जो भीतर की चेतना को बार-बार झकझोरती है, तो वह मेरी ही रचना “हृदय चुभें जब तीर व्यंग्य के…” है। क्योंकि कविता केवल भावाभिव्यक्ति का माध्यम नहीं, बल्कि जीवन की कठिन घड़ियों में पथदर्शिका भी होती है। कई बार जब भीतर कुछ टूटने लगता है, तब वही शब्द हमारा संबल बनते हैं। मेरे लिए यह रचना ऐसी ही एक प्रेरणास्रोत है। यह मेरी आत्मस्वर को जाग्रत करने वाली कविता है, जिसने मुझे यह सिखाया कि सहनशीलता की भी एक सीमा होती है, और जब वो सीमा पार हो जाए तो आत्मसम्मान की रक्षा के लिए आवाज़ उठाना अनिवार्य हो जाता है।
यह कविता हर बार मुझे भीतर से सशक्त करती है — जब भी परिस्थितियाँ विचलित करने लगती हैं, यह रचना मेरा आत्मबल बनकर उभरती है। परिवार या देश किसी भी संदर्भ में आप इस कविता को ले सकते हैं….प्रस्तुत है यह कविता:
—
**”हृदय चुभें जब तीर व्यंग्य के,
इक हुंकार जरूरी है।
रिसन करें जब फटी बिबाई,
इक उपचार जरूरी है।।
दूध पूत का छीन बाँटते
फिर भी हम हिय के काले।
माँस नोंचकर अपने तन का
गिद्ध भेड़िये हैं पाले।।
दमन दर्प का करने हेतु
इक फुंकार जरूरी है।।…
बरसों दुबके रहे खोल में
अंतस पर पाले जाले।
पैबंदों की काया ओढे
नेत्र बंद मुख पर ताले।।
मौन नयन के द्वारे पहुँचा
अब ललकार जरूरी है।।…
वर्षा करते रहे प्रेम की
सदा जोंक के साथ जिए।
बंजर धरणी रहे सींचते
प्रेमांकुर की आस लिए।
नागफनी जब अंतस चीरे
तब प्रतिकार जरूरी है।।…
मान कुटंबी सब सर्पों को
निज हिय में स्थान दिए।
भक्षक के रक्षण में हमने
अपनों पर ही वार किए।
चीख रहे जब हिय के छाले
इक टंकार जरूरी है।।…”**
— पूजा शर्मा ‘सुगन्ध’
—
यह रचना मेरे लिए आत्मनिरीक्षण और आत्मोदय दोनों का प्रतीक है। जब भावनाएँ आहत हों, तब कविता की शक्ति हमें संकल्प की ओर अग्रसर करती है — यही कविता का वास्तविक उद्देश्य है और यही इसकी दिशा निर्देशक भूमिका भी।
प्रश्न 16. पूजा जी, आपके दृष्टिकोण में क्या रचनाओं में भावपक्ष एवं कलापक्ष का संतुलन होना आवश्यक है? यदि हां तो क्यों? अथवा प्रवाह के साथ रचना सृजन में इस संतुलन को पीछे छोड़ा जा सकता है, यदि हां तो क्यों?
श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” :- मेरे अनुसार रचना में भावपक्ष और कलापक्ष दोनों का संतुलन अत्यावश्यक है। भावपक्ष वह आत्मा है जो विचार, संवेदना और अनुभूति का संचार करता है, जबकि कलापक्ष वह माध्यम है जो उस आत्मा को एक सुगढ़ रूप प्रदान करता है। यदि केवल भाव हों और उन्हें प्रस्तुत करने का ढंग आकर्षक न हो तो वे पाठक तक प्रभावी ढंग से नहीं पहुँच पाते। वहीं दूसरी ओर यदि केवल शिल्प हो और भाव शून्य हो, तो वह रचना केवल कृति बनकर रह जाती है, कविता नहीं।
हालाँकि कभी-कभी कुछ रचनाएँ शुद्ध भावप्रवाह के साथ भी प्रभाव छोड़ देती हैं, पर वह प्रभाव दीर्घकालिक तभी होता है जब उसे भाषा, छंद, शैली और प्रस्तुतिकरण का उपयुक्त सहारा मिले। यही वह संतुलन है जो रचना को पठनीय ही नहीं, स्मरणीय बनाता है।
मेरी कई कविताओं में यह समरसता देखी जा सकती है — कहीं भाव प्रधानता लिए हुए, तो कहीं शिल्प की कसौटी पर खरी उतरती हुईं। कविता केवल अनुभूति नहीं, उसका सौंदर्यबोध भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। इसलिए मैं मानती हूँ कि रचना में भाव और कला दोनों का समन्वय ही उसकी पूर्णता है।
प्रश्न 17. पूजा जी, हर गुणी लेखक/कवि की लालसा होती है कि उसे अपनी रचना पर विशेष टिप्पणियां मिले, जो सकारात्मक के साथ-साथ निष्पक्ष भी हों। आप इस संदर्भ में क्या राय रखती हैं?
श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” :- एक लेखक अथवा कवि के लिए पाठकों की टिप्पणियाँ केवल प्रशंसा का माध्यम नहीं होतीं, बल्कि वे रचनात्मक विकास की दिशा में महत्वपूर्ण संकेतक होती हैं। निष्पक्ष समीक्षा, जहाँ एक ओर रचनाकार को अपनी सशक्तियों का भान कराती है, वहीं दूसरी ओर उसे अपने लेखन में सुधार और नवीनता के लिए प्रेरित करती है।
मैं स्वयं यह मानती हूँ कि किसी भी रचना की सजीवता पाठकों की प्रतिक्रियाओं से ही परिलक्षित होती है। सकारात्मक टिप्पणियाँ आत्मबल बढ़ाती हैं और निष्पक्ष आलोचना एक सच्चे मार्गदर्शक की भूमिका निभाती है। मैंने सदा ऐसे सुझावों को आत्मीयता से स्वीकारा है जो मेरी रचनाशीलता को समृद्ध करते हैं। यही संतुलन एक साहित्यकार को निरंतर निखरने का अवसर देता है।
प्रश्न 18. पूजा जी, आपने अनेक पुस्तकें लिखीं हैं। उन्हीं में से एक पुस्तक है *“शौर्य को समर्पित”* । उसके बारे में कुछ बताइए। साथ ही हम आपकी एक कविता भी सुनना चाहेंगे।
श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” :- शौर्य को समर्पित” मेरा प्रतिलिपि पर प्रकाशित काव्य संग्रह है, जो विशेष रूप से भारतीय वीरता, सैनिकों के बलिदान, राष्ट्रप्रेम और मातृभूमि के प्रति अटूट समर्पण को समर्पित है। यह संग्रह उन अनकहे भावों को शब्द देता है, जो एक सैनिक और उसके परिवार के मन में चलते हैं—संघर्ष, त्याग, धैर्य और गौरव। यह केवल कविताओं का संग्रह नहीं, बल्कि शौर्यगाथाओं का संग्रह है।
शौर्य को समर्पित” संग्रह का उद्देश्य ही यही है—शब्दों के माध्यम से उन असंख्य वीरों को नमन करना, जिन्होंने अपने स्वप्नों से पहले देश को रखा।
इस संग्रह की एक अत्यंत भावनात्मक और हृदयस्पर्शी रचना है “भारती का लाल”, जो एक सैनिक की जीवन यात्रा और उसकी मातृभूमि के लिए बलिदान को दर्शाती है। यह कविता उस क्षण को उकेरती है जब एक वीर योद्धा तिरंगा ओढ़ कर चिरनिद्रा में लीन हो जाता है, परंतु उसकी कीर्ति अमर हो जाती है।
प्रस्तुत है उस कविता के कुछ अंश
भारती का लाल प्यारा
स्वप्न स्वर्णिम बो गया।
वायु धीरे ले हिलोरे
रवि तपिश निज खो गया।
एक तृण को थाम कर में
आँधियों से नित लड़ा।
धार तटिनी मोड़ने को
काल के सम्मुख खड़ा।
दीप सम जलता हुआ वो
लीन सुरसरि हो गया।
वायु धीरे ले हिलोरे
रवि तपिश निज खो गया।
शीत वर्षा ताप में भी
जो हिमालय सा अटल।
नित विजय का हार पहने
सामने कोई पटल।
देख उसकी कीर्ति उज्ज्वल
चंद्र आभा खो गया।
वायु धीरे ले हिलोरे
रवि तपिश निज खो गया।
शिथिलता है कुछ क्षणों की
क्यों हृदय में पीर है?
ढाल बनकर फिर उठेगा
क्यों नयन में नीर है?
ओढकर तन पर तिरंगा
लाल मेरा सो गया।
वायु धीरे ले हिलोरे
रवि तपिश निज खो गया।
पूजा शर्मा “सुगन्ध”
प्रश्न 19. क्या आप किसी एक ऐसे एतिहासिक पात्र को अपने दृष्टिकोण से उकेरने का प्रयास करेंगी, जिसको आपके दृष्टिकोण से इतिहास के पन्नों में स्थान नहीं मिला है अथवा एतिहासिक परिप्रेक्ष्य में उनके साथ न्याय नहीं हुआ है, यदि हां तो वह कौन हैं और आपको क्यों लगता है कि उनके साथ न्याय नहीं हुआ है?
श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” :- इतिहास के पन्नों में कई ऐसे किरदार हैं, जिनकी भूमिका समय ने बड़ी शिद्दत से निभवाई, परंतु उन्हें पहचान का वह स्थान नहीं मिल पाया जिसके वे अधिकारी थे। मेरे दृष्टिकोण से झलकारी बाई एक ऐसा ही ऐतिहासिक पात्र हैं, जिन्होंने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ युद्ध में अप्रतिम वीरता दिखाई। वे एक सामान्य वर्ग से थीं, लेकिन युद्ध कौशल और रणनीतिक समझ के मामले में असाधारण थीं। उन्होंने न केवल रानी का वेश धारण कर शत्रु को भ्रमित किया, बल्कि अपने प्राणों की आहुति भी दी।
ऐसे साहसी और अद्वितीय चरित्रों को यदि इतिहास में सीमित संदर्भों तक ही समेट दिया जाए, तो यह अन्याय है। मेरा मानना है कि झलकारी बाई जैसे व्यक्तित्वों को कविता, कहानियों और नाटकों के माध्यम से बार-बार जीवंत किया जाना चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ जान सकें कि स्वाधीनता की नींव किन अनसुने और अनदेखे बलिदानों पर रखी गई थी।
यदि मुझे अवसर मिले तो मैं निश्चित रूप से उनके जीवन को अपने शब्दों में रेखांकित करना चाहूँगी—क्योंकि इतिहास केवल राजाओं का नहीं होता, वह हर उस साहसी स्त्री-पुरुष का होता है जिसने अपनी भूमिका पूरी ईमानदारी से निभाई, चाहे उसका नाम पुस्तकों में लिखा गया हो या नहीं।
प्रश्न 20. भाषा एवं शैली की दृष्टि से आप किस प्रकार के प्रयोगों को साहित्य में स्थान देने योग्य मानते हैं? क्या परंपरागत स्वरूप अधिक प्रभावी है, या नवीन प्रयोगों की धार, जो कि अधिक तीक्ष्ण है?
श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” :- मेरे विचार में साहित्य एक निरंतर प्रवाहमान नदी की भांति है, जिसमें परंपरा उसकी गहराई है और नवीन प्रयोग उसकी गति। भाषा एवं शैली के क्षेत्र में परंपरागत स्वरूपों की गरिमा और प्रभाव आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, क्योंकि वे हमारे साहित्यिक संस्कारों की नींव हैं। किंतु समय के साथ समाज, सोच और संवेदनाएँ भी परिवर्तित होती हैं, और ऐसे में नवीन प्रयोगों की धार भी उतनी ही आवश्यक है।
जहाँ छंद, दोहा, गीत जैसे विधागत अनुशासन पाठकों में अनुशासन और कलात्मकता का रस जगाते हैं, वहीं मुक्त छंद, प्रयोगधर्मी कविता, हाइकू और नए शिल्प की रचनाएँ आज के संवेदनशील मन को गहराई से स्पर्श करती हैं। मैंने स्वयं भी परंपरा और नव्यता दोनों के साथ प्रयोग किए हैं—जहाँ नवगीतों और गीतों में लय और भावना को सँवारा, वहीं मुक्तछंद में सामाजिक विसंगतियों और आत्मसंघर्ष को स्वर दिया।
इसलिए मैं मानती हूँ कि परंपरा और नवीनता दोनों ही साहित्य के दो पुर्जे हैं—एक स्थिरता देता है, दूसरा गति। संतुलन बनाकर चलना ही सशक्त साहित्य की दिशा है।
प्रश्न 21. पूजा जी, हिन्दी भाषा को राष्ट्र भाषा बनाने के सतत प्रयासों से क्या आप संतुष्ट हैं? यदि नहीं, तो आपके विचार में और ऐसे क्या प्रयास किये जाने चाहिये, जिससे हिन्दी राष्ट्र भाषा बन सके?
श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” :- हिन्दी भाषा भारतीय संस्कृति की आत्मा है, इसकी जड़ें हमारी परंपराओं, भावनाओं और लोकजीवन में गहराई तक समाई हुई हैं। यद्यपि हिन्दी को संवैधानिक रूप से राजभाषा का दर्जा प्राप्त है और समय-समय पर इसके प्रचार-प्रसार हेतु प्रयास भी हुए हैं, परन्तु इन प्रयासों की निरंतरता और व्यापकता अभी भी सीमित प्रतीत होती है। विशेष रूप से शैक्षणिक, तकनीकी और प्रशासनिक क्षेत्रों में अंग्रेजी का वर्चस्व हिन्दी की राह को संकुचित करता है।
मेरे विचार से हिन्दी को वास्तव में राष्ट्रभाषा का स्वरूप देने हेतु कुछ ठोस प्रयास आवश्यक हैं—
*प्राथमिक से उच्च शिक्षा तक हिन्दी को प्रभावी माध्यम बनाया जाए।
*विज्ञान, तकनीक, चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में गुणवत्तापूर्ण हिन्दी सामग्री विकसित की जाए।
*सोशल मीडिया, फिल्म, टीवी और अन्य जनसंचार माध्यमों में हिन्दी की गरिमा बनाए रखी जाए, न कि केवल बाजारू भाषा के रूप में उपयोग किया जाए।
*क्षेत्रीय भाषाओं के साथ समरसता रखते हुए हिन्दी को सेतु भाषा के रूप में प्रोत्साहित किया जाए।
जब हिन्दी केवल बोलने या पढ़ने की भाषा नहीं, बल्कि सोचने, सृजन करने और निर्णय लेने की भाषा बनेगी, तभी वह सच्चे अर्थों में राष्ट्रभाषा कहलाने की अधिकारी होगी।
आइए, हिन्दी के लिए केवल भावनाएँ न रखें, बल्कि उसे जीवन का हिस्सा बनाएं।
प्रश्न 22. आपकी दृष्टि में भारतीय संस्कृति और साहित्य का परस्पर संबंध किस प्रकार परिलक्षित होता है? क्या साहित्य संस्कृति का प्रतिबिंब है, या संस्कृति साहित्य का स्रोत?
श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” :- भारतीय संस्कृति और साहित्य एक-दूसरे के पूरक नहीं, अपितु एक ही वृक्ष की दो शाखाएँ हैं, जो एक ही मूल से सिंचित होती हैं। मेरे दृष्टिकोण में साहित्य न केवल संस्कृति का प्रतिबिंब है, बल्कि समय-समय पर संस्कृति को दिशा भी देता है।
हमारी संस्कृति जिन मूल्यों पर आधारित है—जैसे करुणा, सत्य, सहिष्णुता, धर्म, प्रेम और प्रकृति से जुड़ाव—उनका जीवंत चित्रण हमें भारतीय साहित्य की लगभग हर विधा में देखने को मिलता है। चाहे वेदों की ऋचाएँ हों, संत साहित्य हो, भक्तिकाव्य हो, आधुनिक साहित्य या मेरी अपनी रचनाएँ—सभी में संस्कृति के विविध रंग, रीति-नीति, लोकाचार, पर्व-त्योहार, सामाजिक संरचना, स्त्री-पुरुष की भूमिकाएँ और जीवन के दार्शनिक पक्ष झलकते हैं।
वहीं दूसरी ओर, साहित्य समाज को संवेदना और विवेक के धरातल पर सोचने की दृष्टि देता है। जब कोई सामाजिक कुरीति या विसंगति संस्कृति को दूषित करती है, तब साहित्य उस पर प्रहार करता है, जैसे तुलसीदास, कबीर या दिनकर ने किया। इस रूप में साहित्य संस्कृति को शुद्ध करता है, जागरूक बनाता है और पुनर्निमाण की राह दिखाता है।
इसलिए मैं मानती हूँ कि साहित्य संस्कृति का प्रतिबिंब भी है और उसका स्रोत भी—यह परंपरा का संवाहक है और नव चेतना का बीज भी।
प्रश्न 23. आप अपने पाठकों, हमारे दर्शकों, सभी लेखकों और समाज को क्या संदेश देना चाहती हैं?
श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” :- मेरे लिए लेखन केवल अभिव्यक्ति नहीं, उत्तरदायित्व भी है—समाज के प्रति, पाठकों के प्रति और अपनी आत्मा के प्रति। इसलिए मैं सबसे पहले सभी पाठकों, साहित्य प्रेमियों और सृजनधर्मियों को नमन करती हूँ, जिन्होंने साहित्य को जीवित रखा है।
मेरे संदेश का सार यही है कि
“लेखन करें, लेकिन केवल शब्दों से नहीं—मन से, संवेदना से, सत्य से।”
साहित्यकार की कलम मात्र रचयिता नहीं होती, वह एक लौ होती है जो अंधकार में दिशा देती है। चाहे समय कितना भी कठिन क्यों न हो, लेखनी से आशा, विचार और परिवर्तन की लौ जलती रहनी चाहिए।
साथ ही, मैं यह कहना चाहूँगी कि—
“हर व्यक्ति के भीतर एक लेखक होता है, बस ज़रूरत है आत्म-संवाद की, अनुभवों को सुनने की।”
इसलिए अपनी अभिव्यक्ति को डर और संकोच से मुक्त कीजिए, और लिखिए …
फिर चाहे वह कविता हो, कहानी, लेख, या डायरी की एक पंक्ति—क्योंकि शब्दों में असीम शक्ति होती है।
और अंत में, यही कि
“साहित्य का काम केवल मनोरंजन नहीं, मनोविकास और समाज-संवेदना का विस्तार भी है। इसे पढ़िए, सराहिए और इसमें सहभागी बनिए।”
✍🏻 *वार्ता : श्रीमती पूजा शर्मा “सुगंध”
कल्प व्यक्तित्व परिचय में आज वाराणसी (उप्र) की विशिष्ट साहित्यकार श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” जी से परिचय हुआ। ये गृहणी एवं गणित की शिक्षिका हैं एवं सुन्दर व्यक्तित्व की धनी हैं। इनका लेखन ओज व वीर रस से सराबोर है। इनके साथ हुई भेंटवार्ता को आप नीचे दिये कल्पकथा के यू ट्यूब चैनल लिंक के माध्यम से देख सुन सकते हैं। 👇
https://www.youtube.com/live/yfNiKjwDdtM?si=IgBwJxhAhFXgx8rH
इनसे मिलना और इन्हें पढना आपको कैसा लगा? हमें कमेन्ट बॉक्स में कमेन्ट लिख कर अवश्य बताएं। हम आपके मनोभावों को जानने के लिए व्यग्रता से उत्सुक हैं।
मिलते हैं अगले सप्ताह एक और विशिष्ट साहित्यकार से। तब तक के लिए हमें आज्ञा दीजिये।
राधे राधे 🙏 🌷 🙏
✍🏻 लिखते रहिये, 📖 पढते रहिये और 🚶बढते रहिये। 🌟
✍🏻 प्रश्नकर्ता : कल्प भेंटवार्ता प्रबंधन
One Reply to “!! “व्यक्तित्व परिचय : श्रीमती पूजा शर्मा “सुगन्ध” !!” !! ”
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पवनेश
राधे राधे,
आदरणीया श्रीमती पूजा शर्मा सुगंध जी के साथ भेंटवार्ता कार्यक्रम अत्यंत आनंददायक रहा।
सादर 🙏🌹🙏