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नवरात्रि पर्व: आध्यात्मिक दृष्टिकोण

नवरात्रि पर्व:आध्यात्मिक दृष्टिकोण 

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ||

नवरात्रि का पावन पर्व प्रारंभ हो गया है। हमारी संस्कृति के सुंदरतम त्योहारों में से एक नवरात्रि पर्व जो कि शक्ति की आराधना और उपासना को समर्पित है। हमारी सनातन संस्कृति में 33 कोटि देवी देवता कहे गए हैं जिसमे ईश्वर के नारी स्वरूप को हम मां दुर्गा के रूप में पूजते हैं।
“मां दुर्गा ” जिनको शक्ति स्वरूपा कहा गया है और उनके नौ रूपों की पूजा आराधना नवरात्रि पर्व मे की जाती है। पर्व के आध्यामिक स्वरूप की बात करें तो मां दुर्गा की दैवीय शक्ति हम सबके भीतर उपस्थित है। उसी शक्ति को जागृत करने का पर्व है नवरात्रि।

नवरात्रि पर्व का ताना बाना तीन प्रमुख स्तंभों पर टिका है जो हैं, उपासना, साधना और आराधना। प्रचलित रूप में देखने पर यह तीनों एक ही समझ आते हैं। इस समय घर घर में विभिन्न उपासना पद्धतियां देखने मिलती है। जवारे बोना, अखंड दीपक का प्रज्वलन,कलश और घट स्थापना इत्यादि कर्मकांड सभी अपनी अपनी सामर्थ्य और श्रद्धा के अनुसार करते हैं। साथ ही सबसे अधिक प्रचलित है नवरात्रि के व्रत उपवास । यह भी सभी अपनी शारीरिक क्षमता अनुसार रखते है। यह सब नवरात्रि पर्व का भौतिक स्वरूप है। आध्यात्मिक रूप से बात करें तो उपासना, साधना और आराधना को अलग अलग रूप से समझा जा सकता हैं ।

“उपासना” शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है “उप ” तथा “आसन” । “उप” का अर्थ है” पास “और आसन का अर्थ है “बैठना”। इसीलिए उपासना का अर्थ हुआ पास बैठना। जैसे कि हम अग्नि के समीप जाते हैं तो हमें गर्मी महसूस होती है। अर्थात, अग्नि की ऊष्मा हम तक पहुंचने लगती है।  नवरात्रि में देवी उपासना का मर्म भी यही है कि आदिशक्ति के समक्ष बैठकर हम यही भावना करें कि उनके दैवीय गुणों को हम अपने भीतर धारण कर रहें है। ईश्वरीय शक्ति जिन सत्य, साहस, संयम, सदाचार, सद्भावना इत्यादि सद्गुणों से परिपूर्ण है इन सबको अपने जीवन में जगाने का हम प्रयास करें। जप, तप,पाठ ,अनुष्ठान इत्यादि करने का अर्थ यही है कि आदिशक्ति से प्रेरणा लेकर स्वयं के जीवन को निरंतर परिष्कृत करते रहें। वस्तुतः अपनी चेतना को दैवीय चेतना से जोड़ देने का नाम ही उपासना है।

अगला क्रम है” साधना” ।साधना का अर्थ है” साध लेना”। अब प्रश्न उठता है कि किसे साध लेना है? उत्तर है स्वयं को!!  नवरात्रि के नौ दिन साधना के लिए बहुत अनुकूल माने जाते हैं । नवरात्रि में व्रत रखना, कोई विशेष नियम धारण करना, प्रवृति विशेष का त्याग इत्यादि साधना के ही प्रकार है। साधना स्वयं के प्रति कठोर बनने की प्रक्रिया है। मन को संयमित करने की प्रक्रिया है । उपवास व्रत इत्यादि हमें आहार का संयम सिखाते हैं। अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक बनाते है। वहीं कोई विशेष नियम या व्रत धारण करना हमारी त्याग और संयम की प्रवृत्ति को विकसित करता है। इस प्रकार नौ दिवसीय साधना हमारे व्यक्तिव परिष्कार में सहायक होती है।

अंतिम क्रम है आराधना का । जैसे कि उपासना ईश्वर के प्रति है,साधना स्वयं के प्रति है, आराधना मुख्यतः समाज के प्रति है। हम सदैव यही प्रयास करें कि अपने पारिवारिक क्षेत्र और कार्यक्षेत्र में अधिक से अधिक दूसरो के काम आ सके। अपनी प्रतिभा, समय और धन साधन को यथाशक्ति लोकमंगल में समर्पित करना , यही आराधना का सच्चा स्वरूप है।
इस प्रकार आध्यात्मिक दृष्टिकोण से नवरात्रि पर्व सभी के लिए विशेष महत्व रखता है। उपासना और साधना से हमारी सत्प्रवृत्तियां विकसित हों और उन्हें हम लोकहित में नियोजित करें इसी में हमारे नवरात्रि व्रत पूजन की सार्थकता है।

– स्वाति श्रीवास्तव
 भोपाल

Swati Shrivastava

2 Comments to “नवरात्रि पर्व: आध्यात्मिक दृष्टिकोण”

  • पवनेश

    राधे राधे स्वाति जी,
    आदिशक्ति भगवती मां जगदम्बे के पावन उपासना पर्व नवरात्रि पर आपका समृद्ध वैचारिक चिंतन निसंदेह संग्रहणीय है। सादर 🙏🌹🙏,

  • Swati Shrivastava

    सादर धन्यवाद। मातारानी सदैव कृपा बनायें रखें 🙏 राधे राधे

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