
“कल्प भेंटवार्ता” – श्रीमती मधु वशिष्ठ जी के साथ”
- कल्प भेंटवार्ता
- 10/10/2025
- लेख
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🌺 “कल्प भेंटवार्ता” – श्रीमती मधु वशिष्ठ जी के साथ 🌺
नाम :- श्री मधु वशिष्ठ जी, फरीदाबाद (हरियाणा)
माता/पिता का नाम :-श्री सोमदत्त शर्मा
श्रीमती तारा रानी शर्मा
जन्म स्थान एवं जन्म तिथि :- दिल्ली, 10.9.1959
पति/पत्नी का नाम :-श्री महेश दत्त वशिष्ठ
बच्चों के नाम :-अंकित वशिष्ठ, शैली शर्मा।
शिक्षा :-बी.ए. /बी.एड
व्यावसाय :- दिल्ली सरकार से सेवानिवृत्त अधिकारी ।
वर्तमान निवास :-फरीदाबाद, हरियाणा।
आपकी मेल आई डी :- kathaa.madhu@gmail.com
आपकी कृतियाँ :- बहुत से समाचार पत्रों एवं ई- पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
आपकी विशिष्ट कृतियां:-
01) अकेलापन साथ चलता है।
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भीड़ में भी अकेलापन साथ चलता है।
मन से निभाए रिश्ते फिर क्यों हाथ मलता है?
अपना ही तो बनाकर कोई एक दूजे को छलता है,
वरना किसकी क्या बिसात?
अन्जानों पर कोई भरोसा ही कब करता है?
भले ही कारवां है पीछे, परंतु विश्वास करें किस पर?
अब तो खुद के साए से भी डर सा लगता है।
जाने कब किसको ,कैसे क्या ना कह देंगे।
बेहतर यही है कि भीड़ में भी चुप ही रह लेंगे।
भीड़ हो या अकेलापन मन अब
खुद ही खुद से बातें करता है।
जब से बनाया है साथी खुद को,
मन अब निश्चिंत सा लगता है।
कछुए के खोल के जैसे बना लिया है जब से चुप्पी का कवच,
अब भीड़ हो या उछीड़
ना मैं किसी से और ना ही कोई
मुझसे कभी कुछ कहता है।
02) अमीर या गरीब
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हम शायद तब गरीब थे
क्योंकि कुछ पैसों का अभाव था।
परंतु सोचते हैं तब घर में हमारा कितना प्रभाव था।
घर में ही सब कुछ बनाते थे,
तड़के सुबह उठ जाते थे।
घर कितना साफ था,
खुद करते थे हम सारे काम,
पति और बच्चों का भी मिलता साथ था।
समोसे, पूरी, हलवा, कचोरी त्योहारों पर बनते थे।
हलवाई से सामान नहीं खरीदते थे ,
वह पैसे तो बचते थे।
कभी घूमने जाते थे तो पिकनिक भी मनाते थे।
पर खाना तो अपना हम सब घर से ही ले जाते थे।
वही पिकनिक में सारे बहन भाई मिलजुल कर खाते और बहुत आनंद उठाते थे।
घर में दरवाजे पेंट भी खुद ही कर लेते थे,
बल्ब लाकर बनाते थे लड़ियां,
दिवाली पर वही बल्ब तो जलते थे।
अब हम शायद अमीर हो गए।
रिश्तेदारियों से दूर हो गए।
घर में खाना भी कुक बनाती है,
सफाई करके कपड़े भी अब शांताबाई धो जाती है।
शरीर अब फूल गया है।
बिस्तर से जो जोड़ा नाता,
बहुत कुछ अब भूल गया है।
उठना भी काम अब लगता है,
अब शरीर से काम कुछ नहीं होता है।
बाहर निकलना भी छूट गया है,
सबसे नाता टूट गया है।
बच्चों को भी तो अब जरूरत नहीं,
अब तला भुना खाना तो उनका भी छूट गया है।
यह शायद अमीरी का ही प्रभाव है,
कि सबके पास समय का अभाव है।
मेरे अकाउंट में भी शायद अब पैसे हैं,
मालूम नहीं पर खर्च करने कैसे हैं?
यूं लगता है अब आगे का जीवन उन पैसों के सहारे ही तो काटना है।
एक अटेंडेंट के सिवा अब किससे दुख बांटना है?
समय किसी के पास नहीं,
शायद पैसों का भी अभाव नहीं,
समझ नहीं आता,
यह कैसी लालसा जागी जगत में,
परिवार को छोड़कर किसको पालने।
सबको पैसे के पीछे भागना है?
थोड़े में होता उन्हें संतोष नहीं,
कैसे पाएंगे और भी पैसा,
अपना तक तो उनको होश नहीं।
हम तो गरीब ही अच्छे थे,
तब बच्चे अपने बच्चे थे।
अंतिम समय में भी हम अपने माता-पिता के साथ थे,
दम तोड़ा जब उन्होंने हमारे हाथ में ही उनके हाथ थे।
आज हर चीज से डर लगता है,
अमीर हो गए, पर जीवन कितना बचा है,?
यह सोचते हैं तो अपना पैसा भी कम लगता है।
क्या हम आज भी गरीब है?
पता नहीं!
जब तक हम दे पाएंगे अटेंडेंट के पैसे वह भी तब तक ही तो वो हमारे करीब है।
अब तो अकेलापन ही नियति है,
पता नहीं हम अमीर है या कि गरीब हैं।
यह सोचने की भी तो हिम्मत अब नहीं बचती है।
03) असुरक्षित बेटियां
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कैसे कह दूं की बेटियां सुरक्षित नहीं है।
बेटियां ही क्यों यूं लगता है सुरक्षित आज कोई ,जन नहीं है।
कैसे कह दूं बाहर केवल नर पिशाच घूम रहे हैं।
पिता के चेहरे पर भी तो देखो
कैसे चिंता के सागर गहन हो रहे हैं।
भाई अपनी जवानी में अपने संघर्ष से भी ज्यादा बहनों की सुरक्षा के लिए दौड़ रहे हैं।
मां का तो दिल ही घबरा जाता है
जब तक बेटी का फोन नहीं उठ जाता है।
इस असुरक्षा के माहौल में आत्मरक्षा के नए अस्त्र ढूंढने से पहले यह शोध क्यों नहीं होता कि दुर्भावनाएं इतनी प्रबल क्यों हो जाती है?
क्यों नहीं शोध होते इस विषय पर
मानव की कोमलता लुप्त क्यों हो जाती है?
यह पैशाचिक मानसिकता कैसे बन जाती है?
मानवता मानव की क्यों मर जाती है?
उसकी चैतन्यता सुप्त क्यों हो जाती है।
पिशाचों सी वीभत्स क्रीडा करते हुए वेदना उसके हृदय को क्यों नहीं सताती है?
उसकी आत्मा क्यों मर जाती है?
काश टीवी के रिमोट के जैसे एक जीवन का भी रिमोट होता जिसमें बदल देते हम लहूलुहान, क्रूर वीभत्स चित्र।
मानवता से परिपूर्ण
तब पूरा संसार ही होता एक दूजे का मित्र।
रिमोट दबाते ही दुर्भावनाएं दूर हो जाती।
संसार की यात्रा सुख से पूर्ण हो जाती।
हम निडर होकर भरते अपने सपनों की उड़ान,
परमात्मा के अंश है हम जो यह लेते पहचान।
धरती पर हैं हम हैं केवल कुछ समय के लिए मेहमान।
बस इतना ही जो सब लेते जान।
असुरक्षा शब्द ही तब खो देता अपनी पहचान।
सबके चेहरे पर खिलती मीठी सी मुस्कान।
आपकी प्रकाशित कृतियाँ :- कहानियां यादों की।
कथा कुंज।
जीवन
मन
भक्ति सागर
अनुभव।
पुरूस्कार एवं विशिष्ट स्थान :-
बहुत से मंचों के द्वारा मुझे मेडल और सर्टिफिकेट
प्राप्त हुए हैं। स्टोरी मिरर द्वारा मुझे लिटरेरी जनरल की उपाधि मिली हुई है। स्टोरी मिरर द्वारा मुझे 2023 में ऑथर ऑफ़ द ईयर का अवार्ड मिला और 2025 में साहित्य के अवार्ड रैंक वन मिला है।
प्रतिलिपि द्वारा भी मुझे बहुत से सर्टिफिकेट और गोल्डन बैच मिला हुआ है।
मेरा अपना एक यूट्यूब चैनल भी है जिसका नाम कहानियां यादों की है। बेटियां मंच द्वारा भी मुझे बहुत सी ट्रॉफी प्राप्त हुई है।
!! “मेरी पसंद” !! (लेखन और पाठन)
उत्सव :- कोई भी खुशी का उत्सव।
भोजन :- सबके साथ मिलकर शांति से खाया हुआ भोजन जो मन संतुष्टि दे।
रंग :- खुशी का रंग।
परिधान :- साधारण
स्थान एवं तीर्थ स्थान :- जहां भी बैठकर सकारात्मकता का अनुभव हो
लेखक/ बर्नार्ड शॉ
/लेखिका :- अमृता प्रीतम
कवि/गोपाल प्रसाद व्यास/कवयित्री :-
अमृता प्रीतम
उपन्यास/निर्मला ,प्रेमचंद/कहानी/बड़े घर की बेटी/पुस्तक :- आपका बंटी मन्नू भंडारी।
कविता/गीत/काव्य खंड :-अंबर की एक पाक सुराही बादल का एक जाम उठाकर घूंट चांदनी पी है हमने ,बात कुफ्र की की है हमने
खेल :- बच्चों को खेलते हुए देखना।
फिल्में/धारावाहिक (यदि देखते हैं तो) :- कोई भी भावनात्मक फिल्म
आपकी लिखी हुई आपकी सबसे प्रिय कृति :- 01) रंगीन ख्वाब
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ख्वाब था रंगीन कोरा रह गया।
सोचा क्या था और क्या हो गया?
भटकता रहा तुमको हर सुख, देने के लिए,
तुम चली गई दुनिया से ,और सामान यूं ही जोड़ा रह गया।
देखे थे जो सपने साथ जीने मरने के।
साथ तुम्हारे सुबह शाम बरामदे में बैठकर चाय की चुस्की भरने के।
तुम्हारे जाते ही सब अधूरा रह गया।
वह मसरूफियत जाने कहां पर खो गई?
मैं तो बंद कमरे में अकेला रह गया।
वह भीड़ लोगों की जो थी तुम्हारे होने से।
आज तुम्हारे जाते ही मैं तो अकेला हो गया।
बहुत कुछ है मेरे पास की खुद को अमीर साबित कर दूं मैं,
पर तुम बिन अमीरी का हर जुड़ा सामान भी कूड़ा हो गया।
काश ख्वाब की जगह मैं जिंदगी रंगीन कर लेता,
आज केवल ख्वाब ही नहीं मैं भी कोरा हो गया।
!! “कल्पकथा के प्रश्न” !!
प्रश्न १. मधु जी, आपके व्यक्तित्व का प्रथम परिचय ‘ कर्मयोगी साहित्यकार’ के रूप में मिलता है। कृपया बताइए कि आपके साहित्यिक लेखन की प्रेरणा-धारा कहाँ से फूटी और आपके रचनाकर्म का मूलाधार क्या रहा?
आदरणीय जी बचपन से ही मेरा एक ही शौक था वह था साहित्य का पढ़ना। मेरे घर के पास एक दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी एक कमेटी हॉल लाइब्रेरी, एक रामकृष्ण मिशन की लाइब्रेरी थी इसके अतिरिक्त बहुत सी पुस्तक और पत्रिकाएं पढ़ना और मंगवाना स्वाभाविक ही था। बचपन से ही मुझे पढ़ने का शौक था और वैसे ही लिखने का भी हो गया लेखन मेरी आदत है। विवाह और दफ्तर की व्यस्तताओं से पहले रोजाना डायरी लिखने का भी मेरा नियम था।
प्रश्न २. आदरणीया आप राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के प्रमुख नगर, महाभारत कालीन ग्राम तिलप्रस्थ, संत कवि सूरदास जी की जन्म स्थली सूरदास सीही फरीदाबाद से हैं। हम आपसे आपके नगर को आपके ही शब्दों में जानना चाहते हैं।
क्योंकि मेरा कार्यालय और मायका दिल्ली में ही था और दिल्ली ही मेरी जन्मस्थली तो वह शहर मेरे मन में ही बसा हुआ अपना सा लगता था। वहां पर लाल किला कुतुब मीनार राष्ट्रपति भवन, 26 जनवरी और 15 अगस्त की झांकियां देखने और एक बार तो मैं अपने स्कूल की तरफ से 26 जनवरी के समारोह में भाग भी लिया था दिल्ली बहुत अपनी लगती थी। मेरा ससुराल और रहना फरीदाबाद में था। फरीदाबाद में आने के बाद यहां पर घूमने के लिए। बटकल लेक ही प्रसिद्ध थी, सूरजकुंड भी जाया जा सकता था । दिल्ली से आने के बाद यहां बहुत शांत वातावरण लगता था क्योंकि वहां तो हर वक्त बसों की भीड़ भाड़ तब भी थी मैं यह बात 70 के दशक की कर रही हूं। सूरदास की जन्मस्थली का ऐतिहासिक महत्व तो था ही और गर्व से हम यह बात कह सकते थे कि हम सूरदास की जन्मस्थली में है परंतु आज फरीदाबाद एनसीआर में होने के बाद दिल्ली से ही लगा हुआ एक तरह का दिल्ली के ही एक भाग के रूप में परिवर्तित हो चुका है अब तो दिल्ली या फरीदाबाद कोई खास फर्क नहीं लगता।
प्रश्न ३. आदरणीया, हम आपसे आपके बचपन की नादानी का वह प्रसंग जानना चाहते हैं जो याद करके आप आज भी मुस्कुरा उठते हैं।
बचपन में हम सरकारी मकान में रहते थे तब मोबाइल इत्यादि का जमाना तो था नहीं सब खेल ही खेला करते खो खो , पिट्ठू ,रस्सी कूदना इत्यादि वहां पर साथियों का भी अभाव नहीं था हम सब मिलकर खेल करते थे क्योंकि मैं बहुत लंबी थी और रस्सी कूदना मुझे बहुत अच्छा लगता था तो रस्सी कूदने के खेल में मैं जब होती थी तो मेरे पीछे वाली छोटी लड़कियां अक्सर आउट हो जाती थी तो मुझसे सब यही कहा करती थी कि तुम रस्सी घुमाओ और हम सब बाद में आकर के रस्सी को घुमा कर तुम्हें खेलने का मौका देंगे। मैं अगर घूमाती थी तो मेरा हाथ ऊंचा था तो ज्यादा ऊंची घुमा पाती थी। अगर मैं्
सबके साथ कूदती थी तो वहां छोटी लड़कियां जल्दी ही आउट हो जाती थी तो सबको मेरा कूदना अच्छा नहीं लगता था कई बार मैं उनसे गुस्सा हो जाती थी कि अब मैं तुम्हारे साथ नहीं खेलूंगी परंतु फिर भी मेरे लंबी होने की वजह से या उस समय प्रेम की वजह से सब मुझे मनाती थी और खिलाती थी एक बार मेरे गुस्सा होने पर सब ने कहा ठीक है आज हम सब बारी-बारी से रस्सी घुमाएंगे और आज तुमको ही बहुत देर तक रस्सी कूदने का मौका दे देंगे। उसे दिन सब ने अपनी तरफ से मेरी शिकायत दूर करने का प्रयत्न किया क्या ऐसा प्यार और इतने सारे साथियों का मिलन आज संभव है? उ समय का रात तक घर से बाहर खेलते रहना बहुत याद आता है।
प्रश्न ४. मधु जी, आपकी साहित्य यात्रा दिल्ली सरकार की गरिमामय सेवा से प्रारम्भ होकर पूर्णकालिक लेखन की दिशा में विकसित हुई — क्या यह परिवर्तन आत्मा की पुकार था अथवा समय का आह्वान?
पाठक और लेखक तो शायद मैं बचपन से ही थी परंतु सेवानिवृत होने के उपरांत समय और भावनाएं मेरे पास बहुतायत में थी उन्हीं को अपने लेखन के द्वारा प्रयुक्त करके मैं कब लेखक में परिवर्तित हो गई पता ही नहीं चला । आधुनिक समय में लेखन अब इतना मुश्किल भी नहीं रह गया था लेखन और पाठन मेरा एकमात्र शौक था ,70 के दशक में मेरी रचनाएं कॉलेज की मैगजीन और दिल्ली प्रेस की पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। उसके उपरांत घर और दफ्तर की व्यवस्तताओं में लेखन पर ध्यान नहीं दे पाई परंतु सेवानिवृत होने के उपरांत लेखन के शौक को जागृत करके पूर्णतया लेखन के लिए समर्पित हो गई।
प्रश्न ५. साहित्य के इस सागर में आपने “कहानियां यादों की” से लेकर “भक्ति सागर” तक जिन विविध धाराओं को स्पर्श किया,ह उनमें कौन-सा अनुभव आपको सर्वाधिक आत्मसंतोष प्रदान करता है?
एकमात्र लेखन ही मुझे संतोष देता है, यह तो पाठकों और श्रोताओं का प्रेम है जो कि मुझे प्रोत्साहित करता है और और अधिक लिखने को प्रेरित करता है।
प्रश्न ६. लेखन आपके लिए अभिव्यक्ति का माध्यम है या आत्मसंवाद का विस्तार? आपकी दृष्टि में एक रचनाकार का प्रथम उत्तरदायित्व क्या होना चाहिए?
लेखन अपने अनुभव और भावनाओं का प्रकट करने का एक सशक्त माध्यम है। अपने लेखन के द्वारा मैं अपने जीवन के इस मोड़ तक आने में बहुत कुछ जो बदलना चाहती थी या कि जो भी अनुभव किया है उन्हीं को ही मैं अपनी लेखन के माध्यम से बदलकर समाज में सकारात्मकता फैलाना चाहती हूं।
प्रश्न ७. आदरणीया, अन्यान्य मंचों पर निरंतर सफलता प्राप्त करना किसी साधना से कम नहीं — इस निरंतरता का रहस्य आप किन शब्दों में व्याख्यायित करेंगी?
मेरा एकमात्र उद्देश्य समाज में सकारात्मकता फैलाना है। आज के समय में जब समाचार पत्रों एवं सोशल साइट में जब नकारात्मक समाचारों की अति हो रही है उसी में ही सकारात्मक साहित्य फैला कर श्रोताओं और पाठकों को
आकर्षित करना ही एकमात्र उद्देश्य है और श्रोताओं और पाठकों की प्रसन्नता ही एकमात्र उद्देश्य लेकर चलने से पाठकों और श्रोताओं के द्वारा मिला आशीर्वाद ही पूंजी है
प्रश्न ८. आपने अनेक मंचों पर मंच संचालन भी किया है — एक वक्ता और एक लेखिका के बीच कौन-सा भावतरंग आपको अधिक गहराई से स्पर्श करता है?
वक्ता हो या लेखिका किसी भी रूप में मैं अपने आपको शिक्षार्थी ही मानती हूं।
प्रश्न ९. आधुनिक डिजिटल युग में लेखन के स्वरूप और पाठक के स्वभाव दोनों में परिवर्तन आया है — इस परिवर्तित परिवेश में आप अपने लेखन की मौलिकता कैसे बनाए रखती हैं?
मुझे तो लगता है डिजिटल में लिखना बहुत सरल हो गया है।70 के दशक में पहले लिखना ,फिर पोस्ट करना और फिर प्रकाशित होने की इंतजार करना बेहद कठिन होता था अब सुलभता अधिक होने से पाठक ,श्रोता लेखक सब बहुतायत मात्रा में हो गए हैं और अब कोई भी अपने भाव को प्रकट करने में समर्थ है इसलिए अब साहित्य का कोई निश्चित स्तर नहीं रहा। मैं अपनी भावनाओं को ही सकारात्मक करके साहित्य में डालने का प्रयत्न करती हूं।
प्रश्न १०. आपकी रचनाओं में संवेदना, स्मृति और श्रद्धा के तंतु एक साथ गुंथे प्रतीत होते हैं — क्या यह आपकी जीवन-दृष्टि का स्वाभाविक विस्तार है?
समय के साथ अनुभव और समाज के लिए कुछ सकारात्मक करने की इच्छा ही मुझे लेखन को प्रेरित करती है और आप सबका आशीर्वाद ही मेरे लेखन को जीवंतता प्रदान करता हैं।
प्रश्न ११. समाज में सकारात्मकता का प्रसार आपकी लेखनी का उद्देश्य है — क्या आपको लगता है कि आज के पाठक इस “सकारात्मक साहित्य” की ओर पुनः आकृष्ट हो रहे हैं?
मैं अपनी कोशिशें यथावत करती रहूंगी। बहुत से कमेंट्स के द्वारा मुझे ज्ञात होता है कि लोग लेखन को पसंद भी करते हैं । मैं तो यही मानती हूं कि बहुत से लोग साहित्य की और पुनः आकर्षित हो रहे हैं
प्रश्न १२. हिन्दी साहित्य के इतिहास में आदिकाल से आधुनिक युग तक भाव, भाषा और विषय-वस्तु में जो परिवर्तन हुए हैं — उन्हें आप किस दृष्टि से देखती हैं?
आदिकाल से आधुनिक काल तक समाज मे आए परिवर्तन का असर साहित्य पर पड़ना स्वाभाविक ही है।समाज में बदलते मूल्यों का असर साहित्य पर पढ़ता है और दुःखद परिस्थिति यह है कि आज के समाज में साहित्य के रूप में अश्लीलता परोसी जा रही है इसलिए साहित्यिक मंचों एवं प्रत्येक चिंतकों का यह दायित्व हो जाता है कि साहित्य के द्वारा समाज में सकारात्मकता फैलाएं।
प्रश्न १३. भक्ति युग की आत्मिक अनुभूति, रीतिकाल की अलंकारिकता और आधुनिक युग के यथार्थवाद — इन तीनों के सम्मिश्रण से आज का साहित्य किस दिशा में अग्रसर है?
आज साहित्य की रचना इतनी सरल हो गई कि प्रत्येक जन अपनी भावनाओं को लेखन के रूप में प्रेषित कर सकता है। वहीं कुछ असामाजिक तत्व आज के समय की सोशल साइट पर अफवाह और दुर्भावनाएं भी फैला रहे हैं और जिसे यथार्थवाद का नाम दे दिया जाता है प्रत्येक लेखक की और प्रत्येक जागरूक देशभक्त की यह जिम्मेदारी बनती है कि अच्छे लेखन को प्रोत्साहित करें और आज के नवयुवकों को भी अच्छे लेखन के पाठन की ओर प्रेरित करें।
प्रश्न १४. समकालीन हिन्दी साहित्य में नारी लेखन ने एक सशक्त पहचान बनाई है — क्या आप इसे नवजागरण का रूप मानती हैं या सामाजिक चेतना का पुनर्प्रकाश?
आज नारी प्रत्येक क्षेत्र में सफल हो रही है तो लेखन भी इससे अछूता नहीं रहा। आज की नारी जीवन प्रत्येक बिंदु पर अपनी नजर जमाए हुए हैं और वह अपनी भावनाओं को प्रकट करने के लिए भी सक्षम है। समाज में फैली कुरीतियों के प्रति जागरूकता फैलाकर बहुत सी नारी लेखिकाएं पटल के माध्यम से समाज में सकारात्मकता फैलाने के लिए समर्पित हैं।
प्रश्न १५. कथा साहित्य के क्षेत्र में आज सोशल मीडिया ने नये लेखक और पाठक दोनों को जोड़ा है — परंतु क्या इस विस्तार ने साहित्य की गंभीरता को प्रभावित किया है?
आज सोशल मीडिया के कारण, लेखक दर्शक, श्रोता सभी का बाहुल्य है। समाज में हर दिन नए आविष्कार, नए उपकरण नए विचार चलन में आ रहे हैं। प्रत्येक दिन के अनुरूप नए बदलते विचारों के कारण लेखन में माना गंभीरता का अभाव होता जा रहा है परंतु फिर भी अच्छे जीवन जीने के सिद्धांत तो नहीं बदले हैं उन्हीं सिद्धांतों को दर्शाती हुई रचनाएं भी पटल पर प्रेषित होती हैं जो कि देश प्रेम और सेवा भाव की ऊर्जा भरती हुई समाज में सकारात्मकता फैलाती है।
प्रश्न १६. आधुनिक कथा-साहित्य में भावप्रधानता और विषय-प्रधानता के बीच जो संतुलन बनाना कठिन होता जा रहा है, उसे आप किस प्रकार साधने की सलाह देंगी?
पुरातन कल में भावों का अधिक महत्व था परंतु आज भावों पर भौतिकता हावी है। संवेदनहीनता चरम पर है ऐसे में भावुक और प्रेरणात्मक साहित्य लिखने वालों को दर्शक और पाठक बाहुल्य में मिलने सरल नहीं होते परंतु फिर भी मैं तो यही चाहूंगी की प्रयासरत रहना चाहिए, कुछ लोग का जीवन भी अगर आपके साहित्य से बदलता है तो वही एक लेखक के लिए सबसे बड़ा पारितोषिक होता है।
प्रश्न १७. हिन्दी साहित्य के भविष्य की दिशा आप किस ओर देखती हैं — क्या यह परंपरा की जड़ों से जुड़कर उन्नति करेगा या वैश्विक प्रभावों के साथ नया रूप धारण करेगा?
जड़ों से कट कर तो कुछ भी नहीं फलता फूलता है परंपरा और वैश्विक प्रभावों के बीच की कड़ी से जिस साहित्य का जन्म होगा वही आधुनिक काल का साहित्य होगा
———
परंपरा को काटकर
परिवार को बांटकर,
भुलाकर संस्कारों को
भला तुम क्या पाओगे?
आज तीन भाइयों वाला परिवार केवल तीन सदस्यों में ही सिमट गया,
अब यह भी छोड़ दें तो
भला कहां तुम जाओगे?
3 दिन में पहुंचने वाला एक पत्र
अब मेल से 3 मिनट में ही पहुंच गया।
बात करने को समय अब भी नहीं तो संस्कार कैसे निभाओगे?
हाथ से करते थे जो सब काम
अब मशीनों ने कर लिया।
समय फिर भी नहीं बचा
तुम शरीर से थक तो ना पाओगे?
छोड़कर परंपरा को,
भूल कर संस्कृति को
कटकर अपनी जड़ों से
निश्चित है तुम अवसाद ही तो पाओगे।
प्रश्न १८. अंत में, यदि आपको अपनी अब तक की साहित्यिक यात्रा को एक प्रतीक के रूप में व्यक्त करना हो — तो वह प्रतीक क्या होगा? “दीप”, “धारा” या “दर्पण”? और क्यों?
हिंदी साहित्य की यात्रा को मैं एक दर्पण ही मानूंगी जो भी मैंने देखा उसी को अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रकट कर लिया जो भी विचारों के द्वारा में किसी भी गलती का सुधार कर पाई उसे मैंने अपनी कहानी के माध्यम से प्रकट कर दिया। मेरी प्रत्येक रचना दर्पण ही तो है जो मैंने देखा वह आप सबके सामने प्रकट कर दिया।
प्रश्न १९. कल्पकथा साहित्य संस्था जैसे मंचों की भूमिका के संदर्भ में— क्या आप मानते हैं कि साहित्य की चेतना अब पुनः जाग रही है?
कल्प कथा साहित्य संस्था जैसे मंचों को मैं धन्यवाद ज्ञापित करती हूं। ऐसी संस्थाएं उच्च स्तर की देश सेवा और समाज सेवा कर रही है। समाज को जागरूक करती हैं। नवांकुरों को लेखक में परिवर्तित करती है। इस समय जब अश्लीलता अपने चरम पर है और प्रत्येक क्षेत्र में प्रत्येक सोशल साइट पर दृष्टिगोचर हो रही है उस समय में संस्कारों को बचाए रखने का बीड़ा इन मंचों ने उठा रखा है।संस्कृति का प्रचार प्रसारौ करने में यह मंच अपना योगदान दे रहे हैं। यदि ऐसे मंच सक्रिय न हो तो हमारी नई पीढ़ी शायद हमारी संस्कृति हमारे त्योहार इत्यादि के बारे में जान भी ना पाए। यह मंच हर त्योहार से पहले, उस त्यौहार के बारे में कविताओं विचारों और लेखन के माध्यम से देशवासियों को जागरुक करते हैं। देश में आई ज्वलंत समस्याओं का समाधान भी इन मंचों मैं विचारक लेखन के द्वारा किया जाता है। मैं ही नहीं, प्रत्येक जागरूक और देशभक्त ऐसे मंचों को नमन करता है और उनके विकास की परमात्मा से प्रार्थना करता है।
प्रश्न २०. आप अपने समकालीन लेखकों, दर्शकों, श्रोताओं, पाठकों, को क्या संदेश देना चाहेंगे?
मेरा सबसे यही अनुरोध है कि यदि आप श्रोता है पाठक है तो अच्छे विचार और अच्छी कविताएं केवल खुद तक न रखें अपितु सबसे शेयर भी करें ताकि अच्छाई का प्रचार और प्रसार हो। आज के समय की सबसे बड़ी समस्या यही है कि उच्च स्तर का लेखन सब तक पहुंचना मुश्किल है। यदि आप लेखक या विचारक है तो कृपया अपने लेखन द्वारा अभिव्यक्ति करना ना छोड़ें। भले ही यह प्रयास एक गिलहरी के जैसा ही हो परंतु जीवन में यदि हमारे लेखन के द्वारा किसी का भी जीवन बदल जाए और किसी के भी चेहरे पर मुस्कुराहट आं जाए तो इससे बड़ा पारितोषिक और सफल लेखन कोई नहीं हो सकता।
🎯 “श्रीमती मधु वशिष्ठ जी सूरदास सीही, फ़रीदाबाद हरियाणा के साथ कल्प भेंटवार्ता कार्यक्रम देखने के लिए कृपया लिंक पर जाएँ।” 🎯
https://www.youtube.com/live/j5T6BBLyuyI?si=DhtQkAI27RbuxyFB
🎯 “कल्प भेंटवार्ता प्रबंधन”🎯
One Reply to ““कल्प भेंटवार्ता” – श्रीमती मधु वशिष्ठ जी के साथ””
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पवनेश
राधे राधे,
आदरणीया श्रीमती मधु वशिष्ठ जी के साथ भेंटवार्ता कार्यक्रम अत्यंत आनंददायक रहा है। 🙏🌹🙏